ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४२

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४२ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - विश्वेदेवा, ११ रुद्र। छंद त्रिष्टुप, १७ एकपदा विराट् प्र शंतमा वरुणं दीधिती गीर्मित्रं भगमदितिं नूनमश्याः । पृषद्योनिः पञ्चहोता शृणोत्वतूर्तपन्था असुरो मयोभुः ॥१॥ हमारी सुखकर स्तुतियाँ हव्यादि पदार्थों के साथ वरुण, मित्र, भग और अदिति को निश्चय ही प्राप्त हों। पंच प्राणों के आधार भूत, विचित्र वर्ण वाले, अन्तरिक्ष में उत्पन्न होने वाले, अबाधितगति वाले, प्राण-प्रदाता और सुखदाता वायुदेव हमारी स्तुतियाँ सुनें ॥१॥ प्रति मे स्तोममदितिर्जगृभ्यात्सूनुं न माता हृद्यं सुशेवम् । ब्रह्म प्रियं देवहितं यदस्त्यहं मित्रे वरुणे यन्मयोभु ॥२॥ जैसे माता अपने पुत्र को प्रीतिपूर्वक धारण करती है, वैसे ही अदिति हमारे इन स्तोत्रों को हृदय से धारण करें। देवों के प्रिय और हितकारी हमारे जो स्तोत्र हैं, उन्हें हम मित्र और वरुणदेव के निमित्त अर्पित करते हैं ॥२॥ उदीरय कवितमं कवीनामुनत्तैनमभि मध्वा घृतेन । स नो वसूनि प्रयता हितानि चन्द्राणि देवः सविता सुवाति ॥३॥ हे ऋत्विज़ो ! आप लोग ज्ञानियों में अति श्रेष्ठ इन सवितादेव को प्रमुदित करें । इन देव को मधुर सोमरस और घृतादि द्वारा अभिषिक्त कर तृप्त करें। सवितादेव हमें शुद्ध, हितकारी, आह्लादक और जीवन को प्रकाशित करने वाला ऐश्वर्य प्रदान करें ॥३॥ समिन्द्र णो मनसा नेषि गोभिः सं सूरिभिर्हरिवः सं स्वस्ति । सं ब्रह्मणा देवहितं यदस्ति सं देवानां सुमत्या यज्ञियानाम् ॥४॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! हमें श्रेष्ठ मन, गौओं, अश्वों, ज्ञानीजनों तथा श्रेष्ठ, कल्याणकारी भावनाओं से युक्त करें। देवों का हित करने वाला जो ज्ञान हैं, उससे तथा यज्ञीय (सत्कर्मशील) देवों की सुमति से हमें जोड़े ॥४॥ देवो भगः सविता रायो अंश इन्द्रो वृत्रस्य संजितो धनानाम् । ऋभुक्षा वाज उत वा पुरंधिरवन्तु नो अमृतासस्तुरासः ॥५॥ दीप्तिमान् भगदेव, सर्वप्रेरक सवितादेव, धन के स्वामी त्वष्टादेव, वृत्रहन्ता इन्द्रदेव और धनों के विजेता ऋभुक्षा, वाज और पुरन्धि आदि समस्त अमरदेव शीघ्र ही हमारे यज्ञ में उपस्थित होकर हम लोगों की रक्षा करें ॥५॥ मरुत्वतो अप्रतीतस्य जिष्णोरजूर्यतः प्र ब्रवामा कृतानि । न ते पूर्वे मघवन्नापरासो न वीर्यं नूतनः कश्चनाप ॥६॥ हम यजमान मरुतों की सहायता पाने वाले इन्द्रदेव के महान् कार्यों का वर्णन करते हैं। ये इन्द्रदेव युद्ध से कभी पलायन नहीं करते। ये सर्वदा विजयशील और ज़रारहित है। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव! आपके पराक्रम को न तो पूर्वकाल में किसी पुरुष ने पाया है, न आगे कोई प्राप्त करने वाला है, न ही किसी नवीन ने भी आपके पराक्रम को प्राप्त किया है ॥६॥ उप स्तुहि प्रथमं रत्नधेयं बृहस्पतिं सनितारं धनानाम् । यः शंसते स्तुवते शम्भविष्ठः पुरुवसुरागमज्जोहुवानम् ॥७॥ हे ऋत्विजो ! आप सर्वश्रेष्ठ, रत्न धारणकर्ता और धनों के प्रदाता बृहस्पतिदेव की स्तुति करें। वे हवि प्रदाताओं को प्रभूत धनों से युक्त करने के लिए आगमन करते हैं। वे प्रशंसा करने वालों और स्तुति करने वालों को अतिशय सुख प्रदान करते हैं ॥७॥ तवोतिभिः सचमाना अरिष्टा बृहस्पते मघवानः सुवीराः । ये अश्वदा उत वा सन्ति गोदा ये वस्त्रदाः सुभगास्तेषु रायः ॥८॥ हे बृहस्पतिदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर हम मनुष्य हिंसा से मुक्त, ऐश्वर्यवान् और उत्तम वीर पुत्रों से युक्त होते हैं। आपके अनुग्रह से जो मनुष्य उत्तम अश्वों, गौओं और वस्त्रों का दान करने वाला होता है, उनमें सौभाग्यशाली ऐश्वर्य स्थापित होता है ॥८॥ विसर्माणं कृणुहि वित्तमेषां ये भुञ्जते अपृणन्तो न उक्थैः । अपव्रतान्प्रसवे वावृधानान्ब्रह्मद्विषः सूर्याद्यावयस्व ॥