ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ५४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ५४ ऋषि - सव्य अंगीरस देवता- इन्द्र। छंद - जगती, ६, ८-९, ११ त्रिष्टुप मा नो अस्मिन्मघवन्पृत्स्वंहसि नहि ते अन्तः शवसः परीणशे । अक्रन्दयो नद्यो रोरुवद्वना कथा न क्षोणीर्भियसा समारत ॥१॥ जल एवं नदियों को गतिशील बनाने वाले हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! आप महान् शक्ति सम्पन्न हैं। हमें युद्ध जन्य दुःखों से बचायें एवं हम सबको भय मुक्त करें ॥१॥ अर्चा शक्राय शाकिने शचीवते शृण्वन्तमिन्द्रं महयन्नभि ष्टुहि । यो धृष्णुना शवसा रोदसी उभे वृषा वृषत्वा वृषभो न्यूज्ञ्जते ॥२॥ हे मनुष्यो ! सर्वशक्तिमान्, साधनों से सम्पन्न, तेजस्वी इन्द्रदेव को आप पूजन करें । स्तुतियों को सुनने वाले इन्द्रदेव की महत्ता का गान करें । प्रचण्ड शक्ति से वर्षा करने वाले इन्द्रदेव अपनी सामर्थ्य से युक्त होकर सबके अभीष्ट की वर्षा करते हैं। अपने बल से 'पृथ्वी' और 'द्युलोक' को समायोजित करते हैं॥२॥ अर्चा दिवे बृहते शूष्यं वचः स्वक्षत्रं यस्य धृषतो धृषन्मनः । बृहच्छ्रवा असुरो बर्हणा कृतः पुरो हरिभ्यां वृषभो रथो हि षः ॥३॥ इन्द्रदेव शत्रुओं के विनाश के लिये शारीरिक एवं मानसिक शक्ति से सम्पन्न हैं। ऐसे तेजस्वी और महान् आत्मबल सम्पन्न इन्द्रदेव को आदरयुक्त वचनों द्वारा पूजन करें। वे इन्द्रदेव महान् यशस्वी प्राणशक्ति को बढ़ाने वाले शत्रु-नाशक, अश्वयोजित रथ पर अधिष्ठित हैं॥३॥ त्वं दिवो बृहतः सानु कोपयोऽव त्मना धृषता शम्बरं भिनत् । यन्मायिनो व्रन्दिनो मन्दिना धृषच्छितां गभस्तिमशनिं पृतन्यसि ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने प्रपंची असुर के सैन्य दल को उत्साहपूर्वक तीक्ष्ण वज्र के प्रहार से नष्ट कर दिया है। आप विशाल द्युलोक के उच्च स्थान को प्रकम्पित करते हैं और अपने बल से असुर 'शम्बर को मार गिराते हैं ॥४॥ नि यदृणक्षि श्वसनस्य मूर्धनि शुष्णस्य चिद्वन्दिनो रोरुवद्वना । प्राचीनेन मनसा बर्हणावता यदद्या चित्कृणवः कस्त्वा परि ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपने गर्जना करते हुए, जलों को वृष्टि के लिये प्रेरित करने के निमित्त 'शुष्ण' का वध किया। प्राचीन काल से आज तक आप सामर्थ्यवान् मन से यहीं काम करते आये हैं। आपके ऊपर कौन है, जो आप को रोक सके ? ॥५॥ त्वमाविथ नर्यं तुर्वशं यदुं त्वं तुर्वीतिं वय्यं शतक्रतो । त्वं रथमेतशं कृत्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव ॥६॥ सैकड़ों यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म सम्पन्न करने वाले हे इन्द्रदेव ! आपने युद्ध जन्य कठिन परिस्थितियों में नर्य, तुर्वश, युद्ध तथा वय्य कुलोत्पन्न तुर्वीति की रक्षा की। आपने शत्रुओं के निन्यानवे (अर्थात् अनेकों) नगरों को ध्वस्त करके रथ और एतश नामक ऋषि को संरक्षित किया है॥६॥ स घा राजा सत्पतिः शूशुवज्जनो रातहव्यः प्रति यः शासमिन्वति । उक्था वा यो अभिगृणाति राधसा दानुरस्मा उपरा पिन्वते दिवः ॥७॥ जो राजा सत्कर्मों का पोषक और समृद्धिशाली है, उसके शासन में रहने वाले मनुष्य उत्तम हवि को देने वाले होते हैं। वे हविष्यान्न के साथ उत्तम वचनों द्वारा स्तुतियाँ करते हैं। उसी राज्य के लिये दानशील इन्द्रदेव द्युलोक से मेघों द्वारा वृष्टि करते हैं॥७॥ असमं क्षत्रमसमा मनीषा प्र सोमपा अपसा सन्तु नेमे । ये त इन्द्र ददुषो वर्धयन्ति महि क्षत्रं स्थविरं वृष्ण्यं च ॥८॥ सोम पान करने वाले है इन्द्रदेव! आपके बल की, बुद्धि की और हर्षदायक कर्मों की तुलना नहीं की जा सकती । हवि समर्पित करने वाले मनुष्यों को दिये गये आपके अनुदान, महान् पराक्रम की महत्ता और सामर्थ्य को बढ़ाने वाले हैं॥८ ॥ तुभ्येदेते बहुला अद्रिदुग्धाश्चमूषदश्चमसा इन्द्रपानाः । व्यश्नुहि तर्पया काममेषामथा मनो वसुदेयाय कृष्व ॥९॥ हे इन्द्रदेव! पाषाणों से कूटकर और छानकर बहुत से पात्रों में पेय सोम रखा हुआ है। यह सोम आपके निमित्त है। आप इसे पानकर अपनी इच्छा को तृप्त करें, तत्पश्चात् उत्साहपूर्वक हमें अपार धन- वैभव प्रदान करें ॥९॥ अपामतिष्ठद्धरुणह्वरं तमोऽन्तर्वृत्रस्य जठरेषु पर्वतः । अभीमिन्द्रो नद्यो वव्रिणा हिता विश्वा अनुष्ठाः प्रवणेषु जिघ्नते ॥१०॥ जल – प्रवाहों को रोकने वाले पर्वत रूप वृत्र ने अपने उदर में जलों को स्थिर कर लिया, जिससे तमिस्रा व्याप्त हुई, तब इन्द्रदेव ने वृत्र द्वारा रोके हुए जल-प्रवाहों को मुक्त करके नीचे की ओर बहाया ॥१०॥ स शेवृधमधि धा द्युम्नमस्मे महि क्षत्रं जनाषाळिन्द्र तव्यम् । रक्षा च नो मघोनः पाहि सूरीत्राये च नः स्वपत्या इषे धाः ॥११॥ हे इन्द्रदेव ! आप सुख, यश, सभी लोगों को वशीभूत करने वाला राज्य और प्रशंसित सामर्थ्य हममें स्थापित करें। हमारे धनों की रक्षा करते हुए हमें उत्तम संतान एवं अधिकाधिक धन-धान्य प्रदान कर ऐश्वर्यवान् बनायें ॥११॥

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