ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ३५

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ३५ ऋषिः प्रभुवसुरागिंरसः देवता - इन्द्र, । छंद - अनुष्टुप, ८ पंक्ति, यस्ते साधिष्ठोऽवस इन्द्र क्रतुष्टमा भर । अस्मभ्यं चर्षणीसहं सस्त्रिं वाजेषु दुष्टरम् ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! आपका जो विशिष्ट प्रभायुक्त कर्म हैं, उसे हमारे संरक्षण के लिए प्रयुक्त करें। आपका कर्म शत्रुओं को पराभूत करने वाला अति शुद्ध और संग्राम में कठिनता से पार पाये जाने वाला है ॥१॥ यदिन्द्र ते चतस्रो यच्छूर सन्ति तिस्रः । यद्वा पञ्च क्षितीनामवस्तत्सु न आ भर ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! आपके जो चार वर्षों में रक्षण साधन हैं। तीनों लोकों में जो रक्षण-साधन स्थित हैं अथवा पंचजनों के निमित्त जो रक्षण साधन हैं, उन सभी रक्षण साधनों से हमें अभिपूरित करें ॥२॥ आ तेऽवो वरेण्यं वृषन्तमस्य हूमहे । वृषजूतिर्हि जज्ञिष आभूभिरिन्द्र तुर्वणिः ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आप इष्ट-फलों के प्रदाता, वृष्टिकर्ता और शत्रुओं के शीघ्र संहारक हैं। आपके सम्पूर्ण रक्षण साधनों की हम कामना करते हैं। आप सर्वत्र विद्यमान एवं सहायक मरुतों के साथ मिलकर हमारे लिए श्रेष्ठ दाता सिद्ध हों ॥३॥ वृषा ह्यसि राधसे जज्ञिषे वृष्णि ते शवः । स्वक्षत्रं ते धृषन्मनः सत्राहमिन्द्र पौंस्यम् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आप इष्ट-प्रदायक हैं। यजमानों को धन-ऐश्वर्य देने के लिए ही आप उत्पन्न हुए हैं। आपका बल इष्टवर्धक हैं। आपका मन संघर्ष शक्ति से युक्त हैं। आपका बल शत्रुओं को वश में करने वाला हैं। आपका पौरुष शत्रु-संहारक है ॥४॥ त्वं तमिन्द्र मर्त्यममित्रयन्तमद्रिवः । सर्वरथा शतक्रतो नि याहि शवसस्पते ॥५॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आप सैकड़ों यज्ञादि कर्मों के सम्पादक हैं। आपका रथ सर्वत्र अबाधगति से जाता है। जो मनुष्य आपके प्रति शत्रुवत् व्यवहार करते हैं, आप उनके विरुद्ध चलते हैं ॥५॥ त्वामिवृत्रहन्तम जनासो वृक्तबर्हिषः । उग्रं पूर्वीषु पूर्वं हवन्ते वाजसातये ॥६॥ हे वृत्रहन्ता इन्द्रदेव ! यज्ञों में कुश के आसन बिछाकर अभिवादन करने वाले मनुष्य, जीवन-संग्राम में आपका आवाहन करते हैं। आप उग्र, वीर और सम्पूर्ण प्रजाओं में चिर पुरातन हैं ॥६॥ अस्माकमिन्द्र दुष्टरं पुरोयावानमाजिषु । सयावानं धनेधने वाजयन्तमवा रथम् ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आप हमारे रथ की रक्षा करें। यह रथ युद्धों में ऐश्वर्य की कामना करने वाला है। यह अनुचरों के साथ अग्रगमन करने वाला और दुस्तर है ॥७॥ अस्माकमिन्द्रेहि नो रथमवा पुरंध्या । वयं शविष्ठ वार्यं दिवि श्रवो दधीमहि दिवि स्तोमं मनामहे ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आप हमारे निकट आएँ। अपनी प्रकृष्ट बुद्धि से हमारे रथ की रक्षा करें। आप अत्यन्त बलशाली हैं। आपके निमित्त हम ग्रहणीय एवं दीप्तिमान् अन्नों को हवि द्वारा स्थापित करते हैं और दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करते हैं ॥८॥

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