Pengal Upanishad (पैंगल उपनिषद) प्रथम अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ पैङ्गलोपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ पैङ्गलोपनिषद्धेद्यं परमानन्दविग्रहम् । परितः कलये रामं परमाक्षरवैभवम् ॥ ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ व्य पर्णमादाय पर्णमेवावशिष्यते ।। वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण कारणात्मक पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ पैङ्गलोपनिषत् ॥ ॥ पैंगल उपनिषद ॥ (शुक्लयजुर्वेदीय सामान्य उपनिषत्) प्रथमोऽध्यायः प्रथम अध्याय अथ ह पैालो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्य द्वादशवर्शशुश्रूषापूर्वकं परमरहस्यकैवल्यमनुब्रूहीति पप्रच्छ । ॥१॥ (एक बार) ऋषि पैङ्गल याज्ञवल्क्य ऋषि के पास गये और बारह वर्ष तक उनकी सेवा-शुश्रूषा करने के पश्चात् उनसे कहा कि मुझे परम रहस्य कैवल्य का उपदेश कीजिए ॥१॥ स होवाच याज्ञनवल्क्यः सदेव सोम्येदमग्र आसीत् । तन्नित्यमुक्तमविक्रियं सत्यज्ञानानन्दं परिपूर्ण सनातनमेकमेवाद्वितीयं ब्रह्म । ॥२॥ (यह सुनकर) ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा-पूर्व में केवल सत् ही था। वही नित्य, मुक्त, अविकारी, सत्य, ज्ञान और आनन्द से पूरित सनातन तथा एकमात्र अद्वैत ब्रह्म है ॥२॥ तस्मिन्मरुशुक्तिकास्थाणुस्फटिकादौ जलरौप्यपुरुषरेखादिवल्लोहितशुक्लकृष्णगुणमयी गुणसाम्यानिर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं यत्तत्साक्षिचैतन्यमासीत् । ॥३॥ जिस प्रकार मरुस्थल में जल, सीप में रजत, स्थाणु में पुरुष और स्फटिक में रेखा का आभास होता है, उसी प्रकार उस (ब्रह्म) से रक्त (लाल), श्वेत और कृष्ण वर्णा (सत्, रज, तम रूपी) मूल प्रकृति उत्पन्न हुई, जिसमें तीनों गुण समानावस्था में विद्यमान थे। उसमें जो प्रतिबिम्बित हुआ, उसे ही साक्षी चैतन्य कहा गया ॥३॥ सा पुनर्विकृतिं प्राप्य सत्त्वोद्रिक्ताऽव्यक्ताख्यावरणशक्तिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं यत्तदीश्वरचैतन्यमासीत् । स स्वाधीनमायः सर्वज्ञः सृष्टिस्थितिलयानामादिकर्ता जगदङ्‌कुररूपो भवति । स्वस्मिन्विलीनं सकलं जगदाविर्भावयति । प्राणिकर्मवशादेष पटो यद्वत्प्रसारितः प्राणिकर्मक्षयात्पुनस्तिरोभावयति । तस्मिन्नेवाखिलं विश्वं सङ्कोचितपटवद्वर्तते । ॥४॥ वह (मूल प्रकृति) जब पुनः विकार युक्त हो गई, तब सत्त्वगुण युक्त अव्यक्त आवरण शक्ति कहलाई। जो ईश्वर उसमें प्रतिबिम्बित हुआ, वह चैतन्य था। वह माया को अपने अधीन रखता है, जो सृष्टि, स्थिति और प्रलय का कर्ता है और संसार का अङ्कर स्वरूप है। वह अपने अन्दर विलीन सम्पूर्ण जगत् का आविर्भाव करने वाला है। वह प्राणियों के कर्मों के अनुसार इस विश्वरूपी पट को जिस प्रकार प्रसारित करता है, उसी प्रकार उनके कर्म क्षय हो जाने पर समेट भी लेता है। फिर समस्त विश्व उसी में संकुचित (समेटे हुए) पट (वस्त्र) के समान रहता है ॥