ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२१ ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः देवता- इन्द्रो विश्वे देवा । छंद - त्रिष्टुप कदित्था नँः पात्रं देवयतां श्रवद्गिरो अङ्गिरसां तुरण्यन् । प्र यदान‌ड्विश आ हर्म्यस्योरु क्रंसते अध्वरे यजत्रः ॥१॥ मनुष्यों को संरक्षण प्रदान करने वाले इन्द्रदेव शीघ्रता से देवत्व पद पाने के इच्छुक अंगिरसों की प्रार्थनाओं को इस प्रकार कब सुनते हैं? इसका सुनिश्चित ज्ञान नहीं; लेकिन जब स्वीकार करते हैं, तब प्रजाजनों के घर में स्थित यज्ञ में शीघ्रता पूर्वक पहुँचकर उनकी अभीष्ट कामनाओं को पूर्ण करते हैं॥१॥ स्तम्भीद्ध द्यां स धरुणं प्रुषायदृभुर्वाजाय द्रविणं नरो गोः । अनु स्वजां महिषश्चक्षत व्रां मेनामश्वस्य परि मातरं गोः ॥२॥ निश्चित ही उन्हीं (सूर्य रूप इन्द्रदेव) ने द्युलोक को स्थिरता प्रदान की है। तेजस्वी रश्मियों के प्रकाशक ये इन्द्रदेव सर्वत्र अन्न उत्पादन के लिए जल को बरसाने के माध्यम हैं वे महान् सूर्यदेव अपनी कन्या देवी उषा के पश्चात् प्रकाशित होते हैं तथा वे शीघ्र गतिशील चन्द्रमा की पत्नी रात्रि को प्रकाश किरणों की माता बनाते हैं॥२॥ नक्षद्धवमरुणीः पूर्वं राट् तुरो विशामङ्गिरसामनु यून् । तक्षद्वत्रं नियुतं तस्तम्भद्द्यां चतुष्पदे नर्याय द्विपादे ॥३॥ श्रेष्ठ मनुष्यों को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करने वाले, आंगिरसों के ज्ञाता, सूर्यदेव (इन्द्रदेव) नित्य ही उषाओं को प्रकाशमान करते हुए श्रेष्ठ स्तुति रूप वाणियों से सम्मानित होते हैं (वन्दनीय होते हैं)। साथ ही वे इन्द्रदेव वज्र को तेजधार युक्त करते हैं तथा सम्पूर्ण प्राणि मात्र के कल्याण के निमित्त वे दिव्य लोक को स्थिरता प्रदान करते हैं॥३॥ अस्य मदे स्वर्यं दा ऋतायापीवृतमुस्रियाणामनीकम् । यद्ध प्रसर्गे त्रिककुम्निवर्तदप द्रुहो मानुषस्य दुरो वः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! इन प्रार्थनाओं से प्रशंसित होकर आप रात्रि में छिपी हुई प्रकाशमय किरणों के समूह को यज्ञ सम्पादन के लिए प्रकट करते हैं। जब तीनों लोकों में सर्वोत्तम इन्द्रदेव युद्ध में तत्पर हो जाते हैं, तब वे द्रोहियों के लिए पतन का मार्ग खोल देते हैं ॥४॥ तुभ्यं पयो यत्पितरावनीतां राधः सुरेतस्तुरणे भुरण्यू । शुचि यत्ते रेक्ण आयजन्त सबर्दुघायाः पय उस्रियायाः ॥५॥ जब मनुष्य उत्तम दुधारू गौओं के पवित्र घृत-दुग्धादि से आपके लिए यज्ञ करते हैं, तब हे इन्द्रदेव ! शीघ्रतापूर्वक क्रियाशील आपके लिए भरण-पोषण कर्ता माता-पिता रूप द्यावापृथिवी, ऐश्वर्यप्रद और श्रेष्ठ उत्पादन क्षमता से युक्त वृष्टिरूप जल को बरसाते हैं॥५॥ अध प्र जज्ञे तरणिर्ममत्तु प्र रोच्यस्या उषसो न सूरः । इन्दुर्येभिराष्ट स्वेदुहव्यैः सुवेण सिञ्चज्ञ्जरणाभि धाम ॥६॥ जिस प्रकार सूर्यदेव प्रकाशित होते हैं, वैसे ही दुःखनाशक इन्द्रदेव भी उषाओं के निकट प्रकाशित होते हैं। श्रेष्ठ मधुर पदार्थों की हवि प्रदान करने वाले यजमानों द्वारा इन्द्रदेव के लिए यज्ञस्थल पर सुवा पात्र से सोमरस प्रदान किया जाता है। ऐसे सोम से अभिषिंचित होकर वे प्रसन्न हों ॥ ६॥ स्विध्मा यद्वनधितिरपस्यात्सूरो अध्वरे परि रोधना गोः । यद्ध प्रभासि कृत्व्याँ अनु यूननर्विशे पश्विषे तुराय ॥७॥ जब प्रकाशित सूर्य किरणों के माध्यम से मेघ जल वर्षण करते हैं, तब इन्द्रदेव यज्ञार्थ किरणों के अवरोध को दूर कर देते हैं। हे इन्द्रदेव ! जब आप (सूर्य रूप में) किरणों का संचार करते हैं, तब गाड़ीवान्, पशुपालक तथा गतिशील पुरुष अपने कार्यों की पूर्ति के लिए तत्पर होते हैं॥७॥ अष्टा महो दिव आदो हरी इह द्युम्नासाहमभि योधान उत्सम् । हरिं यत्ते मन्दिनं दुक्षन्वृधे गोरभसमद्रिभिर्वाताप्यम् ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! जब यज्ञकर्ता मनुष्य आपके संवर्धन के लिए उत्तम, आनन्दप्रद, गाय के दूध से मिश्रित और शक्तिप्रद सोम को पत्थरों द्वारा कूटपीस कर बनाते हैं, तब विस्तृत दिव्यलोक को संव्याप्त करने वाली आपकी अश्वरूपी किरणें हविरूप सोमरस को यहाँ आकर ग्रहण करें। आप वृष्टि अवरोधक तत्वों को हटाकर तेजस्वी जलधाराओं को चारों ओर बरसायें ॥८॥ त्वमायसं प्रति वर्तयो गोर्दिवो अश्मानमुपनीतमृभ्वा । कुत्साय यत्र पुरुहूत वन्वञ्छुष्णमनन्तैः परियासि वधैः ॥९॥ अनेकों द्वारा आवाहित हे इन्द्रदेव! जब आप कुत्स के संरक्षण के लिए शुष्ण दानव को विभिन्न शस्त्रों का प्रहार करके नाश करते हैं, तब सभी निर्भय होकर चारों दिशाओं में विचरण करते हैं। उस आक्रान्ता के हनन के लिए आप ऋभु द्वारा स्वर्गलोक से लाये गये पत्थर और लोहे से निर्मित अस्त्र-शस्त्रों को प्रहार करते हैं॥९॥ पुरा यत्सूरस्तमसो अपीतेस्तमद्रिवः फलिगं हेतिमस्य । शुष्णस्य चित्परिहितं यदोजो दिवस्परि सुग्रथितं तदादः ॥१०॥ ज्ञब वज्रधारी इन्द्रदेव ने बादलों को नष्ट करने वाले शस्त्र का प्रहार किया, तब सूर्यदेव मुक्त हुए। हे इन्द्रदेव! आपने शुष्णु (शोषण करने वाले असुर) का जो बल द्युलोक को घेरे हुए था, उसे नष्ट कर दिया ॥१०॥ अनु त्वा मही पाजसी अचक्रे द्यावाक्षामा मदतामिन्द्र कर्मन् । त्वं वृत्रमाशयानं सिरासु महो वज्रेण सिष्वपो वराहुम् ॥११॥ महान् सामर्थ्य से युक्त, हे इन्द्रदेव! सभी ओर संव्याप्त, द्युलोक और भूलोक ने आपके कार्य के प्रति आभार प्रकट किया, तब प्रोत्साहित होकर आपने विशाल वज्र द्वारा वृत्र को जल में ही सुला दिया ॥११॥ त्वमिन्द्र नर्यो याँ अवो नृन्तिष्ठा वातस्य सुयुजो वहिष्ठान् । यं ते काव्य उशना मन्दिँनं दावृत्रहणं पार्यं ततक्ष वज्रम् ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! क्रान्तदर्शी के पुत्र 'उशना' ने आनन्दप्रद, वृत्रहन्ता तथा शत्रु आक्रान्ता वज्र आपके लिए प्रदान किया। आपने उसे तीक्ष्ण बनाया। तत्पश्चात् भार वहन में कुशल, रथ में भली प्रकार नियोजित होने वाले तथा वायु के समान वेगवान् घोड़ों से खींचे जाने वाले रथ पर बैठकर आप मनुष्यों के हित चिन्तकों को संरक्षण प्रदान करते हैं॥१२॥ त्वं सूरो हरितो रामयो नृन्भरच्चक्रमेतशो नायमिन्द्र । प्रास्य पारं नवतिं नाव्यानामपि कर्तमवर्तयोऽयज्यून् ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! आप प्रकाशमान सूर्यदेव के समान ही मनुष्यों की हितकारक और रसों को अवशोषित करने वाली रश्मियों को आलोकित करते हैं। आपके रथ का चक्र सदैव गतिमान् रहता है। नौकाओं से लाँघने योग्य नब्बे नदियों के पार यज्ञ विरोधियों को फेंककर आपने विलक्षण कार्य सम्पन्न किया ॥१३॥ त्वं नो अस्या इन्द्र दुर्हणायाः पाहि वज्रिवो दुरितादभीके । प्र नो वाजात्रथ्यो अश्वबुध्यानिषे यन्धि श्रवसे सूनृतायै ॥१४॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! जिन्हें अति प्रयास पूर्वक ही नष्ट किया जा सकता है ऐसे दुर्गति कारक पापकर्मों से में बचाकरे संरक्षित करें। युद्ध भूमि में भली प्रकार से हमारी रक्षा करें। हमें यश, बल तथा श्रेष्ठ सत्य से युक्त व्यवहार के निमित्त रथ और अश्वों से युक्त ऐश्वर्य सम्पदा प्रदान करें ॥१४॥ मा सा ते अस्मत्सुमतिर्वि दसद्वाजप्रमहः समिषो वरन्त । आ नो भज मघवन्गोष्वर्यो मंहिष्ठास्ते सधमादः स्याम ॥१५॥ अपनी सामथ्र्यों से स्तुति योग्य हे इन्द्रदेव! आपकी विवेक-युक्त बुद्धि का कभी हमारे जीवन में अभाव न हो। विवेक बुद्धि से हम सभी प्रकार के अन्न एवं धन को अर्जित करें। हे श्रेष्ठ ऐश्वर्य सम्पन्न इन्द्रदेव ! आप हमें गोधन से परिपूर्ण करें तथा आपकी महिमा को बढ़ाने वाले हम सभी एक साथ रहकर आनन्दित हों ॥ १५॥

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