ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त १५

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त १५ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- इन्द्रः । छंद- त्रिष्टुप, प्र घा न्वस्य महतो महानि सत्या सत्यस्य करणानि वोचम् । त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्यास्य मदे अहिमिन्द्रो जघान ॥१॥ उन महान् सत्य संकल्प धारी इन्द्रदेव के यथार्थ तथा महान् कर्मों का हम यशोगान करते हैं। इन्द्रदेव ने तीनों लोकों में व्याप्त सोम का पान करके इस सोम से आनन्दित होकर अहि राक्षस का वध किया ॥१॥ अवंशे द्यामस्तभायबृहन्तमा रोदसी अपृणदन्तरिक्षम् । स धारयत्पृथिवीं पप्रथच्च सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ॥२॥ सोमरस के पान से उत्साहित होकर इन्द्रदेव ने बिना स्तम्भों के द्युलोक तथा अन्तरिक्ष को स्थिर किया। इन दोनों लोकों को अपनी सत्ता से अनुप्राणित किया तथा पृथ्वी लोक को धारण करके उसका विस्तार किया ॥२॥ सद्येव प्राचो वि मिमाय मानैर्वज्रेण खान्यतृणन्नदीनाम् । वृथासृजत्पथिभिर्दीर्घयाथैः सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ॥३॥ सोमरस के पान से उत्साहित होकर इन्द्रदेव ने समस्त संसार को माप करके पूर्वाभिमुख बनाया। अपने वज्र के प्रहार से दीर्घकाल तक सहज प्रवाहित होने योग्य नदियों का मार्ग बनाया ॥३॥ स प्रवोळ्हन्परिगत्या दभीतेर्विश्वमधागायुधमिद्धे अग्नौ । सं गोभिरश्वरसृजद्रथेभिः सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ॥४॥ सोमरस के पान से आनन्दित होकर इन्द्रदेव ने 'दभीति' ऋषि को अपहृत करके ले जा रहे सारे असुरों को मार्ग में ही रोक कर, आयुधों से प्रदीप्त हुई अग्नि से जलाकर मारा, उन 'दभीति' ऋषि को गौओं, घोड़ों तथा रथों से विभूषित किया ॥४॥ स ईं महीं धुनिमेतोररम्णात्सो अस्त्रातॄनपारयत्स्वस्ति । त उत्स्नाय रयिमभि प्र तस्थुः सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ॥५॥ सोमरस के पान से उत्साहित होकर इन्द्रदेव ने पार जाने में असमर्थों को पार जाने के लिए विशाल नदी के प्रवाह को धीमा किया। उस नदी से पार निकल कर ऋषिगण ऐश्वर्य को लक्ष्य करके आगे बढ़ते हैं॥५॥ सोदञ्चं सिन्धुमरिणान्महित्वा वज्रेणान उषसः सं पिपेष । अजवसो जविनीभिर्विवृश्चन्त्सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ॥६॥ सोमरस के पान से आनन्दित होकर इन्द्रदेव ने अपने पराक्रम से नदी का प्रवाह उत्तराभिमुख किया। उनने अपनी द्रुतगामी सेनाओं के द्वारा उषा की निर्बल सेनाओं को नष्ट करते हुए उसके रथ को छिन्न-भिन्न किया था ॥६॥ स विद्वाँ अपगोहं कनीनामाविर्भवन्नुदतिष्ठत्परावृक् । प्रति श्रोणः स्थाद्यनगचष्ट सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ॥७॥ पंगु तथा चक्षुहीन ऋष परावृक् अपने ब्याह के लिए लाई हुई कन्याओं को भागते हुए देखकर उनके पीछे दौड़ पड़े थे, स्तुति से प्रसन्न इन्द्रदेव ने उन्हें पैर तथा आँखें प्रदान की। यह कार्य इन्द्रदेव ने सोम रस के पान से आनन्दित होकर किया ॥७॥ भिनद्वलमङ्गिरोभिर्गुणानो वि पर्वतस्य हंहितान्यैरत् । रिणग्रोधांसि कृत्रिमाण्येषां सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ॥८॥ अंगिरा आदि स्तोताओं की स्तुतियों से प्रसन्न होकर तथा सोमरस के पान से उत्साहित होकर इन्द्रदेव ने पर्वत के सुदृढ़ द्वारों को खोलकर असुरों की रची हुई बाधाओं को हटाते हुए 'वल' नामक असुर को विदीर्ण किया था ॥८॥ स्वप्नेनाभ्युप्या चुमुरिं धुनिं च जघन्थ दस्युं प्र दभीतिमावः । रम्भी चिदत्र विविदे हिरण्यं सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! आपने सोमरस के पान से उत्साहित होकर 'दभीति' की रक्षा के लिए दुष्ट राक्षस'चमुरि' तथा 'धुनि' को दीर्घ निद्रा में सुलाते हुए मारा था। इस अवसर पर दण्डधारियों (द्वारपालों) ने धन प्राप्त किया ॥९॥ नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र दक्षिणा मघोनी । शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! आपकी ऐश्वर्ययुक्त दक्षिणा स्तोताओं के लिए वरदायक होती है। उसे हमें भी प्रदान करें। आप हमें न त्यागें, हमें भी ऐश्वर्य से युक्त करें। हम यज्ञ में पुत्र-पौत्रों सहित महान् स्तोत्रों से आपकी स्तुतियाँ करें ॥१०॥

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