९॥ हे बृहस्पतिदेव ! जो धनवान् स्तुति करने वालों को धन दान न करके उसका स्वयं ही उपभोग करता है, ऐसे मनुष्यों के धन को नष्ट हो जाने वाला करें। जो व्रत धारण नहीं करता और मन्त्र से द्वेष करता है, अमर्यादित सन्तान उत्पत्ति द्वारा वृद्धि को प्राप्त होता है, ऐसे लोगों को आप सूर्यदेव से दूर करें ॥९॥ य ओहते रक्षसो देववीतावचक्रेभिस्तं मरुतो नि यात । यो वः शमीं शशमानस्य निन्दात्तुच्छ्यान्कामान्करते सिष्विदानः ॥१०॥ हे मरुतो ! जो मनुष्य यज्ञ में राक्षसी वृत्तियों से युक्त होता है, जो आपके लिए स्तुति करने वाले की निन्दा करता है; जो अन्न, पशु आदि कामनाओं की पूर्ति के लिए तुच्छता को अपनाता है, ऐसे मनुष्यों को आप चक्रविहीन रथ द्वारा अन्धकूप में निमग्न करें ॥१०॥ तमु ष्टुहि यः स्विषुः सुधन्वा यो विश्वस्य क्षयति भेषजस्य । यक्ष्वा महे सौमनसाय रुद्रं नमोभिर्देवमसुरं दुवस्य ॥११॥ हे ऋत्विज् ! आप रुद्रदेव की सम्यक् स्तुतियाँ करें, जो उत्तम बाण और धनुष से युक्त हैं, जो सम्पूर्ण ओषधियों द्वारा रोग निवारक हैं, उन रुद्रदेव का यजन करें। महान् मंगलकारी जीवन के लिए दीप्तिमान् और प्राणप्रदाता रुद्रदेव की नमनपूर्वक सेवा करें ॥११॥ दमूनसो अपसो ये सुहस्ता वृष्णः पत्नीर्नद्यो विभ्वतष्टाः । सरस्वती बृहद्दिवोत राका दशस्यन्तीर्वरिवस्यन्तु शुभ्राः ॥१२॥ उदार मन वाले, निर्माण कार्य में कुशल हाथ वाले ऋभुदेव, विभुओं द्वारा निर्मित मार्ग वाली सरस्वती, वर्षणशील इन्द्रदेव की पत्नी रूप नदियाँ, तेजोयुक्त रात्रि आदि समस्त देवशक्तियाँ साधकों की मनोकामना पूर्ण करने वाली हैं। आप सब हमें धन प्रदान करें ॥१२॥ प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम् । य आहना दुहितुर्वक्षणासु रूपा मिनानो अकृणोदिदं नः ॥१३॥ महान् और उत्तम रक्षक अनेक रूपों में स्तुत्य इन्द्रदेव को हम नवीन रचनाएँ (स्तुतियाँ) बुद्धिपूर्वक समर्पित करते हैं। वर्षणकर्ता इन्द्रदेव ने कन्या रूपिणी पृथ्वी के हितार्थ नदियों में जल उत्पन्न कर उन्हें प्रवहमान बनाया ॥१३॥ प्र सुष्टुतिः स्तनयन्तं रुवन्तमिळस्पतिं जरितर्नूनमश्याः । यो अब्दिमाँ उदनिमाँ इयर्ति प्र विद्युता रोदसी उक्षमाणः ॥१४॥ हे स्तोताओ ! आपकी उत्तम स्तुतियाँ उन गर्जनकारी, शब्दकारी, जल के स्वामी मेघों को निश्चय ही प्राप्त हों। वे मेघ जल से अभिपूरित हैं, वर्षणशील हैं और विद्युत् आलोक से सम्पूर्ण द्यावा-पृथिवीं को आलोकित करते हुए गमन करते हैं ॥१४॥ एष स्तोमो मारुतं शर्धी अच्छा रुद्रस्य सूनूँर्युवन्यूँरुदश्याः । कामो राये हवते मा स्वस्त्युप स्तुहि पृषदश्वाँ अयासः ॥१५॥ हमारे ये स्तोत्र रुद्रदेव के पुत्र रूप तरुण मरुतों को प्राप्त हों । कल्याणप्रद धन प्राप्ति की इच्छा हमें निरन्तर प्रेरित करती है। बिन्दुदार चिह्नित अश्वों वाले मरुद्गण, जो यज्ञ की ओर गमन करते हैं, उनकी हम स्तुति करते हैं ॥१५॥ प्रैष स्तोमः पृथिवीमन्तरिक्षं वनस्पतीँरोषधी राये अश्याः । देवोदेवः सुहवो भूतु मह्यं मा नो माता पृथिवी दुर्मतौ धात् ॥१६॥ धन-प्राप्ति की अभिलाषा से हमारे द्वारा निवेदित ये स्तोत्र पृथ्वी, अन्तरिक्ष, वनस्पति और ओषधियों को प्राप्त हों। हमारे यज्ञ में सम्पूर्ण दीप्तिमान् देवों का उत्तम आवाहन हो। माता पृथ्वी हमें दुर्मति में स्थापित न करें ॥१६॥ उरौ देवा अनिबाधे स्याम ॥१७॥ हे देवो ! हम सब आपके अनुग्रह से निर्विघ्न होकर अतिशय सुख में निमग्न हों ॥१७॥ समश्विनोरवसा नूतनेन मयोभुवा सुप्रणीती गमेम । आ नो रयिं वहतमोत वीराना विश्वान्यमृता सौभगानि ॥१८॥ हम अश्विनीकुमारों के मंगलकारी, सुखकारी अनुग्रहों और उन रक्षण साधनों से संयुक्त हों, जो नूतन हों। हे अमर अश्विनीकुमारो ! आप हमें उत्तम ऐश्वर्य, वीर पुत्रों और सम्पूर्ण सौभाग्यों को प्रदान करें ॥१८॥

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