ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ३८

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ३८ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - इन्द्र, । छंद - त्रिष्टुप उरोष्ट इन्द्र राधसो विभ्वी रातिः शतक्रतो । अधा नो विश्वचर्षणे द्युम्ना सुक्षत्र मंहय ॥१॥ सर्वज्ञ, श्रेष्ठदानी, सौ अश्वमेध सैकड़ों यज्ञादि सत्कर्म करने वाले हैं इन्द्रदेव ! आप महिमाशाली धन प्रदान कर हमें भी ऐश्वर्य-सम्पन्न बनायें ॥१॥ यदीमिन्द्र श्रवाय्यमिषं शविष्ठ दधिषे । पप्रथे दीर्घश्रुत्तमं हिरण्यवर्ण दुष्टरम् ॥२॥ हे अत्यन्त बलशाली इन्द्रदेव! आप स्वर्ण सदृश कान्ति से युक्त हैं। आप अत्यन्त यशस्वी अन्नों को धारण करने वाले हैं। वह आपका यश दुर्गमता से पार पाने (अनिवारणीय) योग्य है और दीर्घकाल तक अबाधित गति से फैलने वाला है ॥२॥ शुष्मासो ये ते अद्रिवो मेहना केतसापः । उभा देवावभिष्टये दिवश्च ग्मश्च राजथः ॥३॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आप अत्यन्त पूजनीय, सर्वत्र व्याप्त, प्रभूत बल- सम्पन्न तथा सहायकरूप मरुतों के साथ द्युलोक और पृथ्वीलोक में स्वेच्छा से विचरण करते हुए सब पर शासन करते हैं ॥३॥ उतो नो अस्य कस्य चिद्दक्षस्य तव वृत्रहन् । अस्मभ्यं नृम्णमा भरास्मभ्यं नृमणस्यसे ॥४॥ वृत्रनामक असुर का विनाश करने वाले हे इन्द्रदेव ! हम आपके बल- सामर्थ्य का वर्णन करते हैं। आप हमें किसी भी बल-सम्पन्न शत्रु का धन लाकर देते हैं; क्योंकि आप हम सबको धनवान् बनाने के अभिलाषी हैं ॥४॥ नू त आभिरभिष्टिभिस्तव शर्मञ्छतक्रतो । इन्द्र स्याम सुगोपाः शूर स्याम सुगोपाः ॥५॥ सौ यज्ञ सैकड़ों सत्कर्म करने वाले हे इन्द्रदेव ! हम सब आपकी शरण में रहते हुए आपकी रक्षण-सामथ्र्यो द्वारा भली प्रकार सुरक्षित हों। हे शूरवीर इन्द्रदेव ! हम सब भली प्रकार संरक्षित हों ॥५॥

Recommendations