ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त २३

ऋग्वेद – चतुर्थ मंडल सूक्त २३ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र, ८-१० ऋतं । छंद - त्रिष्टुप, कथा महामवृधत्कस्य होतुर्यज्ञ जुषाणो अभि सोममूधः । पिबन्नुशानो जुषमाणो अन्धो ववक्ष ऋष्वः शुचते धनाय ॥१॥ हम मनुष्यों द्वारा की गई प्रार्थनाएँ उन महान् इन्द्रदेव को कैसे संवर्धित करेंगी ? वे किस यज्ञ सम्पादक के यज्ञ में प्रेमपूर्वक पधारेंगे? वे महान् इन्द्रदेव सोमपान करते हुए तथा अभिलाषापूर्वक अन्न ग्रहण करते हुए किस याजक को प्रदान करने के लिए तेजस्वी धन धारण करते हैं? ॥१॥ को अस्य वीरः सधमादमाप समानंश सुमतिभिः को अस्य । कदस्य चित्रं चिकिते कदूती वृधे भुवच्छशमानस्य यज्योः ॥२॥ कौन वीर उन इन्द्रदेव के साथ सोम पान करता है? कौन व्यक्ति उनकी श्रेष्ठ बुद्धि से सम्पन्न होता है? उनके अद्भुत धन कब बाँटे जायेंगे ? वे इन्द्रदेव स्तुति करने वाले याजकों को संवर्द्धित करने के लिए रक्षण साधनों से कब सम्पन्न होंगे ? ॥२॥ कथा शृणोति हूयमानमिन्द्रः कथा शृण्वन्नवसामस्य वेद । का अस्य पूर्वीरुपमातयो ह कथैनमाहुः पपुरिं जरित्रे ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आहूत करने वालों की स्तुतियों का आप कैसे श्रवण करते हैं? स्तुतियों का श्रवण करके स्तोताओं के मार्ग को आप कैसे जानते हैं? आपके प्राचीन दान कौन से हैं? वे दान इन्द्रदेव को याजकों की इच्छाओं की पूर्ति करने वाले क्यों कहते हैं? ॥३॥ कथा सबाधः शशमानो अस्य नशदभि द्रविणं दीध्यानः । देवो भुवन्नवेदा म ऋतानां नमो जगृभ्वाँ अभि यज्जुजोषत् ॥४॥ जो याजक विपत्तिग्रस्त होकर उन इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं और यज्ञ द्वारा तेज सम्पन्न बनते हैं, वे उनके ऐश्वर्य को कैसे प्राप्त करेंगे? जब प्रकाशवान् इन्द्रदेव आहुति ग्रहण करके हमारे ऊपर हर्षित होते हैं, तब वे हमारी प्रार्थनाओं को अच्छी तरह जानने वाले होते हैं ॥४॥ कथा कदस्या उषसो व्युष्टौ देवो मर्तस्य सख्यं जुजोष । कथा कदस्य सख्यं सखिभ्यो ये अस्मिन्कामं सुयुजं ततसे ॥५॥ प्रकाशमान इन्द्रदेव उषा के प्रकट होने पर मनुष्यों के बन्धुत्व को कैसे और कब प्राप्त करेंगे? जो याजकगण उन इन्द्रदेव के निमित्त श्रेष्ठ तथा मनोहर आहुतियों को विस्तृत करते हैं, उन मित्रों के निमित्त अपनी मित्रता को वे कब और कैसे प्रकाशित करेंगे ? ॥५॥ किमादमत्रं सख्यं सखिभ्यः कदा नु ते भ्रात्रं प्र ब्रवाम । श्रिये सुदृशो वपुरस्य सर्गाः स्वर्ण चित्रतममिष आ गोः ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! हम याजक, रिपुओं के आक्रमण से सुरक्षा करने वाली आपकी मित्रता का वर्णन, स्तुति करने वालों के समीप किस प्रकार करें ? आपके बन्धुत्व भाव का वर्णन कब करें? सुन्दर दिखायी देने वाले इन्द्रदेव का कार्य स्तुतिकर्ताओं के हित के लिए है। सूर्यदेव के समान तेजसम्पन्न तथा सर्वत्र गमन करने वाले इन्द्रदेव के मनोहर तेज की सभी मनुष्य कामना करते हैं ॥६॥ द्रुहं जिघांसन्ध्वरसमनिन्द्रां तेतिक्ते तिग्मा तुजसे अनीका । ऋणा चिद्यत्र ऋणया न उग्रो दूरे अज्ञाता उषसो बबाधे ॥७॥ विद्रोह करने वाली, हिंसक कार्य करने वाली तथा इन्द्रदेव को न मानने वाली राक्षसी का संहार करने के लिए उन्होंने अपने तीक्ष्ण आयुधों को और अधिक तीक्ष्ण किया। ऋण (देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण) भी हम मनुष्यों को उषा काल में (ध्यानादि साधनाओं में बाधा पहुँचाता है। पराक्रमी इन्द्रदेव उन उषाओं में हमारे ऋण को (उनसे मुक्ति पाने की क्षमता प्रदान करके) दूर से हीं नष्ट कर देते हैं ॥७॥ ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीऋतस्य धीतिवृजिनानि हन्ति । ऋतस्य श्लोको बधिरा ततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः ॥८॥ ऋत (सत्य, सूर्य या यज्ञ) के पास अनेकों शक्तियाँ हैं। ऋतदेव की प्रार्थना दुष्कर्मों को विनष्ट कर देती है। उनकी सद्बुद्धि प्रदान करने वाली प्रार्थनाएँ कान से ���हरे मनुष्यों को भी लाभान्वित करती हैं ॥८॥ ऋतस्य दृव्हा धरुणानि सन्ति पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि । ऋतेन दीर्घमिषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमा विवेशुः ॥९॥ ऋत के पुष्ट, धारक, हर्षप्रदायक आदि अनेकों रूप हैं। ऋतदेव के समीष मनुष्य प्रचुर अन्न की कामना करते हैं तथा उनकी सहायता से यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यों में दानार्थ गौएँ प्रयुक्त होती हैं ॥९॥ ऋतं येमान ऋतमिद्वनोत्यृतस्य शुष्मस्तुरया उ गव्युः । ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते ॥१०॥ ऋतदेव को वशीभूत करने के लिए याजकगण उनकी भक्ति करते हैं। ऋतदेव की शक्ति गौओं तथा अश्वों को प्रदान करने वाली है। इनसे ही प्रेरणा पाकर द्यावा-पृथिवी विस्तीर्ण तथा गम्भीर हुए हैं तथा उनके लिए ही गौएँ दूध प्रदान करती हैं ॥१०॥ नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः । अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥११॥ है इन्द्रदेव ! आप प्राचीन ऋषयों द्वारा स्तुत होकर तथा हमारे द्वारा प्रशंसित होकर, हमें नदियों के सदृश अन्न से-घी से पूर्ण करें। हे अश्ववान् इन्द्रदेव ! हम अपनी बुद्धि द्वारा आपके लिए अभिनव स्तोत्रों का निर्माण करते हैं, जिससे हम रथों तथा दासों से सम्पन्न हों ॥११॥

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