ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४४ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- अग्नि । छंद - जगती एति प्र होता व्रतमस्य माययोर्ध्वा दधानः शुचिपेशसं धियम् । अभि सुचः क्रमते दक्षिणावृतो या अस्य धाम प्रथमं ह निंसते ॥१॥ विशेष ज्ञानवान् याज्ञिक अपनी उच्च निर्मल भावनाओं को धारण करते हुए इन अग्निदेव के निर्धारित व्रत अनुशासनों का ही अनुसरण करते हैं। पश्चात् ये याज्ञिक हवि प्रदान करने के लिए उपयोगी सुवा पात्र को हाथ में धारण करते हैं। जो सुवा को धारण करते हैं, वे हाथ सर्वप्रथम शोभा पाते हैं ॥१॥ अभीमृतस्य दोहना अनूषत योनौ देवस्य सदने परीवृताः । अपामुपस्थे विभृतो यदावसदध स्वधा अधयद्याभिरीयते ॥२॥ जलधाराएँ अग्नि के मूल स्थान दिव्य लोक को आच्छादित करके वहाँ आनन्दपूर्वक वास कर रहे अग्नि देव से वृष्टिरूप में धरती पर आने के लिए प्रार्थना करती हैं। ये अग्निदेव अपनी किरणों से जल वृष्टि करते हैं। उस अमृतरूपी जल का सभी लोग सेवन करते हैं। जलों के साथ अन्तरिक्ष से आने वाला अग्निरूप प्राण-पर्जन्य पहले वनस्पतियों में तत्पश्चात् सभी प्राणियों में समाविष्ट हो जाता है॥२॥ युयूषतः सवयसा तदिद्वपुः समानमर्थं वितरित्रता मिथः । आदीं भगो न हव्यः समस्मदा वोळ्हुर्न रश्मीन्त्समयंस्त सारथिः ॥३॥ अग्नि को उत्पन्न करने के लिए भली प्रकार स्थापित एक ही समय में समान सामर्थ्य से युक्त दो अरणियाँ परस्पर घिसी जाती हैं। प्रज्वलित होने के बाद यजनीय अग्निदेव हमारे द्वारा प्रदत्त घृतधारा को सभी ओर से उसी प्रकार ग्रहण करते हैं, जिस प्रकार सारथी अश्वों को लगाम द्वारा नियन्त्रित करते हैं॥३॥ यमीं द्वा सवयसा सपर्यतः समाने योना मिथुना समोकसा । दिवा न नक्तं पलितो युवाजनि पुरू चरन्नजरो मानुषा युगा ॥४॥ दो समान आयु वाले, एक ही घर में रहने वाले, समान कार्यों में संलग्न युग्म अग्निदेव की यज्ञीय कर्मों द्वारा अहर्निश अर्चना करते हैं। उनके द्वारा पूजित अग्निदेव बढ़ने पर भी (प्राचीन होते हुए भी) वृद्ध नहीं होते। वे अनेकों युगों से संचरित होकर भी कभी जीर्ण नहीं होते ॥४॥ तमीं हिन्वन्ति धीतयो दश व्रिशो देवं मर्तास ऊतये हवामहे । धनोरधि प्रवत आ स ऋण्वत्यभिव्रजद्भिर्वयुना नवाधित ॥५॥ दसों अँगुलियों की आपसी भिन्नता होने पर भी वे सभी मिलकर प्रकाश देने वाली अग्नि को प्रकट करती हैं। हम सभी मनुष्य अपने संरक्षणार्थ अग्निदेव को आवाहित करते हैं। जिस प्रकार धनुष से बाण निकलता हैं, उसी प्रकार अग्निदेव प्रज्वलित होकर चारों ओर उपस्थित अपने प्रति स्तुतिगाताओं द्वारा निवेदित नूतन प्रार्थनाओं को धारण करते हैं॥५॥ त्वं ह्यग्ने दिव्यस्य राजसि त्वं पार्थिवस्य पशुपा इव त्मना । एनी त एते बृहती अभिश्रिया हिरण्ययी वक्वरी बर्हिराशाते ॥६॥ हे अग्निदेव ! आप गौ आदि पशुपालकों के समान अपनी सामर्थ्य से दिव्यलोक और पृथ्वीलोक के अधिपति हैं। अतएवं व्यापक, ऐश्वर्य सम्पन्न, स्वर्णमय, मंगल शब्दमय, शुभ्रवर्णयुक्त ये दोनों, दिव्य लोक और भूलोक, आपके इस प्रख्यात यज्ञ में उपस्थित होते हैं॥६॥ अग्ने जुषस्व प्रति हर्य तद्वचो मन्द्र स्वधाव ऋतजात सुक्रतो । यो विश्वतः प्रत्य‌ङसि दर्शतो रण्वः संदृष्टौ पितुमाँ इव क्षयः ॥७॥ प्रशंसा योग्य, अन्नों से समृद्ध यज्ञहेतु उत्पन्न श्रेष्ठ कर्मशील हे अग्निदेव ! जो आप समस्त जड़ और चेतनादि संसार के लिए अनुकूल दर्शन योग्य, पिता के समान पालक नेत्रों को शक्ति देने वाले तथा सबके आश्रय स्थान हैं। अतएव आप प्रसन्न होकर इन स्तोत्रवाणियों का बार-बार श्रवण करें ॥७॥

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