ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १७०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १७० ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणः देवता- इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, चतुष्पदा विराट न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद्वेद यदद्भुतम् । अन्यस्य चित्तमभि संचरेण्यमुताधीतं वि नश्यति ॥१॥ (इन्द्र का कथन) जो आज नहीं, वो कल भी नहीं (प्राप्त होगा) । जो हुआ ही नहीं हैं, उसे कैसे जाना जा सकता है ? दूसरे को चित्त चलायमान है, अतः वह संकल्प करेगा, तो भी बदल सकता है ॥१॥ किं न इन्द्र जिघांससि भ्रातरो मरुतस्तव । तेभिः कल्पस्व साधुया मा नः समरणे वधीः ॥२॥ (अगस्त्य का कथन) हे इन्द्रदेव! मुझ निरपराधी का वध आप क्यों करना चाहते हैं ? मरुद्गण आपके भाई है। आप उनके साथ यज्ञ के श्रेष्ठ भाग को प्राप्त करें। हे इन्द्रदेव! हमें युद्ध क्षेत्र में हिंसित न करें ॥२॥ किं नो भ्रातरगस्त्य सखा सन्नति मन्यसे । विद्मा हि ते यथा मनोऽस्मभ्यमिन्न दित्ससि ॥३॥ हे भ्रातृस्वरूप अगस्त्य ! आप हमारे मित्र होकर हमारा अपमान क्यों करते हैं ? आपका मन जिस (लोभ) भावना से ग्रस्त हैं, उसे हम भली प्रकार जानते हैं। आप हमारा भाग हमें नहीं देना चाहते हैं॥ ॥३॥ अरं कृण्वन्तु वेदिं समग्निमिन्धतां पुरः । तत्रामृतस्य चेतनं यज्ञं ते तनवावहै ॥४॥ याज्ञिक जन, यज्ञ वेदिका को भली प्रकार सुसज्जित करें । उसमें सबसे पहले अग्नि को प्रज्वलित करें। वहाँ पर हम आपके निमित्त अमरत्व को जाग्रत् करने वाली यज्ञीय भावनाओं को विस्तारित करें ॥४॥ त्वमीशिषे वसुपते वसूनां त्वं मित्राणां मित्रपते धेष्ठः । इन्द्र त्वं मरुद्भिः सं वदस्वाध प्राशान ऋतुथा हवींषि ॥५॥ हे धनाधिपति इन्द्रदेव! आप सम्पूर्ण धनों को अपने स्वामित्व में रखते हैं। हे मित्र रक्षक ! आप मित्रों के विशेष धारण करने योग्य आश्रय हैं। हे इन्द्रदेव ! आप मरुद्गणों के साथ सद्व्यवहार करें और उनके साथ ऋतुओं के अनुसार हमारे द्वारा प्रदत्त आहुतियों का सेवन करें ॥५॥

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