Maha Upanishad Chapter 2 (महा उपनिषद) द्वितीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ महोपनिषत् ॥ ॥ महा उपनिषद ॥ द्वितीयोऽध्यायः द्वितीय अध्याय शुको नाम महातेजाः स्वरूपानन्दतत्परः । जातमात्रेण मुनिराड् यत्सत्यं तदवाप्तवान् ॥ १॥ तेनासौ स्वविवेकेन स्वयमेव महामनाः । प्रविचार्य चिरं साधु स्वात्मनिश्चयमाप्तवान् ॥ २॥ शुक नामक महातेजस् सम्पन्न एक मुनीश्वर सतत आत्मा के आस्वादन में संलग्न रहते थे। जन्म के तुरन्त बाद ही उन्हें सत्य एवं तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो गई थी। इस कारण से उन्होंने अपने विवेक से स्वयं ही चिरकाल तक चिन्तन-मनन करने के पश्चात् आत्मा के स्वरूप को जानने की निश्चित धारणा बनाई ॥१-२॥ अनाख्यत्वादगम्यत्वान्मनःषष्ठेन्द्रियस्थितेः । चिन्मात्रमेवमात्माणुराकाशादपि सूक्ष्मकः ॥ ३॥ चिदणोः परमस्यान्तः कोटिब्रह्माण्डरेणवः । उत्पत्तिस्थितिमभ्येत्य लीयन्ते शक्तिपर्ययात् ॥ ४॥ आकाशं बाह्यशून्यत्वादनाकाशं तु चित्त्वतः । न किंचिद्यदनिर्देश्यं वस्तु सत्तेति किंचन ॥ ५॥ चेतनोऽसौ प्रकाशत्वाद्वेद्याभावाच्छिलोपमः । स्वात्मनि व्योमनि स्वस्थे जगदुन्मेषचित्रकृत् ॥ ६॥ वचनों से परे होने के कारण, अगम्य होने के कारण तथा मन रूपी छठी इन्द्रिय में प्रतिष्ठित होने के कारण यह आत्मा अणु के आकार वाला, चिन्मात्र एवं आकाश से भी अतिसूक्ष्म है। इस परम चिद्रूप अणु के अन्दर कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड रूपी रेणुकाएँ शक्ति क्रमानुसार प्रकट एवं प्रतिष्ठित होकर विलीन होती रहती हैं। आत्मा बाह्य शून्यता के कारण आकाशरूप है और चिद्रूपता के कारण अनाकाशरूप है। इसके रूप का वर्णन न हो सकने के कारण यह वस्तुरूप नहीं है; किन्तु सत्ता होने से वस्तुरूप है। प्रकाशरूप होने के कारण वह चेतन है तथा वेदना का विषय न होने से वह शिला के सदृश (जड़) है। अपने अन्तः में स्थित आत्माकाश में वह चित्र-विचित्र विभिन्न प्रकार के जगत् का उन्मेष (सृजन) करता है॥३-६॥ तद्भामात्रमिदं विश्वमिति न स्यात्ततः पृथक् । जगद्भेदोऽपि तद्भानमिति भेदोऽपि तन्मयः ॥ ७॥ सर्वगः सर्वसम्बन्धो गत्यभावान्न गच्छति । नास्त्यसावश्रयाभावात्सद्रूपत्वादथास्ति च ॥ ८ ॥ विज्ञानमानन्दं ब्रह्म रातेर्दातुः परायणम् । सर्वसंकल्पसंन्यासश्चेतसा यत्परिग्रहः ॥ ९॥ जाग्रतः प्रत्ययाभावं यस्याहुः प्रत्ययं बुधाः । यत्संकोचविकासाभ्यां जगत्प्रलयसृष्टयः ॥ १०॥ निष्ठा वेदान्तवाक्यानामथ वाचामगोचरः । अहं सच्चित्परानन्दब्रह्मैवास्मि न चेतरः ॥ ११॥ यह विश्व उसी आत्मा का प्रकाशमात्र होने के कारण उस आत्मतत्त्व से पृथक् नहीं है। जो विश्वभेद आत्मा में दृष्टिगोचर होता है, वह भी उस आत्मा से अलग नहीं है। सभी से सम्बद्ध होने से उस आत्मा की गति यत्र-तत्र-सर्वत्र है; किन्तु उसमें गति न होने के कारण वह चलायमान नहीं है। वह आत्मा आश्रयरहित होने से नास्ति रूप है; किन्तु सत्स्वरूप होने के कारण वह अस्तिरूप है। वही धन-प्रदाता (दानी) की परमगति है। जो ब्रह्मानन्दमय और विज्ञानमय है तथा चित्त द्वारा सारे संकल्पों का परित्याग ही जिसका ग्रहण है। जाग्रत् अवस्था की प्रतीति के अभाव को ही ज्ञानीजन जिसकी प्रतीति बताते हैं, जिसके संकोच एवं विकास से जगत् का विनाश एवं सृजन होता है। जो वेदान्त-वाक्यों की निष्ठास्वरूप तथा वाणी के लिए अकथनीय है, मैं वही सत्वित्-आनन्द स्वरूप परमात्मा ब्रह्म हूँ और अन्य दूसरा कुछ भी नहीं हूँ॥७-११॥ स्वयैव सूक्ष्मया बुद्धया सर्वं विज्ञातवाञ्छुकः । स्व वयं प्राप्ते परे वस्तुन्यविश्रान्तमनाः स्थितः ॥ १२॥ इदं वस्त्विति विश्वासं नासावात्मन्युपाययौ । केवलं विररामास्य चेतो विषयचापलम् । भोगेभ्यो भूरिभङ्गेभ्यो धाराभ्य इव चातकः ॥ १३॥ इस प्रकार अपनी सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा श्री शुकदेव मुनि ने सभी कुछ जान लिया तथा स्वयं प्राप्त हुए परमात्मतत्त्व में वे अविश्रान्त सतत लगे रहने वाले मन से प्रतिष्ठित हुए। इस प्रकार का विश्वास उनकी आत्मा में प्राप्त हो गया कि 'यही वस्तु है', इससे भिन्न और कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार जलद के धारा प्रपात से सन्तुष्ट हुए चातक की चंचलता दूर हो जाती है, उसी प्रकार शुकदेव जी का चित्त विभिन्न तरह के भोगों से प्रादुर्भूत विषय-चापल्य से विरत होकर कैवल्यावस्था को प्राप्त हो गया ॥ १२-१३॥ एकदा सोऽमलप्रज्ञो मेरावेकान्तसंस्थितः । पप्रच्छ पितरं भक्त्या कृष्णद्वैपायनं मुनिम् ॥ १४॥ संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं मुने । कथं च प्रशमं याति किं यत्कस्य कदा वद ॥ १५॥ एक बार उन प्रज्ञावान् मनीषी श्री शुकदेव जी ने मेरु-पर्वत पर एकान्त में प्रतिष्ठित अपने पिता श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनि के आश्रम में जाकर भक्तिपूर्वक अर्चना करके पूछा-हे श्रेष्ठ मुने! इस जगत् रूप प्रपञ्च का प्राकट्य किस प्रकार हुआ और इसका विनाश कैसे होता है? यह क्या है? किसका है और इसकी उत्पत्ति कब हुई? यह सभी कुछ कृपापूर्वक हमें बताने का अनुग्रह करें ॥ १४-१५॥ एवं पृष्टेन मुनिना व्यासेनाखिलमात्मजे । यथावदखिलं प्रोक्तं वक्तव्यं विदितात्मना ॥ १६॥ अज्ञासिषं पूर्वमेवमहमित्यथ तत्पितुः । स शुकः स्वकया बुद्धया न वाक्यं बहु मन्यते ॥ १७॥ व्यासोऽपि भगवान्बुद्ध्वा पुत्राभिप्रायमीदृशम् । प्रत्युवाच पुनः पुत्रं नाहं जानामि तत्त्वतः ॥ १८॥ जनको नाम भूपालो विद्यते मिथिलापुरे । यथावद्वेत्त्यसौ वेद्यं तस्मात्सर्वमवाप्स्यसि ॥ १९॥ पित्रेत्युक्तः शुकः प्रायात्सुमेरोर्वसुधातलम् । विदेहनगरीं प्राप जनकेनाभिपालिताम् ॥ २०॥ शुकदेव जी के इस प्रकार पूछे जाने पर आत्मज्ञानी व्यासजी ने उन्हें सभी बातें यथावत् बतला दीं, लेकिन ये सभी बातें तो दीर्घकाल से ही मालूम हैं, ऐसा जानकर शुकदेव जी ने अपने पिता श्रीव्यास जी की बातों को अपनी बुद्धि से वैसा विशेष सम्मान नहीं दिया। शुकदेव जी के इस भाव को व्यास जी समझकर बोले-हे पुत्र! मैं तुम्हारी इन सभी बातों को तत्त्वतः नहीं जानता हूँ। अतः यदि इस विषय की विशेष जानकारी चाहते हो, तो मिथिलापुरी में 'जनक' नाम के एक राजा राज्य करते हैं, वे तुम्हारी इन सभी बातों को अच्छी तरह से जानते हैं।' हे पुत्र! तुम उनसे सभी कुछ प्राप्त कर सकते हो।' पिता के द्वारा ऐसा कहे जाने पर शुकदेव जी सुमेरु पर्वत से उतर कर समतल भूखण्ड पर आये और महाराज जनक के द्वारा संरक्षित मिथिलापुरी में प्रविष्ट हुए ॥१६-२०॥ आवेदितोऽसौ याष्टीकैर्जनकाय महात्मने । द्वारि व्याससुतो राजञ्छुकोऽत्र स्थितवानिति ॥ २१॥ जिज्ञासार्थं शुकस्यासावास्तामेवेत्यवज्ञया । उक्त्वा बभूव जनकस्तूष्णीं सप्त दिनान्यथ ॥ २२॥ ततः प्रवेशयामास जनकः शुकमङ्गणे । तत्राहानि स सप्तैव तथैवावसदुन्मनाः ॥ २३॥ ततः प्रवेशयामास जनकोऽन्तः पुराजिरे । राजा न दृश्यते तावदिति सप्तदिनानि तम् ॥ २४॥ तत्रोन्मदाभिः कान्ताभिर्भोजनैर्भोगसंचयैः । जनको लालयामास शुकं शशिनिभाननम् ॥ २५॥ ते भोगास्तानि भोज्यानि व्यासपुत्रस्य तन्मनः । नाजह्युर्मन्दपवनो बद्धपीठमिवाचलम् ॥ २६॥ केवलं सुसमः स्वच्छो मौनी मुदितमानसः । सम्पूर्ण इव शीतांशुरतिष्ठदमलः शुकः ॥ २७॥ तदनन्तर शुकदेव मुनि को आया हुआ देखकर द्वारपालों ने राजा जनक को यह संदेश दिया कि हे राजन्! राजद्वार पर व्यास जी के पुत्र श्रीशुकदेव जी आपसे मिलने के लिए आये हैं, उन (शुकदेव) मुनि की परीक्षा के लिए महाराज जनक ने अवज्ञापूर्वक मात्र इतना ही कहा कि उनसे कहो कि वे वहीं पर रुकें', इतना कहने के उपरान्त राजा सात दिनों तक पूरी तरह से शान्त रहे। इसके पश्चात् उन्होंने शुकदेव मुनि को अपने राज-प्राङ्गण में आमन्त्रित किया और वहाँ भी वे सात दिनों तक उसी तरह शान्त रहे। इसके अनन्तर राजा ने उन्हें अपने अन्तःपुर के आँगन में ससम्मान बुलवाया तथा वहाँ पर भी सात दिनों तक वे उनके समक्ष नहीं आये। विदेहराज जनक ने अन्तःपुर में युवती स्त्रियों, विभिन्न तरह के सुस्वादु पकवान एवं भोज्य पदार्थों सहित उन श्रेष्ठ मुनि शुकदेव जी का स्वागत-सत्कार किया। वे समस्त भोग एवं भोज्य सामग्री उन व्यासपुत्र श्रीशुकदेव जी के मन को ठीक वैसे ही नहीं डिगा सके, जैसे कि मन्द मन्द प्रवाहित पवन दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित हुए पर्वत को गतिशील नहीं कर सकता। वहाँ उस अन्तःपुर में ज्ञानी शुकदेव जी असङ्ग, समभाव वाले, निर्मल एवं पूर्णचन्द्र के सदृश प्रतिष्ठित बने रहे ॥२१-२७॥ परिज्ञातस्वभावं तं शुकं स जनको नृपः । आनीय मुदितात्मानमवलोक्य ननाम ह ॥ २८ ॥ निःशेषितजगत्कार्यः प्राप्ताखिलमनोरथः । किमीप्सितं तवेत्याह कृतस्वागत आह तम् ॥ २९॥ संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं गुरो । कथं प्रशममायाति यथावत्कथयाशु मे ॥३०॥ यथावदखिलं प्रोक्तं जनकेन महात्मना । तदेव तत्पुरा प्रोक्तं तस्य पित्रा महाधिया ॥ ३१॥ स्वयमेव मया पूर्वमभिज्ञातं विशेषतः । एतदेव हि पृष्टेन पित्रा मे समुदाहृतम् ॥ ३२॥ भवताप्येष एवार्थः कथितो वाग्विदां वर । एष एव हि वाक्यार्थः शास्त्रेषु परिदृश्यते ॥ ३३॥ मनोविकल्पसंजातं तद्विकल्पपरिक्षयात् । क्षीयते दग्धसंसारो निःसार इति निश्चितः ॥ ३४॥ तत्किमेतन्महाभाग सत्यं ब्रूहि ममाचलम् । त्व वत्तो विश्रममाप्नोमि चेतसा भ्रमता जगत् ॥ ३५॥ इस प्रकार जब राजा जनक ने श्रीशुकदेवजी के चरित्र की भली-भाँति परीक्षा ले ली, तब उन्हें अपने समीप बुलाया। उन्हें प्रसन्नचित्त देखकर राजा ने प्रणाम किया और उनका सत्कार करते हुए बोले- हे शुकदेव जी! आपने अपने सांसारिक कृत्यों को समाप्त कर दिया है तथा आपको सभी मनोरथ प्राप्त हैं, कृपया बताने का अनुग्रह करें कि अब आपकी क्या अभिलाषा है? श्रीशुकदेव जी ने जिज्ञासा भाव से कहा- हे गुरुवर! कृपया मुझे यह बताने की कृपा करें कि यह सांसारिक प्रपञ्च कैसे प्रादुर्भूत हुआ है तथा किस तरह से विलय को प्राप्त होता है? तब महान् ज्ञानी राजा जनक ने श्रीशुकदेव जी को सभी बातें तत्त्वतः बतला दी, इन्हीं बातों को उनके परम ज्ञानवान् पिता श्रीव्यास जी पहले ही बता चुके थे। इस पर श्रीशुकदेव जी ने कहा- हे गुरुश्रेष्ठ! हमने स्वयं ही इसकी विशेष रूप से जानकारी प्राप्त की थी, पूछने पर हमारे पिता श्रीव्यास जी ने भी यही बातें बतलायी थी। आपने भी यही बातें हमें बतायी हैं तथा ठीक ऐसा ही शास्त्रों का भी मत है। मन के विकल्प से ही प्रपञ्च की उत्पत्ति होती है और उस विकल्प के विनष्ट हो जाने पर इस (प्रपञ्च) का भी विनाश हो जाता है। यह जगत् निन्दनीय एवं सार-रहित है, ऐसा निश्चित है, तब हे महान् ज्ञानी राजन् ! यह सब (जीवन आदि) क्या है? कृपा करके मुझे यथार्थ रूप से समझाने की कृपा करें। मेरा यह चित्त जगत् के विषय में दिग्भ्रान्त हो रहा है, अतः आपके सदुपदेश से ही शान्ति मिल सकती है॥२८-३५॥ श्रुणु तावदिदानीं त्वं कथ्यमानमिदं मया । श्रीशुकं ज्ञानविस्तारं बुद्धिसारान्तरान्तरम् ॥ ३६॥ यद्विज्ञानात्पुमान्सद्यो जीवन्मुक्तत्वमाप्नुयात् ॥ ३७॥ दृश्यं नास्तीति बोधेन मनसो दृश्यमार्जनम् । सम्पन्नं चेत्तदुत्पन्ना परा निर्वाणनिर्वृतिः ॥ ३८ ॥ अशेषेण परित्यागो वासनायां य उत्तमः । मोक्ष इत्युच्यते सद्भिः स एव विमलक्रमः ॥ ३९॥ ये शुद्धवासना भूयो न जन्मानर्थभागिनः । ज्ञातज्ञेयास्त उच्यन्ते जीवन्मुक्ता महाधियः ॥ ४०॥ पदार्थभावनादाय बन्ध इत्यभिधीयते । वासनातानवं ब्रह्मन्मोक्ष इत्यभिधीयते ॥ ४१॥ इसके पश्चात् राजा जनक ने कहा-हे शुकदेव जी ! अब मैं आपके प्रति सम्पूर्ण ज्ञान को विस्तारपूर्वक कहता हूँ- सुनो, यह ज्ञान समस्त ज्ञानों का सार एवं सभी रहस्यों का रहस्य है, अतः इसके जान लेने से वह पुरुष अतिशीघ्र मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। विदेहराज ने कहा कि यह दृश्य जगत् है ही नहीं, ऐसा पूर्ण बोध जब हो जाता है, तब दृश्य विषय से मन की शुद्धि हो जाती है। तब यह ज्ञान पूर्ण हो जाता