ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त २०

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त २० ऋषि - प्रयस्वन्त आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद -अनुष्टुप, ४ पंक्ति यमग्ने वाजसातम त्वं चिन्मन्यसे रयिम् । तं नो गीर्भिः श्रवाय्यं देवत्रा पनया युजम् ॥१॥ हे अन्न प्रदायक अग्निदेव ! हम लोगों द्वारा प्रदत्त हव्यरूप जिस धन को आप स्वीकार करते हैं, हमारी स्तुतियों के साथ उस व्य रूप धन को, देवों तक पहुँचाएँ ॥१॥ ये अग्ने नेरयन्ति ते वृद्धा उग्रस्य शवसः । अप द्वेषो अप ह्वरोऽन्यव्रतस्य सश्चिरे ॥२॥ हे अग्निदेव ! जो व्यक्ति पशु आदि धन से संयुक्त होकर भी आपको हवि प्रदान नहीं करता, वह व्यक्ति आपके उग्र बलों का सामना कर बल-विहीन हो जाता है। जो अन्यान्य वैदिक कर्मों से द्वेष या विरोध- भाव रखता है; वह भी आपके द्वारा हिंसित होता हैं ॥२॥ होतारं त्वा वृणीमहेऽग्ने दक्षस्य साधनम् । यज्ञेषु पूर्वं गिरा प्रयस्वन्तो हवामहे ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप देवों के आह्वानकर्ता, बलों को प्रदान करने वाले और अन्नों से सम्पन्न हैं। हम आपका वरण करते हैं। यज्ञों में श्रेष्ठ आपकी हम उत्तम स्तुतियाँ करते हैं ॥३॥ इत्था यथा त ऊतये सहसावन्दिवेदिवे । राय ऋताय सुक्रतो गोभिः ष्याम सधमादो वीरैः स्याम सधमादः ॥४॥ हे बलवान् अग्निदेव ! हम प्रतिदिन आपके आश्रय में संरक्षित हों। हे उत्तम कर्म वाले अग्निदेव ! हम लोग यज्ञादि कार्यों के निमित्त धन- प्राप्ति का पुरुषार्थ करें। (जिससे) हम लोग गवादि पशु धन और उत्तम वीर पुत्रों को पाकर सुखी हों, आप ऐसा ही करें ॥४॥

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