ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ३३

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ३३ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः, ४, ६, ८, १० नद्यः ऋषिकाः देवता – नद्य : ४,८,१० विश्वामित्र, ६, ७, इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, १३ अनुष्टुप प्र पर्वतानामुशती उपस्थादश्वे इव विषिते हासमाने । गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे विपाट् छुतुद्री पयसा जवेते ॥१॥ बन्धन से विमुक्त होकर हर्षयुक्त नाद करते हुए दो घोड़ियों की भाँति अथवा अपने बछड़ों से सस्नेह मिलन के लिए उतावली, दो गायों की भाँति विपाट् (व्यास) और शुद्र (सतलज) नाम की नदियाँ पर्वत की गोद में निकलकर समुद्र से मिलने की अभिलाषा के साथ प्रबल वेग से प्रवाहित हो रही हैं॥१॥ इन्द्रेषिते प्रसवं भिक्षमाणे अच्छा समुद्रं रथ्येव याथः । समाराणे ऊर्मिभिः पिन्वमाने अन्या वामन्यामप्येति शुभ्रे ॥२॥ हे नदियों ! आप दोनों इन्द्र द्वारा प्रेरित होकर सम्यक् रूप से अनुकूलतापूर्वक प्रवहमान हों। हे उज्ज्वला! अपनी तरंगों से सबको तृप्त करती हुई आप दोनों धान्य उत्पत्ति में समर्थ हों। दो रथियों के समान समुद्र की ओर गमन करे ॥२॥ अच्छा सिन्धुं मातृतमामयासं विपाशमुर्वी सुभगामगन्म । वत्समिव मातरा संरिहाणे समानं योनिमनु संचरन्ती ॥३॥ ऋषि विश्वामित्र कहते हैं कि हम मैह-सिक्त मातृ-तुल्य शुतुद्रि (सतलज नदी के पास गये और विपुल ऐश्वर्य-शि से सम्पन्न विपाशा नदी के पास गये । बछड़े के प्रति स्नेहाभिलाषिणी गौओं के समान में नदियाँ एक हौं लक्ष्य-स्थान समुद्र की ओर सतत बहती हुई जा रहीं हैं॥३॥ एना वयं पयसा पिन्वमाना अनु योनिं देवकृतं चरन्तीः । न वर्तवे प्रसवः सर्गतक्तः किंयुर्विप्रो नद्यो जोहवीति ॥४॥ हुम नदियों अपने जल-प्रवाह से सबको तृप्त करती हुई देवों द्वारा स्थापित स्थान की ओर बहती हुई ज्ञा रही हैं। अनवरत प्रयमान हम अपने प्रयास से कभी भी विश्राम नहीं लेतीं हैं (यह तो हमारा सहज सामान्य क्रम हैं। फिर ब्राह्मण विश्वामित्र द्वारा हमारी स्तुति क्यों की जा रहीं हैं ? ॥४॥ रमध्वं मे वचसे सोम्याय ऋतावरीरुप मुहूर्तमेवैः । प्र सिन्धुमच्छा बृहती मनीषावस्युरहे कुशिकस्य सूनुः ॥५॥ हे ज्ञलवतों नदियों ! आप हमारे नम्र और मधुर वचनों को सुनकर अपनी गति को एक क्षण के लिए विराम दे दें। हम कुशक पुत्र अपनी रक्षा के लिए महती स्तुतियों द्वारा आप नदियों का भली प्रकार सम्मान करते हैं॥५॥ इन्द्रो अस्माँ अरदद्वज्रबाहुरपाहन्वृत्रं परिधिं नदीनाम् । देवोऽनयत्सविता सुपाणिस्तस्य वयं प्रसवे याम उर्वीः ॥६॥ (नदियों की वाणी) हे विश्वामित्र ! बज्रधारी इन्द्रदेव ने हमें स्वोदकर उत्पन्न किया। नदियों के प्रवाह को रोकने वाले वृत्र को उन्होंने मारा । सबके प्रेरक, उत्तम हाथों वाले और दीप्तिमान् इदेव ने हमें बढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनकी आज्ञा के अनुसार ही हम जल से परिपूर्ण होकर गमन करती हैं॥