है और तभी उसे निर्वाण रूपी परम शान्ति मिल जाती है। जो वासनाओं का निःशेष परित्याग कर देता है, वही वास्तविक श्रेष्ठ त्याग है, उसी विशुद्धावस्था को ज्ञानीजनों ने मोक्ष कहा है। पुनः जो शुद्ध वासनाओं से युक्त हैं, जो अनर्थ शून्य जीवन वाले हैं और जो ज्ञेय तत्त्व के ज्ञाता हैं, हे महान् ज्ञानी शुकदेव जी! वे ही मनुष्य पूर्ण जीवन्मुक्त कहे जाते हैं। पदार्थों की भावनात्मक दृढ़ता को ही बन्धन और वासनाओं की क्षीणता को ही मोक्ष कहा गया है॥३६-४१॥ तपः प्रभृतिना यस्मै हेतुनैव विना पुनः । भोगा इह न रोचन्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४२॥ आपतत्सु यथाकालं सुखदुःखेष्वनारतः । न हृष्यति ग्लायति यः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४३॥ हर्षामर्षभयक्रोधकामकार्पण्यदृष्टिभिः । न परामृश्यते योऽन्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४४॥ अहंकारमयीं त्यक्त्वा वासनां लीलयैव यः । तिष्ठति ध्येयसंत्यागी स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४५॥ जिसे तप आदि साधनों के अभाव में स्वभाववश ही सांसारिक भोग अच्छे नहीं लगते, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो प्रतिपल प्राप्त होने वाले सुखों या दुःखों में आसक्त नहीं होता तथा जो न हर्षित होता है और न ही दुःखी होता है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जो हर्ष, अमर्ष, भय, काम, क्रोध एवं शोक आदि विकारों से मुक्त रहता है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जो अहंकार युक्त वासना को अति सहजता से त्याग देता है तथा चित्त के अवलम्बन में जो सम्यक् रूप से त्याग भाव रखता है, वही वास्तव में जीवन्मुक्त कहलाता है॥४२- ४५॥ ईप्सितानीप्सिते न स्तो यस्यान्तर्वर्तिदृष्टिषु । सुषुप्तिवद्यश्चरति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४६॥ अध्यात्मरतिरासीनः पूर्णः पावनमानसः । प्रा राप्तानुत्तमविश्रान्तिर्न किंचिदिह वाञ्छति । यो जीवति गतस्नेहः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४७॥ संवेद्येन हृदाकाशे मनागपि न लिप्यते । यस्यासावजडा संवित्स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४८॥ रागद्वेषौ सुखं दुःखं धर्माधर्मो फलाफले । यः करोत्यनपेक्ष्यैव स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४९॥ मौनवान्निरहंभावो निर्मानो मुक्तमत्सरः । यः करोति गतोद्वेगः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५०॥ जो सदैव अन्तर्मुखी दृष्टिवाला, पदार्थ की आकांक्षा से रहित और किसी भी वस्तु की अपेक्षा अथवा कामना से रहित सुषुप्ति के समान अवस्था में विचरण करता रहता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त कहलाता है। जो सदैव आत्मा में लीन रहता है, जिसका मन पूर्ण एवं पवित्र है, अत्यन्त श्रेष्ठ एवं शान्त स्वभाव को प्राप्त कर जो इस नश्वर संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखता, जो