ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त १६

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त १६ ऋषि - पुरूरात्रेयः देवता - अग्नि । छंद -अनुष्टुप, ५ पंक्ति बृहद्वयो हि भानवेऽर्चा देवायाग्नये । यं मित्रं न प्रशस्तिभिर्मर्तासो दधिरे पुरः ॥१॥ याजकगण मित्र के समान, तेजस्वी अग्निदेव को स्तुति के लिए अपने सम्मुख स्थापित करके उसमें प्रचुर मात्रा में हविष्यान्न की आहुति प्रदान करते हैं ॥१॥ स हि द्युभिर्जनानां होता दक्षस्य बाह्वोः । वि हव्यमग्निरानुषग्भगो न वारमृण्वति ॥२॥ जो अग्निदेव देवताओं के लिए अनुकूल मार्गों से हव्यादि पदार्थों को पहुँचाते हैं, जो बाहुबल की दीप्तियों से प्रकाशित होते हैं, वे अग्निदेव यजमानों के लिए देवों का आह्वान करने वाले हैं। वे सूर्यदेव के सदृश सम्पूर्ण वरणीय धनों को प्रदान करने वाले हैं ॥२॥ अस्य स्तोमे मघोनः सख्ये वृद्धशोचिषः । विश्वा यस्मिन्तुविष्वणि समर्ये शुष्ममादधुः ॥३॥ सब ऋत्विग्गण हव्य पदार्थों और उत्तम स्तोत्रों द्वारा बहुत शब्द युक्त विशिष्ट अग्निदेव में बलों को भली-भाँति स्थापित करते हैं। हम सब इस प्रवृद्ध, तेजस् सम्पन्न और ऐश्वर्यवान् अग्निदेव के साथ मित्र, भाव में रहकर स्तुतियाँ करते हैं ॥३॥ अधा ह्यग्न एषां सुवीर्यस्य मंहना । तमिद्यहं न रोदसी परि श्रवो बभूवतुः ॥४॥ हे अग्निदेव ! हमें अभिलषित, श्रेष्ठ, पराक्रमयुक्त बलों से युक्त करें । जैसे पृथ्वी और आकाश महान् सूर्यदेव के आश्रय पर अवस्थित हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण अन्न और धन आपके आश्रय से हम प्राप्त करते हैं ॥४॥ नू न एहि वार्यमग्ने गृणान आ भर । ये वयं ये च सूरयः स्वस्ति धामहे सचोतैधि पृत्सु नो वृधे ॥५॥ हे अग्निदेव ! हम यजमान आपकी स्तुति करते हैं। आप शीघ्र ही हमारे यज्ञ में अधिष्ठित हों और हमारे निमित्त वरणीय धन को धारण करें। हम स्तोतागण आपकी स्तुति करते हैं। आप युद्ध में हमें रक्षण- साधनों से समृद्ध करें ॥५॥

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