४॥ ईशाधिष्ठितावरणशक्तितो रजोद्रिक्ता महदाख्या विक्षेपशक्तिरासीत्। तत्प्रतिबिम्बितं यत्तद्धिरण्यगर्भचैतन्यमासीत् । स महत्तत्त्वाभिमानी स्पष्टास्पष्टवपुर्भवति । ॥५॥ ईशाधिष्ठित आवरणशक्ति से रजोगुणयुक्त विक्षेपशक्ति प्रकट होती है, जिसे महत् कहते हैं। उसमें प्रति बिम्बित होने वाला हिरण्यगर्भ चैतन्य हुआ। वह महत्तत्त्वयुक्त कुछ स्पष्ट-कुछ अस्पष्ट शरीर वाला होता है ॥५॥ हिरण्यगर्भाधिष्ठितविक्षेपशक्तितस्तमोद्रिक्ताहङ्काराभिधा स्थूथूथूलशक्तिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं यत्तद्विराटचैतन्यमासीत् । स तदभिमानी स्पष्टवपुः सर्वस्थूलपालको विष्णुः प्रधानपुरुषो भवति । तस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भयः पृथिवी । तानि पञ्च तन्मात्राणि त्रिगुणानि भवन्ति । ॥६॥ हिरण्यगर्भ में निवास करने वाली विक्षेप शक्ति से, तमोगुणवाली अहंकार नामक स्थूल शक्ति आविर्भूत हुई। जो उसमें प्रतिबिम्बित हुआ, वह विराट् चैतन्य था। उसका अभिमानी स्पष्ट शरीर वाला, समस्त स्थूल जगत् को पालक प्रधान पुरुष विष्णु होता है। उसकी आत्मा से आकाश तत्त्व की उत्पत्ति हुई। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथिवी तत्त्व का आविर्भाव हुआ। उन्हीं से पञ्च तन्मात्राएँ और तीन गुण उत्पन्न होते हैं ॥६॥ स्रष्टुकामो जगद्योनिस्तमोगुणमधिष्ठाय सूक्ष्मतन्मात्राणि भूतानि स्थूलीकर्तुं सोऽकामयत । सृष्टेः परिमितानि भूतान्येकमेकं द्विधा विधाय पुनश्चतुर्धा कृत्वा स्वस्वेतरद्वितीयांशैः पञ्चधा संयोज्य पञ्चीकृतभूतैरनन्तकोटिब्रह्माण्डानि तत्तदण्डोचितगोलकस्थूलशरीराण्यसृजत् । ॥७॥ जब उस जगत् रचयिता को सृष्टि के निर्माण की इच्छा हुई, तब उसने तमोगुण में अधिष्ठित होकर सूक्ष्म तन्मात्राओं को स्थूल पञ्चतत्त्वों में प्रतिष्ठित करने की कामना की। उन रचित भूतों में से एक-एक के दो भाग किए, फिर उनमें से प्रत्येक के चार-चार भाग किए। इसके पश्चात् प्रत्येक भूत के अर्धांश में अन्य भूतों के अष्टमांश को मिलाकर सबका पंचीकरण किया; तत्पश्चात् इन पञ्चीकृत भूतों से अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों की सृष्टि की, फिर उनके योग्य चतुर्दश भुवन रचे तथा उन भुवनों के उपयुक्त स्थूल शरीरों का सृजन किया ॥७॥ स पञ्चभूतानां रजोंशांश्चतुर्धा कृत्वा भागत्रयात्पञ्चवृत्त्यात्मकं प्राणमसृजत् । स तेषां तुर्यभागेन कर्मेन्द्रियाण्यसृजत् । ॥८॥ इसके पश्चात् पञ्चभूतों के रजोगुणयुक्त अंश के चार भाग करके तीन भागों से पाँच प्रकार के प्राणों का सृजन किया और चतुर्थांश से कर्मेन्द्रियों का निर्माण किया ॥