ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १७१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १७१ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणः देवता- मरुतः ३-६ मरुत्वानिन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप प्रति व एना नमसाहमेमि सूक्तेन भिक्षे सुमतिं तुराणाम् । रराणता मरुतो वेद्याभिर्नि हेळो धत्त वि मुचध्वमश्वान् ॥१॥ हे मरुद्गण ! हम स्तुति गान करते हुए विनयावनत हो आपके समीप आते हैं। तीव्र गति से जाने वाले आप वीरों के श्रेष्ठ परामर्शों की हम याचना करते हैं। इन ज्ञानवर्धक स्तुतियों से हर्षित होकर किसी भी प्रकार के विद्वेष को भुला दें तथा रथ से घोड़ों को मुक्त कर दें (यहीं हमारे समीप रहें) ॥१॥ एष वः स्तोमो मरुतो नमस्वान्हृदा तष्टो मनसा धायि देवाः । उपेमा यात मनसा जुषाणा यूयं हि ष्ठा नमस इदृद्धासः ॥२॥ है वीर मरुतो ! इस विनम्रभाव तथा एकाग्र मन से रचित स्तोत्रों को आप ध्यानपूर्वक सुनें। हे दिव्य वीरो ! हृदय से हमारे स्तोत्र से प्रशंसित होकर आप हमारे समीप आयें। आप ही इस (हव्य) को बढ़ाने वाले हैं॥२॥ स्तुतासो नो मरुतो मृळयन्तूत स्तुतो मघवा शम्भविष्ठः । ऊर्ध्वा नः सन्तु कोम्या वनान्यहानि विश्वा मरुतो जिगीषा ॥३॥ स्तुतियों से प्रशंसित होकर मरुद्गण हमारे लिए सुख-सौभाग्य प्रदान करें, उसी प्रकार सबके सुखप्रदायक, वैभवशाली इन्द्रदेव भी स्तुतियों से प्रसन्न होकर हमें सुखी करे हे मरुद्गण ! हमारा शेष जीवन प्रशंसनीय, सुन्दर तथा योग्य बने ॥३॥ अस्मादहं तविषादीषमाण इन्द्राद्भिया मरुतो रेजमानः । युष्मभ्यं हव्या निशितान्यासन्तान्यारे चकृमा मृळता नः ॥४॥ है मरुतो ! इन शक्तिशाली इन्द्रदेव के भय से हम घबराते और कॉपते हैं। (भय के कारण आपके निमित्त तैयार की गयीं आहुतियाँ एक तरफ कर दी गयी। अतः (आप हमारे ऊपर नाराज न हों, अपितु) हमें सुखी बनायें ॥४॥ येन मानासश्चितयन्त उस्रा व्युष्टिषु शवसा शश्वतीनाम् । स नो मरुद्भिर्वृषभ श्रवो धा उग्र उग्रेभिः स्थविरः सहोदाः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपकी जिस सामर्थ्य से प्रेरित होकर किरणे नित्य उषाओं के प्रकाशित होने पर सर्वत्र आलोक फैलाती हैं। हे सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव ! पराक्रमियों में सर्वश्रेष्ठ शूरवीर तथा बलप्रद आप मरुतों के सहयोग से हमें अन्न प्रदान करें ॥५॥ त्वं पाहीन्द्र सहीयसो नृन्भवा मरुद्भिरवयातहेळाः । सुप्रकेतेभिः सासहिर्दधानो विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आप शत्रुओं का संहार करने वाले नेतृत्वकर्ताओं का संरक्षण करें और मरुतों के साथ रहने वाले आप क्रोध से रहित हों । श्रेष्ठ तेजस्विता से सम्पन्न तथा शत्रविनाशक सामर्थ्य को आप धारण करते हैं। हम भी अन्न, बल और दाता की वृत्ति को स्वाभाविक रूप में धारण करें ॥६॥

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