ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२३ ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः देवता - उषाः । छंद - त्रिष्टुप पृथू रथो दक्षिणाया अयोज्यैनं देवासो अमृतासो अस्थुः । कृष्णादुदस्थादर्या विहायाश्चिकित्सन्ती मानुषाय क्षयाय ॥१॥ इन कुशलदेवी उषा का विस्तृत रथ जुत करके तैयार हो गया हैं और उस पर अमर देवगण आकर विराजमान हो गये हैं। ये विशेष रूप से प्रकाशित उत्तम देवी उषा मानवों के सुखदायी निवास के निमित्त प्रयलशील होकर भयंकर काले अन्धकार से ऊपर उठकर प्रकाशमान हुई हैं॥१॥ पूर्वा विश्वस्मा‌द्भुवनादबोधि जयन्ती वाजं बृहती सनुत्री । उच्चा व्यख्यद्युवतिः पुनर्भूरोषा अगन्प्रथमा पूर्वहूतौ ॥२॥ सम्पूर्ण प्राणियों से पहले देवी उषा जागती हैं, यह प्रचुर दानदात्री देवी उषा ऐश्वर्यो की जनयित्री हैं। यह बार-बार आने वाली चिर युवा देवी उषा सर्वप्रथम यज्ञ करने के निमित्त प्रथम स्थान पर विराजमान होती हैं और ऊँचे स्थान से सबको देखती हैं॥२॥ यदद्य भागं विभजासि नृभ्य उषो देवि मर्त्यत्रा सुजाते । देवो नो अत्र सविता दमूना अनागसो वोचति सूर्याय ॥३॥ हे कुलीन उषा देवि ! मनुष्यों की पालनकत्र आप जिस समय मनुष्यों के लिए धन का, योग्य भाग प्रदान करती हैं, उस समय दान के प्रति प्रेरित करने वाले देव, सूर्य के अभिमुख हमें पापरहित बनाएँ ॥३॥ गृहंगृहमहना यात्यच्छा दिवेदिवे अधि नामा दधाना । सिषासन्ती द्योतना शश्वदागादग्रमग्रमिद्भजते वसूनाम् ॥४॥ हविर्भाग को ग्रहण करने के लिए ज्योतिर्मय देवी उषा प्रतिदिन आगमन करती हैं। कीर्ति को धारण करने वाली देवी उषा प्रतिदिन घर-घर जाती हैं (अर्थात् प्रकाश बाँटती हैं) तथा धनों के श्रेष्ठ अंश को ग्रहण करती है॥४॥ भगस्य स्वसा वरुणस्य जामिरुषः सूनृते प्रथमा जरस्व । पश्चा स दघ्या यो अघस्य धाता जयेम तं दक्षिणया रथेन ॥५॥ हे सुभाषिणि उषे ! आप भगदेव और वरुणदेव की बहिन हैं, ऐसी आप देवों में सर्वप्रथम स्तुति करने योग्य हैं। बाद में जो पापात्मा शत्रु हैं, उन्हें हम पकड़े और आपके द्वारा दक्षता पूर्वक प्रेरित रथ से पराभूत करें ॥५॥ उदीरतां सूनृता उत्पुरंधीरुदग्नयः शुशुचानासो अस्थुः । स्पार्हा वसूनि तमसापगूव्ळ्हाविष्कृण्वन्त्युषसो विभातीः ॥६॥ हमारे मुख स्तोत्रगान करें। प्रखर विवेक बुद्धि सत्कर्मों की ओर प्रेरित करे । प्रज्वलित अग्नि ज्वलनशील रहे, तब उनके निमित्त तेजस्वी उषाएँ तमसाच्छादित (अन्धकार से छिपे) वाञ्छित धनों को प्रकट करें ॥६॥ अपान्यदेत्यभ्यन्यदेति विषुरूपे अहनी सं चरेते । परिक्षितोस्तमो अन्या गुहाकरद्यौदुषाः शोशुचता रथेन ॥७॥ विपरीत रूप-रंग वाली रात्रि और देवी उषा क्रमशः आती और जाती हैं। एक के चले जाने पर दूसरी आती हैं। इन भ्रमणशीलों में से एक रात्रि अन्धकार से सबको आच्छादित कर देती है और दूसरी देवी उषा दीप्तिमान् तेजरूप रथ से सबको प्रकाशित करती हैं॥७॥ सदृशीरद्य सदृशीरिदु श्वो दीर्घ सचन्ते वरुणस्य धाम । अनवद्यास्त्रिंशतं योजनान्येकैका क्रतुं परि यन्ति सद्यः ॥८॥ आज ही के समान कल भी ये उषाएँ यथावत् आएँगी। ये पवित्र उषाएँ वरुण देव के व्यापक स्थान में देर तक रहती हैं। एक-एक देवी उषा तीस-तीस योजनों की परिक्रमा करती हुईं नियत समय पर कर्म प्रेरक सूर्यदेव से आगे-आगे चलती हैं ॥८॥ जानत्यह्नः प्रथमस्य नाम शुक्रा कृष्णादजनिष्ट श्वितीची । ऋतस्य योषा न मिनाति धामाहरहर्निष्कृतमाचरन्ती ॥९॥ दिन के प्रारम्भिक काल को जानने वाली गौरवर्णा तेजस्विनी देवी उषा काली रात्रि के काले अन्धकार से उत्पन्न होती हैं, ये स्त्री रूपी देवी उषा सत्यव्रत को न त्यागतीं हुई प्रतिदिन निश्चित समय पर आतीं और नियमपूर्वक रहती हैं॥९॥ कन्येव तन्वा शाशदानाँ एषि देवि देवमियक्षमाणम् । संस्मयमाना युवतिः पुरस्तादाविर्वक्षांसि कृणुषे विभाती ॥१०॥ हे देवी उषे! शरीर के स्वरूप को प्रकट करने वाली कन्या के समान ही आप भी अभीष्ट कामना पूरक पतिरूप सूर्यदेव के पास जाती हैं। पश्चात् नवयुवती के समान मुस्कराती हुई कान्तिमती होकर अपने प्रकाश किरणों रूपी वक्षस्थल को प्रकटरूप से प्रकाशित करती हैं॥१०॥ सुसंकाशा मातृमृष्टेव योषाविस्तन्वं कृणुषे दृशे कम् । भद्रा त्वमुषो वितरं व्युच्छ न तत्ते अन्या उषसो नशन्त ॥११॥ माता द्वारा सुशोभित की गई नवयुवती के समान रूपवती ये देवी उषा अपने प्रकाश किरणों रूपी शारीरिक अंगों को मानो दिखाने के लिए प्रकट हो रही हों। हे उषे! आप मनुष्यों का कल्याण करती हुई व्यापक क्षेत्र में प्रकाशित रहें। अन्य उषाएँ आपकी तेजस्विता की समानता नहीं कर सकेंगी ॥११॥ अश्वावतीर्गोमतीर्विश्ववारा यतमाना रश्मिभिः सूर्यस्य । परा च यन्ति पुनरा च यन्ति भद्रा नाम वहमाना उषासः ॥१२॥ अश्वों और गौओं से युक्त सबके द्वारा आदर-योग्य (वरण करने योग्य) सूर्यदेव की किरणों से अन्धकार को दूर भगाने में प्रयलशील, तथा कल्याणकारी यशस्विता को धारण करने वाली उषाएँ दूर जाती सी दीखती हैं, लेकिन फिर वहीं आ जाती हैं॥ १२ ॥ ऋतस्य रश्मिमनुयच्छमाना भद्रम्भद्रं क्रतुमस्मासु धेहि । उषो नो अद्य सुहवा व्युच्छास्मासु रायो मघवत्सु च स्युः ॥१३॥ हे देवि उषे ! सूर्यदेव की रश्मियों के अनुकूल रहते हुए आप हमारे अन्तरंग में कल्याणकारी कर्मों की प्रेरणा प्रदान करें। आप आवाहित किये जाने पर हमारे अभिमुख प्रकाशमान रहें। हमें और ऐश्वर्यवानों को प्रचुर मात्रा में धन सम्पदा प्रदान करें ॥१३॥

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