ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १९०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १९० ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता - बृहस्पति । छंद- त्रिष्टुप अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्व बृहस्पतिं वर्धया नव्यमकैः । गाथान्यः सुरुचो यस्य देवा आशृण्वन्ति नवमानस्य मर्ताः ॥१॥ हे मनुष्यो ! जिन द्वेष रहित, बलशाली, मधुर भाषी, स्तुति के योग्य बृहस्पतिदेव के मधुर, तेजस्वी एवं प्रशंसा के योग्य वचनों को मनुष्य तथा देवगण सभी श्रद्धा के साथ सुनते हैं, उनका गुणगान करो ॥१॥ तमृत्विया उप वाचः सचन्ते सर्गो न यो देवयतामसर्जि । बृहस्पतिः स ह्यज्जो वरांसि विभ्वाभवत्समृते मातरिश्वा ॥२॥ समयानुकूल की गई स्तुतियाँ बृहस्पति देव ग्रहण करते हैं। जिन बृहस्पतिदेव ने नई सृष्टि की रचना के समान देव बनने की कामना करने वाले मनुष्य को उत्पन्न किया, ऐसे वायु के समान प्रगतिशील बृहस्पतिदेव उत्तम वस्तुओं के साथ अपनी प्रचण्ड शक्ति से उत्पन्न हुए ॥२॥ उपस्तुतिं नमस उद्यतिं च श्लोकं यंसत्सवितेव प्र बाहू । अस्य क्रत्वाहन्यो यो अस्ति मृगो न भीमो अरक्षसस्तुविष्मान् ॥३॥ जैसे सूर्यदेव बाहु (किरणे) फैलाते हैं, उसी प्रकार बृहस्पतिदेव याजकों की स्तुतियाँ, अन्नादि एवं मंत्रों को स्वीकार करते हैं। बृहस्पतिदेव के क्रूरतारहित कर्तव्य से ही सूर्यदेव भयंकर मृग (सिंह जैसा) की तरह बल सम्पन्न होते हैं॥३॥ अस्य श्लोको दिवीयते पृथिव्यामत्यो न यंसद्यक्षभृद्विचेताः । मृगाणां न हेतयो यन्ति चेमा बृहस्पतेरहिमायाँ अभि यून् ॥४॥ इन बृहस्पतिदेव की कीर्ति द्युलोक और पृथ्वीलोक में सर्वत्र व्याप्त है। शीघ्रगामी अश्व के समान ज्ञानियों के भरणपोषण कर्ता, विशिष्ट ज्ञानसम्पन्न ये बृहस्पतिदेव सभी लोकों के सहयोग के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। हरिणों के संहारक शस्त्रों के समान बृहस्पति देव के ये शस्र दिन में छल करने वाले कपटी असुरों को मारते हैं॥४॥ ये त्वा देवोस्रिकं मन्यमानाः पापा भद्रमुपजीवन्ति पज्राः । न दूढ्ये अनु ददासि वामं बृहस्पते चयस इत्पियारुम् ॥५॥ हे देव ! जो धन को अहंकार करने वाले पापी वृद्ध वैल के समान जीवित हैं, आप उन दुर्बुद्धिग्रस्तों को ऐवश्वर्य नहीं देते हैं। हे बृहस्पतिदेव ! आप सोमपान करने वालों पर ही अपनी कृपा बरसाते हैं॥५॥ सुप्रैतुः सूयवसो न पन्था दुर्नियन्तुः परिप्रीतो न मित्रः । अनर्वाणो अभि ये चक्षते नोऽपीवृता अपोर्णवन्तो अस्थुः ॥६॥ ये बृहस्पतिदेव सन्मार्गगामी तथा उत्तम अन्नवाले मनुष्य के लिए श्रेष्ठ पथ प्रदर्शक रूप हैं तथा दुष्टों का नियन्त्रण करने वालों के मित्र के समान हैं। निष्पाप होकर जो मनुष्य हमारी ओर देखते हैं, वे अज्ञानरूपी अन्धकार से आवृत होने पर भी, अज्ञान को त्यागकर ज्ञान मार्ग पर बढ़ते हैं॥६॥ सं यं स्तुभोऽवनयो न यन्ति समुद्रं न स्रवतो रोधचक्राः । स विद्वाँ उभयं चष्टे अन्तर्ब्रहस्पतिस्तर आपश्च गृध्रः ॥७॥ स्वामी को उत्तम भूमि प्राप्त होने तथा समुद्र को भंवरों से युक्त नदियों का जल प्राप्त होने के समान ही बृहपतिदेव को स्तोत्ररूप वाणियाँ प्राप्त होती हैं। सुखों के अभिलाषी, ज्ञानवान् बृहस्पति देव दोनों के मध्य विराजमान होकर तट और जल दोनों को देखते हैं॥७॥ एवा महस्तुविजातस्तुविष्मान्बृहस्पतिर्वृषभो धायि देवः । स नः स्तुतो वीरवद्धातु गोमद्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥८॥ हम सभी अति प्रख्यात, शक्तिशाली, महिमायुक्त, सुखवर्षक बृहस्पतिदेव की प्रार्थना करते हैं। वे हमें वीर संतान युक्त गवादि धन प्रदान करें। हम सभी प्राप्त करने योग्य, शक्ति सम्पन्न तथा तेजस्वी देव के ज्ञान से युक्त हों ॥८ ॥

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