ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त १५

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त १५ ऋषि - कात्य उत्कीलः देवता - अग्निः । छंद - त्रिष्टुप वि पाजसा पृथुना शोशुचानो बाधस्व द्विषो रक्षसो अमीवाः । सुशर्मणो बृहतः शर्मणि स्यामग्नेरहं सुहवस्य प्रणीतौ ॥१॥ हे अग्ने ! आप अपने वर्द्धमान बल तथा तेजस्विता से, द्वेष करने वाले शत्रुवृत्ति तथा राक्षसी वृत्तिवालों को बाधित करें। हे श्रेष्ठ, सुखदायी, महान्, सुविख्यात अग्निदेव ! हम आपके आश्रय में रहना चाहते हैं॥१॥ त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूर उदिते बोधि गोपाः । जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप उषा के प्रकट होने तथा सूर्य के उदित होने पर हमारे संरक्षण के लिए चैतन्य हों। स्वयमेव उत्पन्न होने वाले आप हमारे स्तोत्रों को उसी प्रकार ग्रहण करें, जैसे पिता अपने नवजात पुत्र को ग्रहण करता है॥२॥ त्वं नृचक्षा वृषभानु पूर्वीः कृष्णास्वग्ने अरुषो वि भाहि । वसो नेषि च पर्षि चात्यंहः कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ॥३॥ हे बलशाली अग्निदेव ! आप मनुष्यों के समस्त कर्मों के ज्ञाता हैं। आप अँधेरी रातों में भी बहुत अधिक दीप्तिमान् होते हैं। आपकी ज्वालाएँ विस्तृत होती हैं। हे आश्रयदाता अग्निदेव ! आप हमें दुःख और पापों से पार करें। हे अति युवा अग्निदेव! हमें ऐश्वर्य-सम्पन्न बनायें ॥३॥ अषाळ्हो अग्ने वृषभो दिदीहि पुरो विश्वाः सौभगा संजिगीवान् । यज्ञस्य नेता प्रथमस्य पायोर्जातवेदो बृहतः सुप्रणीते ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप अपराजेय और बलशाली हैं। आप शत्रुओं के नगरों और धनों को जीतकर अपनी दीप्तियों से सर्वत्र व्याप्त हों। हे उत्तम प्रेरक और सर्व भूतज्ञाता अग्निदेव ! आप महान् आश्रयदाता और यज्ञ के प्रथम सम्पादन-कर्ता हैं ॥४॥ अच्छिद्रा शर्म जरितः पुरूणि देवाँ अच्छा दीद्यानः सुमेधाः । रथो न सस्त्रिरभि वक्षि वाजमग्ने त्वं रोदसी नः सुमेके ॥५॥ हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप उत्तम, मेधावान् और अपने तेज से दीप्तिमान् हैं। देवों के निमित्त आप सम्पूर्ण सुखकर कर्मों को भली प्रकार सम्पादित करें। आप रथ के सदृश वेगपूर्वक गमन कर, देवों के निमित्त हव्यादि वहन करें और सम्पूर्ण द्यावा-पृथिवी को प्रकाशित करें ॥५॥ प्र पीपय वृषभ जिन्व वाजानग्ने त्वं रोदसी नः सुदोघे । देवेभिर्देव सुरुचा रुचानो मा नो मर्तस्य दुर्मतिः परि ष्ठात् ॥६॥ हे अभीष्ट वर्षा में समर्थ अग्निदेव ! आप हमें पूर्णता प्रदान करें और विविध अन्नों से पुष्ट करें। उत्तम दीप्तियों से दीप्तिमान् होकर, आप देवों के साथ द्यावा-पृथिवी को उत्तम दोहन योग्य बनायें । अन्यान्य मनुष्यों की दुर्बुद्धि हमारे निकट भी न आये (दुर्बुद्धिग्रस्त होकर हम प्रकृति का स्वार्थ पूर्ण दोहन न करने लगे) ॥६॥ इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध । स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे ॥७॥ हे अग्निदेव ! हम स्तोताओं के निमित्त श्रेष्ठ रहने वाली, अनेक कर्मों में उपयोगी तथा गौओं को पुष्ट करने वाली भूमि प्रदान करें, हमारे पुत्र-पौत्रादि वंश-वृद्धि में सक्षम हों तथा आपकी उत्तम बुद्ध हमें भी प्राप्त हो ॥७॥

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