ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ६३

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ६३ ऋषिः अर्चनाना आत्रेया देवता - मित्रावरुणौ । छंद - जगती ऋतस्य गोपावधि तिष्ठथो रथं सत्यधर्माणा परमे व्योमनि । यमत्र मित्रावरुणावथो युवं तस्मै वृष्टिर्मधुमत्पिन्वते दिवः ॥१॥ हे जल-रक्षक, सत्य-धर्मपालक मित्र और वरुणदेवो ! आप दोनों हमारे यज्ञ में आने के लिए परम आकाश में रथ पर अधिष्ठित होते हैं। आप दोनों इस यज्ञ में जिस यजमान की रक्षा करते हैं, उसे आकाश से मधुर जल की वृष्टि कर पुष्ट करते हैं ॥१॥ सम्राजावस्य भुवनस्य राजथो मित्रावरुणा विदथे स्वर्दृशा । वृष्टिं वां राधो अमृतत्वमीमहे द्यावापृथिवी वि चरन्ति तन्यवः ॥२॥ हे स्वर्ग के द्रष्टा मित्र और वरुणदेवो! आप दोनों इस लोक के सम्राट् हैं। आप यज्ञ में दीप्तिमान् होते हैं। हम आप दोनों से अनुकूल वृष्टि,ऐश्वर्य और अमरता की याचना करते हैं। आपकी प्रकाशमान किरणे आकाश और पृथ्वी में विचरण करती हैं ॥२॥ सम्राजा उग्रा वृषभा दिवस्पती पृथिव्या मित्रावरुणा विचर्षणी । चित्रेभिरभैरुप तिष्ठथो रवं द्यां वर्षयथो असुरस्य मायया ॥३॥ हे मित्र और वरुणदेवो! आप दोनों अत्यन्त प्रकाशमान, उग्र बल- सम्पन्न और वृष्टिकर्ता हैं। आप द्युलोक और पृथ्वीलोक के अधिपति और विशिष्ट द्रष्टारूप हैं। आप विलक्षण मेघों के साथ गर्जनशील होकर अधिष्ठित हैं । अपने भयंकर बल से कुशलतापूर्वक आप द्युलोक से वृष्टि करते हैं ॥३॥ माया वां मित्रावरुणा दिवि श्रिता सूर्यो ज्योतिश्चरति चित्रमायुधम् । तमभ्रेण वृष्ट्या गूहथो दिवि पर्जन्य द्रप्सा मधुमन्त ईरते ॥४॥ हे मित्र और वरुणदेवो! आप दोनों की माया (सामर्थ्य) द्युलोक में आश्रित है, जिससे सूर्यदेव का विलक्षण आयुधरूप प्रकाश सर्वत्र विचरता हैं। तब आप दोनों उन सूर्यदेव को वर्षणशील मेघों से आच्छादित करते हैं। हे पर्जन्य! इन देवों से प्रेरित होकर आपसे मधुर जल राशि क्षरित होती हैं ॥४॥ रथं युञ्जते मरुतः शुभे सुखं शूरो न मित्रावरुणा गविष्टिषु । रजांसि चित्रा वि चरन्ति तन्यवो दिवः सम्राजा पयसा न उक्षतम् ॥५॥ हे मित्र और वरुणदेवो ! युद्धों में जाने की अभिलाषा वाले वीर जैसे अपने रथ को सुसज्जित करते हैं, उसी प्रकार मरुद्गण आपसे प्रेरित होकर वृष्टि के लिए सुखकर रथ को नियोजित करते हैं। आकाश- निवासक वे मेरुद्गण विविध लोकों में वृष्टि के लिए विचरते हैं। हे अत्यन्त प्रकाशक देवो! मरुतों के सहयोग से आप उत्तम जल वृष्टि से हमें सिञ्चित करें ॥५॥ वाचं सु मित्रावरुणाविरावतीं पर्जन्यश्चित्रां वदति त्विषीमतीम् । अभ्रा वसत मरुतः सु मायया द्यां वर्षयतमरुणामरेपसम् ॥६॥ हे मित्र और वरुणदेवो! आपके द्वारा मेघ अन्नोत्पादक, तेजोमयी, विचित्र गर्जनायुक्त वाणी कहता है। ये मरुद्गण अपनी सामर्थ्य से मेघों को भली प्रकार विस्तारित करते हैं। आप दोनों अरुणिम वर्ण और निर्मल आकाश से वृष्टि करते हैं ॥६॥ धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेथे असुरस्य मायया । ऋतेन विश्वं भुवनं वि राजथः सूर्यमा धत्थो दिवि चित्र्यं रथम् ॥७॥ हे मेधावान् मित्रावरुण देवो! आप दोनों जगत्-कल्याणकारी वृष्टि आदि कर्मों से यज्ञादि व्रतों की रक्षा करते हैं। जल वर्षक मेघों की सामर्थ्य द्वारा आप यज्ञों से सम्पूर्ण लोकों को विशेष प्रकाशित करते हैं। आप पूजनीय और वेगवान् सूर्यदेव को द्युलोक में स्थापित करते हैं ॥७॥

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