ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १०७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १०७ ऋषि - कुत्स अंगिरसः: देवता-विश्वे देवा । छंद - त्रिष्टुप यज्ञो देवानां प्रत्येति सुम्नमादित्यासो भवता मृळयन्तः । आ वोऽर्वाची सुमतिर्ववृत्यादंहोश्चिद्या वरिवोवित्तरासत् ॥१॥ यज्ञ देवगणों के लिए सुखदायक हैं। हे आदित्यगण ! आप हमारे लिए कल्याणकारी हों। आपकी श्रेष्ठ विवेकशील प्रेरणा हमें प्राप्त हो, जो हमें कष्टों से संरक्षित करते हुए श्रेष्ठ सम्पदा प्रदान करे ॥१॥ उप नो देवा अवसा गमन्त्वङ्गिरसां सामभिः स्तूयमानाः । इ न्द्र इन्द्रियैर्मरुतो मरुद्भिरादित्यैर्नो अदितिः शर्म यंसत् ॥२॥ अंगिराओं के सामों (गेय मंत्रों) से प्रशंसित हुए सभी देवता संरक्षण साधनों से युक्त होकर हमारे यहाँ आगमन करें। इन्द्रदेव अपनी शक्ति सामथ्र्यो, मरुत् अपने वीरों तथा अदिति अपनी आदित्य शक्तियों के सहित हमें सुख प्रदान करें ॥२॥ तन्न इन्द्रस्तद्वरुणस्तदग्निस्तदर्यमा तत्सविता चनो धात् । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥३॥ इन्द्र, वरुण, अग्नि, अर्यमा और सूर्य देवगण हमारे लिए मधुर अन्न प्रदान करें। हमारी कामना को मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और द्युलोक आदि देव अनुमोदित करें ॥३॥

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