ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४ ऋषि - मेधातिथिः काण्व देवता - विश्वे देवाः । छंद- गायत्री ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वभिः सोमपीतये । देवेभिर्याहि यक्षि च ॥१॥ हे अग्निदेव ! आप समस्त देवों के साथ इस यज्ञ में सोम पीने के लिए आएँ एवं हमारी परिचर्या और स्तुतियों को ग्रहण करके यज्ञ कार्य सम्पन्न करें ॥१॥ आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धियः । देवेभिरग्न आ गहि ॥२॥ हे मेधावी अग्निदेव ! कण्वऋषि आपको बुला रहे हैं, वे आपके कार्यों की प्रशंसा करते हैं। अतः आप देवों के साथ यहाँ पधारें ॥२॥ इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम् । आदित्यान्मारुतं गणम् ॥३॥ यज्ञशाला में हम इन्द्र, वायु, बृहस्पति, मित्र, अग्नि, पूषा, भग, आदित्यगण और मरुद्गण आदि देवों का आवाहन करते हैं॥३॥ प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः । द्रप्सा मध्वश्चमूषदः ॥४॥ कूट-पीसकर तैयार किया हुआ, आनन्द और हर्ष बढ़ाने वाला यह मधुर सोमरस अग्निदेव के लिए चमसादि पात्रों में भरा हुआ है ॥४॥ ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥५॥ कण्व ऋषि के वंशज अपनी सुरक्षा की कामना से, कुश-आसन बिछाकर हविष्यान्न व अलंकारों से युक्त होकर अग्निदेव की स्तुति करते हैं॥५॥ घृतपृष्ठा मनोयुजो ये त्वा वहन्ति वह्नयः । आ देवान्त्सोमपीतये ॥६॥ अतिदीप्तिमान् पृष्ठ भाग वाले, मन के संकल्प मात्र से ही रथ में नियोजित हो जाने वाले अश्वों (से खींचे गये रथ) द्वारा आप सोमपान के निमित्त देवों को ले आएँ ॥६॥ तान्यजत्राँ ऋतावृधोऽग्ने पत्नीवतस्कृधि । मध्वः सुजिह्व पायय ॥७॥ हे अग्निदेव ! आप यज्ञ की समृद्धि एवं शोभा बढ़ाने वाले पूजनीय इन्द्रादि देव को सपत्नीक इस यज्ञ में बुलाएँ तथा उन्हें मधुर सोमरस का पान कराएँ ॥७॥ ये यजत्रा य ईड्यास्ते ते पिबन्तु जिह्वया । मधोरग्ने वषट्कृति ॥८॥ हे अग्निदेव ! यज्ञन किये जाने योग्य और स्तुति किये जाने योग्य जो देवगण हैं, वे यज्ञ में आपकी जिह्वा से आनन्दपूर्वक मधुर सोमरस का पान करें ॥८॥ आकीं सूर्यस्य रोचनाद्विश्वान्देवाँ उषर्बुधः । विप्रो होतेह वक्षति ॥९॥ हे मेधावी होतारूप अग्निदेव ! आप प्रातः काल में जागने वाले विश्वेदेवों को सूर्य-रश्मियों से युक्त करके हमारे पास लाते हैं ॥९॥ विश्वभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना । पिबा मित्रस्य धामभिः ॥१०॥ हे अग्निदेव ! आप इन्द्र, वायु, मित्र आदि देवों के सम्पूर्ण तेजों के साथ मधुर सोमरस का पान करें ॥१०॥ त्वं होता मनुर्हितोऽग्ने यज्ञेषु सीदसि । सेमं नो अध्वरं यज ॥११॥ हे मनुष्यों के हितैषी अग्निदेव ! आप होता के रूप में यज्ञ में प्रतिष्ठित हों और हमारे इस हिंसारहित यज्ञ को सम्पन्न करें ॥११॥ युवा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः । ताभिर्देवाँ इहा वह ॥१२॥ हे अग्निदेव ! आप रोहित नामक रथ को ले जाने में सक्षम, तेजगति वाली घोड़ियों को रथ में जोते एवं उनके द्वारा देवताओं को इस यज्ञ में लाएँ ॥ १२ ॥

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