६॥ प्रवाच्यं शश्वधा वीर्यं तदिन्द्रस्य कर्म यदहिं विवृश्चत् । वि वज्रेण परिषदो जघानायन्नापोऽयनमिच्छमानाः ॥७॥ इन्द्रदेव ने अनि नामक असुर के मारा; उनके वे पराक्रम और कर्म सर्वदा वर्णनीय हैं। जन्य इन्द्रदेव ने अपने चारों ओर स्थित असुरों को मारा, तब जल-प्रवाह समुद्र से मिलने की इच्छा करते हुए प्रवाहित हुआ॥७॥ एतद्वचो जरितर्मापि मृष्ठा आ यत्ते घोषानुत्तरा युगानि । उक्थेषु कारो प्रति नो जुषस्व मा नो नि कः पुरुषत्रा नमस्ते ॥८॥ हे स्तोता (विश्वामित्र) ! अपने ये स्तुति-वचन कभी भूलना नहीं। भावी समय में यज्ञों में इन वचनों को उद्घोषणा द्वारा आप हमारी सेवा करें । हम (दोनों नदियाँ) आपको नमस्कार करती हैं। पुरुषों द्वारा सम्पादित कर्मों में कभी भी हमारी उपेक्षा न करें ॥८ ॥ ओ षु स्वसारः कारवे शृणोत ययौ वो दूरादनसा रथेन । नि षू नमध्वं भवता सुपारा अधोअक्षाः सिन्धवः स्रोत्याभिः ॥९॥ हे भगिनी रूप (दोनो) नदियों ! हमारी स्तुति भलींप्रकार सुनें । हम आपके पास अति दूरस्थ देश में रथ और शकट को लेकर आये हैं। आप अपने प्रवाज़ों के साथ इतनीं झुक जायें कि रथ की धुरी से नीचे हो जाये, जिससे हम सरलता से पार हो जाये ॥९॥ आ ते कारो शृणवामा वचांसि ययाथ दूरादनसा रथेन । नि ते नंसै पीप्यानेव योषा मर्यायेव कन्या शश्वचै ते ॥१०॥ हे स्तोता ! हम दोनों नदियाँ) आपको स्तुतियाँ सुनतीं हैं आप दूरस्थ देश से रथ और शकट के साथ आए हैं, इसलिए जैसे माता पुत्र को स्तनपान कराने के लिए अवनत होती है अथवा धर्म पत्नी अपने पति के प्रति नम्र होती हैं, वैसे ही हम आपके लिए अवनत होती हैं (अपने प्रवाह को कम करके आपको जाने का मार्ग प्रदान करती हैं) ॥१०॥ यदङ्ग त्वा भरताः संतरेयुर्गव्यन्ग्राम इषित इन्द्रजूतः । अर्षादह प्रसवः सर्गतक्त आ वो वृणे सुमतिं यज्ञियानाम् ॥११॥ हे दोनों नदियों ! जब पोषणकर्ता पुरुष आपको पार करना चाहें, तब आपको पार करने के अभिलाषा में ज्ञ-समूह इन्द्रदेव द्वारा प्रेरित होकर आपकी अनुकम्पा में पार हो जायें। आप यज्ञन योग्य हैं। हम प्रतिदिन आपके वेगवान् जल-प्रवाहों की उत्तम स्तुतियाँ करते हैं॥११॥ अतारिषुर्भरता गव्यवः समभक्त विप्रः सुमतिं नदीनाम् । प्र पिन्वध्वमिषयन्तीः सुराधा आ वक्षणाः पृणध्वं यात शीभम् ॥१२॥ है नदियों ! भरण-पोषण को लक्ष्य करके आपके पार जाने के अभिलाषीजन पार हो गए। ज्ञानीजनों ने आपके निमित्त उत्तम स्तुतियों को अभिव्यक्त किया। आप अन्नों को प्रात्री और उत्तम ऐश्वर्यवती होकर नहरों को जल से परिपूर्ण करें और शीघ्र गमन करें ॥१२॥ उद्व ऊर्मिः शम्या हन्त्वापो योक्त्राणि मुञ्चत । मादुष्कृतौ व्येनसाध्यौ शूनमारताम् ॥१३॥ हे नदियों ! आपकी तरंगें रथ की धुरी से टकराती रहें । हे दुष्कर्महीना, पापरहिता, अनिन्दनीया नदियों! आपको कोई बाधा न हों ॥१३॥

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