Kathopanishad Chapter 2 (कठोपनिषद्) द्वितीय अध्याय

॥ द्वितीयाध्याये : द्वितीय अध्याय ॥ ॥ अथ प्रथमा वल्ली ॥ ॥ प्रथमा वल्ली ॥ पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥ १॥ स्वयम्भू भगवान ने इन्द्रियों को विषयों की तरफ जाने वाली बनाया है इसलिये मनुष्य बाहर के विषयों को तो देखता है किन्तु आत्मा को नहीं देख पाता, कोई एक विरला ध्यानी पुरुष ही मोक्ष की इच्छा से अन्तःकरण में रहने वाले परमात्मा को ध्यान द्वारा देखता है। पराचः कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् । अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ॥ २॥ मूर्ख मनुष्य बाहर के विषय भोगों में ही लगे रहते हैं, ऐसे लोग मृत्यु के विशाल जाल में फँस जाते हैं। परन्तु विद्वान् लोग मोक्ष पद को निश्चल समझ कर अनित्य विषय सुख, की याचना कभी नहीं करते, सदैव मोक्ष धाम की ही इच्छा करते हैं। येन रूपं रसं गन्धं शब्दान् स्पर्शाश्च मैथुनान् । एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते । एतद्वै तत् ॥ ३॥ क्योंकि उस विज्ञान स्वरूप परमात्मा के रहने से ही मनुष्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धों को और मैथुन से होने वाले सुखों के अनुभवों को जानता है, इन सब के जान लेने से फिर बाक़ी क्या रहा, अर्थात् कुछ भी नहीं, इसलिये हे नचिकेतः! जिस के सम्बन्ध में तूने पूछा था यह वही ज्ञान स्वरूप परब्रह्म है। स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति । महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ ४॥ मनुष्य जिस की सत्ता से जागरित और स्वप्न अवस्थाओं का अनुभव करता है, उस महान्, व्यापक ईश्वर को जान कर धीर पुरुष कभी शोक नहीं करता । य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् । ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते । एतद्वै तत् ॥५॥ जो मनुष्य कर्मों के फल भोगने वाले प्राणों के धारण कर्ता आत्मा को जानता है और उसके अति निकट रहने वाले भूत और भविष्यत् काल के स्वामी परमात्मा को भी जान लेता है। वह ज्ञानी पुरुष निन्दा को कभी प्राप्त नहीं होता। हे नचिकेतः ! जिनके विषय में तुमने पूछा था यह वही परमात्मा है। यः पूर्वं तपसो जातमद्भयः पूर्वमजायत । गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत । एतद्वै तत् ॥६॥ जो परमेश्वर तप अर्थात् सङ्कल्प से और प्राणों से भी। पूर्व विद्यमान था, उस अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर रहने वाले पञ्च भूतों के साथ व्याप्त परमेश्वर को जो मनुष्य जान लेता है और सदा उसी के ध्यान में मग्न रहता है। वही यह ब्रह्म है जिसके विषय में तुमने पूछा था। या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी । गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत । एतद्वै तत् ॥ ७॥ जो दिव्य ज्ञान प्रकाश स्वरूप वाली अखण्डनीया बुद्धि शक्ति है, जिस से भगवान के स्वरूप को जाना जा सकता है, वह प्राणायाम के अभ्यास से ही प्राप्त होती है। वह भौतिक शरीर के साथ ही उत्पन्न होती है। उस अन्तःकरण में रहने वाली शक्ति को जो मनुष्य जान पाता है वही उस ब्रह्म के विषय को जान सकता है। अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः । दिवे दिवे ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः । एतद्वै तत् ॥८॥ वह परमेश्वर इस संसार में उसी प्रकार से गुप्त रूप से व्याप्त है जैसे अरणियों में अग्नि छिपी रहती है। वह तेजोमय ब्रह्म अप्रमादी और ध्यानी मनुष्यों से सदा स्तुति करने योग्य है। निश्चय ही यही वह परमात्मा है। यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति । तं देवाः सर्वेऽर्पितास्तदु नात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥९॥ जिन परमेश्वर के प्रबल प्रताप से सूर्य उदय होता है, और प्रलय के समय जिन में अस्त हो जाता है, सारे दिव्य पदार्थ जिन के आधार से खड़े हैं और कोई भी पदार्थ जिन के नियम के विरुद्ध नहीं चल सकता, उन्ही को ब्रह्म जानना चाहिये, जिनके विषय में तुमने पूछा था। यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह । मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ १०॥ जो ईश्वर यहाँ है वही सूर्यादि लोक में भी है, जो सूर्यादि लोक में है वही इश्वर यहाँ भी है। जो मनुष्य उस एक अखण्ड परमात्मा को अनेक मानता है और जो यह समझता है की ईश्वर अनेक हैं, वह जन्म मरण के बन्धन में ही उलझा रहता है। अर्थात उसको कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानाऽस्ति किंचन । मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति ॥ ११॥ वह ब्रह्म केवल मन अर्थात् सूक्ष्म बुद्धि से ही जाना जा सकता है। उस ब्रह्म में अनेकत्व है ही नहीं अर्थात वह अखण्ड एक रस है। जो मनुष्य उस एक अखण्ड परमात्मा को अनेक मानता है, वह सदा मृत्यु के मुख में ही पड़ा रहता है। अङ्‌गुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति । ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते । एतद्वै तत् ॥१२॥ वह सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा शरीर के हृदयस्थान में अंगुष्ठमात्र स्थान में लिङ्ग रूप आत्मा के रूप में विराज मान है। योगी जन उसकी प्राप्ति के लिये इसी स्थान पर ध्यान लगाते हैं वह ईश्वर भूत और भविष्यत सबका स्वामी है, जो मनुष्य उसको वहां जान लेता है वह फिर ग्लानि को प्राप्त नहीं होता, हे नचिकेतः ! यह ही वह ब्रह्म है, जिनके विषय में तुमने पूछा था। अङ्‌गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः । ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः । एतद्वै तत् ॥ १३॥ हृदय स्थान में विशेष रूपसे जानने के योग्य वह व्यापक प्रभु धुंए रहित प्रकाश के समान निर्मल है। वही भूत, भविष्यत् का स्वामी है, वही आज मालिक है वही कल रहेगा, यही वह प्रभु है जिनको जानने की जिज्ञासा तुमने की थी। यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति । एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति ॥ १४॥ जैसे ऊंचे नीचे स्थानों में बरसा हुआ जल, पर्वत के निम्न भाग में ही पहुँच जाता है। इसी बरह गुणी से गुणों को भिन्न देखने वाला मनुष्य उन गुणों के पीछे ही चल पड़ता है। यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति । एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम ॥ १५॥ हे गौतम वंशी नचिकेता! जैसे शुद्ध जल, शुद्ध जल में मिलकर शुद्ध ही बना रहता है, ऐसे ही ज्ञानी मनुष्य की आत्मा पवित्र परमात्मा से मिल कर पवित्र और निर्मल हो जाती है। ॥ इति द्वितीयाध्याये प्रथमा वल्ली ॥ ॥ प्रथम वल्ली समाप्त ॥ ॥ द्वितीया वल्ली ॥ पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः । अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते । एतद्वै तत् ॥ १॥ शुद्ध अन्तःकरण वाले अजन्मा आत्मा का यह शरीर ग्यारह द्वारों वाला है उस शरीर से यथा योग्य काम लेने वाला आत्मा शोक नहीं करता और उसी शरीर से विमुक्त होने से मनुष्य मोक्ष लाभ करता है - यह वही आत्मा है जिसके विषय में तुमने जिज्ञासा व्यक्त की थी। हँसः शुचिषद्वसुरान्तरिक्षसद्होता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्योमसद् अब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥२॥ जो विशुद्ध परमधाम मे रहने वाला हंस अर्थात स्वयं प्रकाश पुरूषोत्तम है वही अंतरिक्ष में निवास करने वाला वसु है। शरीर रुपी घरों मे रहने के कारण वह अथिति है। यज्ञ की वेदी पर स्थापित अग्निस्वरूपा तथा उसमें आहुति डालने वाला 'होता' है। समस्त मनुष्यों मे रहने वाला, श्रेष्ठ देवताओं में रहने वाला है। वही सत्य में रहने वाला और आकाश में रहने वाला है। जल, पृथ्वी, पर्वतों में अनेक रूप से प्रकट होने वाला, वही परम सत्य है। ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति । मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते ॥ ३॥ जब वही जीवात्मा योगाभ्यास में संलग्न होता है तब प्राण वायु को वह ऊपर की ओर रोकता है और अधोद्वार में चलने वाली अपान वायु को पेट में फेंकता है। उस समय नित्य प्रशस्त जीवात्मा की सारी इन्द्रियाँ सेवन करती हैं, अर्थात् जिस प्रकार सम्पूर्ण प्रजा राजा की आज्ञा का पालन करती हैं, उसी प्रकार योगाभ्यास - प्राणायम करने वाले मनुष्य की समस्त इन्द्रियां उसके वश में रहती हैं। अस्य विस्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः । देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते । एतद्वै तत् ॥ ४॥ शरीर के स्वामी शरीर में रहने वाली इस आत्मा के शरीर से निकल जाने पर और शरीर को छोड़ देने पर शरीर में पीछे क्या रह जाता है, कुछ भी नहीं, अतः जिसके निकल जाने पर शरीर में कुछ भी शेष नहीं रहता, हे नचिकेता ! वही आत्मा है । न प्राणेन नापानेन मर्यो जीवति कश्चन । इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ ॥ ५॥ कोई भी मनुष्य न तो प्राण से जीता है और न अपान, से अपितु मनुष्य उससे जीता है जिसके आश्रय से ये दोनों शरीर में रहते हैं और वह आत्मा है। हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम् । यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम ॥ ६॥ हे गौतम नचिकेता ! अब मैं तुम्हे एक और गुप्त भेद सनातन ब्रह्म का बताऊंगा। और एक यह बताऊँगा कि आत्मा का मरने के बाद क्या होता है। अतः तुम उसे ध्यान पूर्वक सुनो। योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥ ७॥ यमराज बोले: हे नचिकेता ! बहुत से मनुष्य तो अपने अपने कर्म और अपने अपने ज्ञान के अनुसार मनुष्यादि की योनियों में जाते हैं और जो लोग अति निकष्ट पाप करने वाले हैं वे वृक्षादि स्थावर योनियों को प्राप्त होते हैं। य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः । तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते । तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥ ८ ॥ परन्तु यह जो अन्तर्यामी, प्रत्येक कामना की पूर्ति के लिये सब पदार्थों का निर्माण कर्ता, और प्रमाद आलस्य रूपी निद्रा में सोते हुए जीवों में जागता रहता है, वही अमृत रूप शुद्ध ब्रह्म है उसी के आश्रित सारे लोक ठहरे हुए हैं, उसके नियमों का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता, यह वही परमात्मा है जिसके सम्बन्ध में तुमने प्रश्न किया था। अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ ९॥ जैसे अग्नि विद्युत् रूप से संसार के सब पदार्थों में प्रविष्ट होकर उस पदार्थ के रूप में ही दिखाई पड़ती है, इसी प्रकार वह एक, सबका अन्तरात्मा ईश्वर सब पदार्थों के अन्दर और बाहर विद्यमान मान है। जिस प्रकार विद्युत् सभी पदार्थों में रहते हुए भी सबसे पृथक् है, इसी प्रकार ईश्वर सभी पदार्थों विद्यमान होते हुए भी सबसे पृथक् है। वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ १०॥ जैसे वायु संसार के सब पदार्थों में प्रविष्ट होकर उन सभी पदार्थों का रूप धारण कर लेता है, इसी प्रकार सबका साक्षी एक ईश्वर प्रत्येक वस्तु में विद्यमान होते हुए भी उनसे पृथक है। सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुः न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ॥ ११॥ जैसे सारे संसार को दिखाने वाला भी सूर्य, आँखों के दोषों से लिप्त नहीं होता, इसी तरह सबको साक्षी एक ईश्वर बाहर के लोक दुःख से लिप्त नहीं होती-सूर्य यद्यपि लोक लोका न्सरों को प्रकाशित करता है परन्तु लोक के दोष उसमें नहीं आते ऐसे ही ईश्वर भी सब जगत् में व्यापक है परन्तु उसमें जगत् के दोष नहीं आते ।। एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति । ्त तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥१२॥ जो परमेश्वर एक सबका नियन्ता, और सारे चराचर जगत् का साक्षी है वही एक प्रकृति को बहुत प्रकार से रचता है, अर्थात् उसी की स्वाभाविक इच्छा से प्रकृति में अनेक परिणाम होते हैं। जो बुद्धिमान् भक्त लोग उस जगदीश्वर को अपनी आत्मा में व्याप्त देखते हैं उन्हीं को अविनाशी सुख मिलता है दूसरों को नहीं। नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान् । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥१३॥ जो प्रभु अनित्य पदार्थों में नित्य अविनाशी है, और जो ज्ञानियों के भी ज्ञान का दाता है, जो चराचर वस्तुओं के बीच में एक अखण्ड है और अनन्त जीवों के कर्म फलों का देने वाला है। उस परमेश्वर को जो ज्ञानी जन अपनी आत्मा में देखते हैं उन्हीं को सदा रहने वाली शान्ति मिलती है दूसरों को नहीं। तदेतदिति मन्यन्तेऽनिर्देश्यं परमं सुखम् । कथं नु तद्विजानीयां किमु भाति विभाति वा ॥ १४॥ यह सुनकर नचिकेता बोले: हे आचार्य ! ब्रह्म वेशा लोग जिसे प्रत्यक्ष से उंगली द्वारा नहीं दिखा सकते कि वह ब्रह्म ऐसा है और फिर भी उसे अनिर्वचनीय परम सुख मानते हैं तो मैं ऐसे ब्रह्म को कैसे जानूँ। क्या वह प्रकाश का कारण है अथवा प्रदीप के तुल्य स्वयं प्रकाशक है। न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १५॥ यमराज ने कहा: हे नचिकेता ! उस परमेश्वर को सूर्य, चन्द्रमा, तारे और बिजलियाँ प्रकाशित नहीं कर सकते, तब भला यह अग्नि उन्हें क्या प्रकाशित करेगा, वास्तव में उन्ही के चमकने पर सारा विश्व चमकता है, उन्ही की ज्योति से यह सारा जगत् दीप्त हो रहा है, वह तो प्रकाश स्वरूप है। सभी का प्रकाश वही है। ॥ इति द्वितीयाध्याये द्वितीया वल्ली ॥ ॥ द्वितीय वल्ली समाप्त ॥ ॥ तृतीया वल्ली ॥ ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः । तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते । तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥ १॥ जिस की जड़ ऊपर को और जिस की शाखाएं नीचे को हैं यह मनुष्य का शरीर अश्वथ के वृक्ष के समान स्वरूप से अनित्य किन्तु प्रवाह से अनादि चला रहा है, जो इसके मूल का अथवा प्रकृति का भी कारण है वही शुद्ध ब्रह्म है, वही अमृत आनन्दमय कहा जाता है उसी में सब पृथिव्यादि लोक थमे हुए। हैं, उसको कोई नहीं लांघ सकता, यही भगवान् जानने के योग्य हैं। यदिदं किं च जगत् सर्वं प्राण एजति निःसृतम् । महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ २॥ प्रलयान्तर में यह सारा जगत् परमेश्वर से ही उत्पन्न होता है। और सभी के प्राण स्वरूप ब्रह्म के आश्रय से ही इस में क्रिया हो रही है। वह ब्रह्म महान ब्रह्मरूप है, उस का अटल नियम उठे हुए वज्र के समान है। जो ज्ञानीजन उस ब्रह्म को सब का नियामक, न्याय कर्ता और जीवनाधार जानते हैं वे मुक्त हो जाते हैं। भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः । भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥ ३॥ उसी परमेश्वर के भय से अग्नि जलती है, उसी के कठोर नियम के अनुकूल सूर्य तपता है, उसी के नियम से इंद्र, वायु और पांचवाँ मृत्यु दौड़ दौड़ कर कार्य करते हैं। इह चेदशकद्बोधुं प्राक्षरीरस्य विस्रसः । ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥ ४॥ यदि मनुष्य इस शरीर को छोड़ने से पूर्व ही उस परम पिता परमात्मा को जान सका तो तो जन्म-मरण चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है, अन्यथा कल्प कल्पान्तरों तक इन जन्म-मरणशील लोकों मे शरीर भाव को प्राप्त करता है। यथाऽऽदर्श तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके । यथाऽप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके ॥५॥ जैसे स्वच्छ दर्पण में अपना दर्शन होता है, वैसे ही शुद्ध आत्मा में परमात्मा का दर्शन होता है। जैसे स्वप्न में अनेक पदार्थ अपने ही आप सन्मुख जाते हैं वैसे ही पुण्यमय जन्म में प्रभु के दर्शन होते हैं। जैसे जल के अन्दर सब साफ़ साफ़ दिखाई देता है, वैसे ही भजन के साथ ध्यान करने से भगवान् दिखाई देते हैं, जैसे छाया और धूप का भेद स्पष्ट मालूम होता है वैसे ही मूर्द्धा के अन्दर निर्बीज समाधि से पुरुष और प्रकृति का भेद स्पष्ट दिखाई देने लगता है। यहाँ जगह पितृ लोक का अर्थ पुण्यमय जन्म गन्धर्व लोक का अर्थ जहाँ भजन से आनन्द मनाया जाय और ब्रह्म लोक का अर्थ ब्रह्माण्ड अर्थात् मूर्द्धा है। इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत् । पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति ॥ ६॥ इन्द्रियाँ आत्मा से सर्वथा भिन्न हैं, और मृत्यु ये भी शरीर के धर्म हैं आत्मा से इनका कुछ सम्बन्ध नहीं ऐसा जान कर धीर पुरुष कभी शोक युक्त नहीं होता। इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् । सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ॥ ७॥ इन्द्रियों से मन सूक्ष्म हैं, मन से सत्वगुण युक्त बुद्धि उत्तम है बुद्धि से यह महत्तत्व उत्तम है, महत्तत्व से अव्यक्त नामक प्रकृति सूक्ष्म है। अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिङ्ग एव च । यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ॥ ८॥ अव्यक्त से परम पुरुष परमात्मा सूक्ष्म है। जो व्यापक है और शरीर रहित है, इसीि परमात्मा देव को जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है और आनन्द को प्राप्त होता है न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् । हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ ९॥ उस अचिन्त्य अव्यक्त स्वरूप परमेश्वर का रूप इन इन्द्रियों के सामने नहीं आता, इन का दर्शन आँखों से नही किया जा सकता। वह परमेश्वर केवल हृदय से, बुद्धि से, और मन से ही विचारे जा सकते है। जो इस प्रकार उनको जानते हैं, वह मुक्त हो जाते हैं। यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह । बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम् ॥ १०॥ जब पांचों ज्ञानेन्द्रिय मन के साथ आत्मा में स्थित हो जाएँ और बुद्धि भी चेष्टा न करे उसी अवस्था को को समाधि अथवा परमगति - जीवन्मुक्त दशा कहते हैं। तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥ ११॥ इसी इन्द्रियों की स्थिर अवस्था को मुनिजन योग मानते हैं। उस समय योगी प्रमोद रहित और इन्द्रियों की वासना से भी रहित हो जाता है, योग में ज्ञान की उत्पत्ति होती है और कर्म का नाश हो जाता है। नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा । अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥ १२॥ जो परमात्मा वाणी मन, और आँखों से नहीं जाना जा सकता। वह आत्मा है ऐसा कहने वाले मनुष्यों से भिन्न मनुष्य उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं। अर्थात् नास्तिक मनुष्य भला उन को कैसे प्राप्त कर सकता है। अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः । अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति ॥ १३॥ ईश्वर के होने और न होने में, तर्क से, जो मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व को जान लेता है अर्थात यदि ईश्वर न होता तो इस सृष्टि की उत्पत्ति कैसे होती इत्यादि तर्क से जो मनुष्य ईश्वर की सत्ता का अनुभव कर लेता है। उस का तत्व ज्ञान प्रदीप्त हो जाता है। यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः । अथ मर्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ १४॥ जब मनुष्य के हृदय की समस्त कामनाएं नष्ट हो जाती हैं। तब यह मरणधर्मा मनुष्य मुक्त हो जाता है और मुक्ति दशा में ब्रह्म को प्राप्त करता है। यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः । अथ मर्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम् ॥ १५॥ जिस समय मनुष्य के जीवन में उसके हृदय की सम्पूर्ण ग्रंथियों का छेदन हो जाता है अर्थात काम, क्रोध, द्वेष, अविद्या आदि हृदय की सारी गांठे खुल कर टूट जाती हैं तब मनुष्य अमृत पद को प्राप्त होता है, निश्चय ही यही वेदांत का सार युक्त उपदेश है। यही मर्म है। मरण समय में योगी क्या करे वह कहते हैं: शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका । तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्व‌ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥ १६॥ इस शरीर में हृदय के अन्दर एक सौ एक नाड़ियां हैं, उनमें से एक सुषुम्णा नाड़ी हृदय से चलकर मस्तक में जाती है। उस नाड़ी के साथ ब्रह्माण्ड द्वारा जब जीवात्मा शरीर से निकलता है तब वह मुक्ति को प्राप्त होता है, उस नाड़ी के सिवाय अन्य नाड़ियों से जाने वाला जीवात्मा जन्म मरण के प्रवाह को प्राप्त होता है। अङ्‌गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्टः । तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण । तं विद्याच्छुक्रममृतं तं विद्याच्छुक्रममृतमिति ॥ १७॥ उक्त प्रकार से हृदय के स्थान मे अंगुष्ठ मात्र रूप से रहने वाला जीवात्मा है योगी को चाहिये कि प्रयाण काल में धैर्य के साथ उसे अपने शरीर से ऐसे निकाले जैसे सरकंडों की गठरी में से एक सींक खींची जाती है, इस आत्मा को शुद्ध, पवित्र और अमृतस्वरुप समझें। मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् । ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्युरन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ॥ १८ ॥ मृत्यु द्वारा कही हुई इस सम्पूर्ण आत्म विद्या और योग की विधि को प्राप्त करके नचिकेता ने ब्रह्म भाव को प्राप्त कर लिया। वह धर्माधर्म शून्य, पाप रहित, और मृत्यु हीन हो गए। जो कोई अन्य भी आध्यात्म तत्व को इस प्रकार जानेगा वह भी नचिकेता के समान अमर हो जायगा। ॥ इति द्वितीयाध्याये तृतीया वल्ली ॥ ॥ तृतीय वल्ली समाप्त ॥ ॥ हरि ॐ ॥ शान्ति पाठ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॐ तत् सत् ॥ ॥ ॐ इति यजुर्वेदीया कठोपनिषद् समाप्त ॥ ॥ यजुर्वेद वर्णित कठोपनिषद समाप्त ॥

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