८॥ स तेषां सत्त्वांशं चतुर्धा कृत्वा भागत्रयसमष्टितः पञ्चक्रियावृत्त्यात्मकमन्तःकरणमसृजत् । स तेषां सत्त्वतुरीयभागेन ज्ञानेन्द्रियाण्यसृजत् । ॥९॥ इसी प्रकार उसके (पञ्चभूतों के) सतोगुण युक्त अंश को चार हिस्सों में विभाजित करके उसके तीन भागों से पंचवृत्त्यात्मक अन्तःकरण और चौथे भाग से ज्ञानेन्द्रियों का सृजन किया ॥९॥ सत्त्वसमष्टित इन्द्रियपालकानसृजत् । तानि सृष्टान्यण्डे प्राचिक्षिपत् । तदाज्ञया समष्ट्यण्डं व्याप्य तान्यतिष्ठन् । तदाज्ञयाहङ्कारसमन्वितो विराट् स्थूलान्यरक्षत् । हिरण्यगर्भस्तदाज्ञया सूक्ष्माण्यपालयत् । ॥१०॥ सत्त्व समष्टि से उसने पाँचों इन्द्रियों के पालक देवताओं का सृजन किया और उन्हें ब्रह्माण्डों में स्थापित कर दिया। उसकी (विष्णु रूप ब्रह्म की) आज्ञा से वे सभी (देवगण) ब्रह्माण्डों में स्थित होकर निवास करने लगे। उस (ब्रह्म) की आज्ञा से अहंकार समन्वित विराट्, स्थूल जगत् को संरक्षण करने लगा। हिरण्यगर्भ उसकी आज्ञा से सूक्ष्म तत्त्व का पालन करने लगा ॥१०॥ अण्डस्थानि तानि तेन विना स्पन्दितुं चेष्टितुं वा न शेकुः । तानि चेतनीकर्तुं सोऽकामयत ब्रह्माण्डब्रह्मरन्ध्राणि समस्तव्यष्टिमस्तकान्विदार्य तदेवानुप्राविशत् । तदा जडान्यपि तानि चेतनवत्स्वकर्माणि चक्रिरे । सर्वज्ञेशो मायालेशसमन्वितो व्यष्टिदेहं प्रविश्य तया मोहितो जीवत्वमगमत् । ॥११॥ ब्रह्माण्ड में स्थित वे देवगण उस (ब्रह्म) के बिना न तो स्पन्दन कर सके और न ही कोई चेष्टा कर सके। तब उस (ब्रह्म) ने उन्हें चैतन्य करने की इच्छा की। वह ब्रह्माण्ड, ब्रह्मरन्ध्र और समस्त व्यष्टि के मस्तक को विदीर्ण करके उसी में प्रवेश कर गया, तब वे जड़ता सम्पन्न होते हुए भी चेतन की तरह अपनेअपने कर्म में प्रवृत्त हो गये ॥११॥ शरीरत्रयतादात्म्यात्कर्तृत्वभोक्तृत्वतामगमत् । जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिमूर्च्छामरणधर्मयुक्तो घटीयन्त्रवदुद्विग्नो जातो मृत इव कुलालचक्रन्यायेन परिभ्रमतीति ॥ ॥१२॥ सर्वज्ञ ईश्वर मायायुक्त होकर व्यष्टि रूप शरीर में प्रविष्ट हो गया और मोह के कारण जीवत्व (जीव भाव) को प्राप्त हो गया। तीन प्रकार के (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) शरीरों से तादात्म्य स्थापित करके कर्तापन और भोक्तापन का अनुभव करने लगा। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूच्छा आदि स्थितियों वाला होकर मरण धर्म को प्राप्त करके घटीयंत्र (रहट) के समान उद्विग्न (चंचल) होकर तथा कुम्भकार के चक्र के समान उत्पन्न और मृत होता हुआ जगत् में परिभ्रमण करने लगा ॥१२॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ ॥ प्रथम अध्याय समात ॥

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