ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त १४

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त १४ ऋषि - सुतंभर आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद -गायत्री अग्निं स्तोमेन बोधय समिधानो अमर्त्यम् । हव्या देवेषु नो दधत् ॥१॥ हे मनुष्यो ! इन अविनाशी अग्निदेव को उत्तम स्तोत्रों से प्रवृद्ध करें । भली प्रकार प्रज्वलित होने पर वे हमारे हव्य पदार्थों को देवों तक पहुँचाएँ ॥१॥ तमध्वरेष्वीळते देवं मर्ता अमर्त्यम् । यजिष्ठं मानुषे जने ॥२॥ साधकगण यज्ञों में दिव्य गुण-सम्पन्न, अमर और मनुष्यों के मध्य में परम पूजनीय उन अग्निदेव की उत्तम स्तुतियाँ करते हैं ॥२॥ तं हि शश्वन्त ईळते सुचा देवं घृतश्रुता । अग्निं हव्याय वोळ्हवे ॥३॥ अनेकों स्तोतागण यज्ञ में सूक् के साथ घृत-धारा बहाते हुए देवों के लिए हवियाँ वहन करने के उद्देश्य से दिव्य गुण-सम्पन्न अग्निदेव का स्तवन करते हैं ॥३॥ अग्निर्जातो अरोचत प्घ्नन्दस्यूञ्ज्योतिषा तमः । अविन्दद्गा अपः स्वः ॥४॥ अरणि-मंथन से उत्पन्न अग्निदेव अपने तेज से अन्धकार और राक्षसों को विनष्ट करते हुए प्रकाशित होते हैं। इन अग्निदेव से ही किरण, जल और सूर्यदेव प्रकट होते हैं ॥४॥ अग्निमीळेन्यं कविं घृतपृष्ठं सपर्यत । वेतु मे शृणवद्धवम् ॥५॥ हे मनुष्यो ! आप स्तुति किये जाने योग्य और ज्ञानी अग्निदेव का पूजन करें। वे घृत की आहुतियों से प्रदीप्त ज्वालाओं वाले हैं। वे अग्निदेव हमारे आवाहन को सुनें और जानें ॥५॥ अग्निं घृतेन वावृधुः स्तोमेभिर्विश्वचर्षणिम् । स्वाधीभिर्वचस्युभिः ॥६॥ ऋत्विग्गण स्तोत्रों के साथ घृत की आहुतियों द्वारा, स्तुति की कामना वाले ध्यानगम्य देवों के साथ सर्वद्रष्टा अग्निदेव को प्रवृद्ध करते हैं ॥६॥

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