ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ७३

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ७३ ऋषिः पौर आत्रेयः देवता - आश्विनौ । छंद - अनुष्टुप यदद्य स्थः परावति यदर्वावत्यश्विना । यद्वा पुरू पुरुभुजा यदन्तरिक्ष आ गतम् ॥१॥ हे अनेक स्थानों (यज्ञो) में भोज्य पदार्थ पाने वाले अश्विनीकुमारो ! आप दूरस्थ देश में हो अथवा निकटवर्ती बहुत प्रदेशों में हों अथवा अन्तरिक्ष में हों, आप जहाँ भी हों, उन स्थानों से हमारे पास पधारें ॥१॥ इह त्या पुरुभूतमा पुरू दंसांसि बिभ्रता । वरस्या याम्यध्रिगू हुवे तुविष्टमा भुजे ॥२॥ इन अश्विनीकुमारों का सम्बन्ध अनेक यजमानों से है, जो विविध रूपों को धारण करने वाले और वरणीय हैं। ये अबाधित गति वाले और ॐ सर्वोत्कृष्ट बलों वाले हैं। इन्हें उत्तम आहुतियों के निमित्त हम आवाहित करते हैं ॥२॥ ईर्मान्यद्वपुषे वपुश्चक्रं रथस्य येमथुः । पर्यन्या नाहुषा युगा मह्ना रजांसि दीयथः ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने रथ के एक चक्र को सूर्य की शोभा बढ़ाने के लिए नियमित किया तथा अन्य (दूसरे) चक्र से मनुष्यों के युगों (काल) को प्रकट करने के लिए आप सब ओर विचरते हैं ॥३॥ तदू षु वामेना कृतं विश्वा यद्वामनु ष्टवे । नाना जातावरेपसा समस्मे बन्धुमेयथुः ॥४॥ हे सर्वत्र व्याप्त अश्विनीकुमारो ! हम जिन स्तोत्रों द्वारा आप दोनों के अनुकूल स्तुति करते हैं, वे भली प्रकार सम्पादित हों । हे निष्पाप और विभिन्न कर्मों के लिए प्रसिद्ध देवो! आप हमारे साथ बन्धुभाव में ही संयुक्त हों ॥४॥ आ यद्वां सूर्या रथं तिष्ठद्रघुष्यदं सदा । परि वामरुषा वयो घृणा वरन्त आतपः ॥५॥ हे अश्विनीकुमारो ! जब आप दोनों के रथ पर सूर्या (उषा) आरोहित होती हैं, तब अत्यन्त दीप्त अरुणिम रश्मियाँ आपको चारों ओर से घेर लेती हैं ॥५॥ युवोरत्रिश्चिकेतति नरा सुम्नेन चेतसा । घर्मं यद्वामरेपसं नासत्यास्त्रा भुरण्यति ॥६॥ हे नेतृत्ववान् अश्विनीकुमारो! अत्रि ऋषि ने जब आप दोनों की स्तुति करते हुए अग्नि के सुखप्रद रूप को जाना था, तब उन्होंने कृतज्ञ चित्त से आपका स्मरण किया था ॥६॥ उग्रो वां ककुहो ययिः शृण्वे यामेषु संतनिः । यद्वां दंसोभिरश्विनात्रिर्नराववर्तति ॥७॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप जब गमन करते हैं, तो आपके सुदृढ़, ऊँचे, सतत गमनशील रथ का शब्द सुनायी पड़ता है, तब अत्रि ऋषि अपने कार्यों से आप दोनों को आकृष्ट करते हैं ॥७॥ मध्व ऊ षु मधूयुवा रुद्रा सिषक्ति पिप्युषी । यत्समुद्राति पर्षथः पक्वाः पृक्षो भरन्त वाम् ॥८॥ हे मधु मिश्रित करने वाले रुद्रपुत्र अश्विनीकुमारो ! हमारी सुमधुर स्तुतियाँ आपमें मधुरता का सिंचन करती हैं। आप दोनों अन्तरिक्ष की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और पके हुए हविष्यान्नों से परिपूर्ण होते हैं ॥८॥ सत्यमिद्वा उ अश्विना युवामाहुर्मयोभुवा । ता यामन्यामहूतमा यामन्ना मृळयत्तमा ॥९॥ हे अश्विनीकुमारो ! विद्वज्जन आप दोनों को अत्यन्त सुखदायक बताते हैं, वह (कथन) निश्चय ही सत्य है। यज्ञ में आगमन के निमित्त आप आवाहित होते हैं, अतएव यहाँ आगमन कर हमारे निमित्त सुखप्रदायक हों ॥९॥ इमा ब्रह्माणि वर्धनाश्विभ्यां सन्तु शंतमा । या तक्षाम रथाँ इवावोचाम बृहन्नमः ॥१०॥ रथों के समान निर्मित ये मन्त्रादि स्तोत्र अश्विनीकुमारों के निमित्त विरचित किये गये हैं। ये स्तोत्र उनके निमित्त सुखकारी और प्रीतिवर्द्धक हों। नमनयुक्त स्तोत्र भी उनके निमित्त निवेदित हैं ॥१०॥

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