किसी के प्रति आसक्ति न रखता हुआ उदासीन भाव से भ्रमण करता रहता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जिसका हृदय किसी भी पदार्थ में लिप्त नहीं होता तथा जो चेतन संवित् (सज्ञानयुक्त) स्वरूप वाला है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो पुरुष राग-द्वेष, सुख-दुःख, मान- अपमान, धर्म-अधर्म एवं फलाफल की इच्छा-आकांक्षा न रखता हुआ सदैव अपने कार्यों में व्यस्त रहता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त कहलाता है। जो अहंभाव को त्याग करके, मान एवं मत्सर से रहित, उद्वेगरहित तथा संकल्पविहीन रहकर कर्म करता रहता है, उसी पुरुष को ज्ञानीजन जीवन्मुक्त कहते हैं॥४६-५०॥ सर्वत्र विगतस्नेहो यः साक्षिवदवस्थितः । निरिच्छो वर्तते कार्ये स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५१॥ येन धर्ममधर्मं च मनोमननमीहितम् । सर्वमन्तः परित्यक्तं स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५२॥ यावती दृश्यकलना सकलेयं विलोक्यते । सा येन सुष्ठु संत्यक्ता स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५३॥ कट्टुम्ललवणं तिक्तममृष्टं मृष्टमेव च । सममेव च यो भुङ्क्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५४॥ जरामरणमापच्च राज्यं दारिद्यमेव च । रम्यमित्येव यो भुङ्क्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५५॥ धर्माधर्मो सुखं दुःखं तथा मरणजन्मनी । धिया येन सुसंत्यक्तं स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५६॥ उद्वेगानन्दरहितः समया स्वच्छया धिया । न शोचते न चोदेति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५७॥ जो सर्वत्र मोहरहित होकर साक्षी भाव से जीवनयापन करता है तथा बिना किसी फल की कामना किये ही अपने कर्तव्य कर्म में रत रहता है, वही जीवन्मुक्त है। जिसने धर्म-अधर्म का, सांसारिक विषय के चिन्तन का तथा सभी तरह की कामनाओं का परित्याग कर दिया है, उसे ही जीवन्मुक्त कहा गया है। यह समस्त दृश्य प्रपञ्च जो दृष्टिगोचर हो रहा है, उसका जिसने पूरी तरह से परित्याग कर दिया है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जो ज्ञानी पुरुष खट्टे, चरपरे, कड़वे, नमकीन, स्वादयुक्त एवं अस्वाद को एक जैसा मानकर भोजन ग्रहण करता है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जरा, मृत्यु, विपत्ति, राज्य एवं दारिद्य आदि में से जो समान भाव रखते हुए हर स्थिति में सन्तुष्ट रहता है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जिसने धर्म-अधर्म, सुख-दुःख एवं जन्म-मृत्यु आदि का अपने हृदय से पूर्णरूपेण परित्याग कर दिया है, वही वास्तव में जीवन्मुक्त कहलाता है॥५१-५६॥ सर्वेच्छाः सकलाः शङ्काः सर्वेहाः सर्वनिश्चयाः । धिया येन परित्यक्ताः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५८॥ जन्मस्थितिविनाशेषु सोदयास्तमयेषु च । सममेव मनो यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५९॥ न किंचन द्वेष्टि तथा न किंचिदपि काङ्क्षति । भुङ्क्ते यः प्रकृतान्भोगान्स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६०॥ शान्तसंसारकलनः कलावानपि निष्कलः । यः सचित्तोऽपि निश्चित्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६१॥ यः समस्तार्थजालेषु व्यवहार्यपि निःस्पृहः । परार्थेष्विव पूर्णात्मा स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६२॥ जो मनुष्य उद्वेग एवं आनन्द से रहित है तथा शोक और हर्षोल्लास में समान भाव एवं परिष्कृत बुद्धि से सम्पन्न है। सभी तरह की इच्छाओं एवं आकांक्षाओं, कामनाओं तथा सारे निश्चयों को जिसने मन से पूर्णतः त्याग दिया है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। उत्पत्ति, पालन एवं प्रलय की अवस्था में तथा प्रगति और अवनति में जिस पुरुष का मन समान रहता है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जो किसी के प्रति ईष्या-द्वेष आदि के भाव नहीं रखता है, जो न किसी की इच्छा-आकांक्षा करता है। जो केवल प्रारब्धवश प्राप्त भोगों का उपभोग करने वाला है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जिसने सांसारिक विषयों की प्राप्ति की कामना को त्याग दिया है, जो चित्त में रहते हुए भी चित्तरहित हो गया है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो पुरुष जगत् के सम्पूर्ण अर्थ जाल के बीच में प्रतिष्ठित होकर भी उससे पराये धन से अलग रहने वाले धर्मात्मा के सदृश अनासक्त रहता है, निश्चय ही वह आत्मा में ही परमात्मतत्त्व की अनुभूति करने वाला महान् पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है॥५७-६२॥ जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते । विशत्यदेहमुक्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥ ६३॥ विदेहमुक्तो नोदेति नास्तमेति न शाम्यति । न सन्नासन्न दूरस्थो न चाहं न च नेतरः ॥ ६४॥ वह पुरुष अपने शरीर के काल-कवलित हो जाने के पश्चात्जी जीवन्मुक्त स्थिति का परित्याग करके गतिहीन पवन के सदृश विदेहमुक्त स्थिति को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में जीव की न तो उन्नति होती है। और न ही अवनति तथा उसका विनाश भी नहीं होता। उसकी वह अवस्था सत्-असत् से परे होती है और वह किसी के दूरस्थ-समीपस्थ भी नहीं होता ॥ ६३-६४॥ ततः स्तिमितगंभीरं न तेजो न तमस्ततम् । अनाख्यमनभिव्यक्तं सत्किंचिदवशिष्यते ॥ ६५॥ न शून्यं नापि चाकारो न दृश्यं नापि दर्शनम् । न च भूतपदार्थोघसदनन्ततया स्थितम् ॥ ६६॥ किमप्यव्यपदेशात्मा पूर्णात्पूर्णतराकृतिः । न सन्नासन्न सदसन्न भावो भावनं न च ॥ ६७॥ चिन्मात्रं चैत्यरहितमनन्तमजरं शिवम् । अनादिमध्यपर्यन्तं यदनादि निरामयम् ॥ ६८ ॥ विदेहमुक्ति गम्भीर एवं स्तब्ध अवस्था को कहते हैं। उस अवस्था में न सर्वत्र प्रकाश व्याप्त होता है और न ही अन्धकार। उसमें नामविहीन एवं अभिव्यक्त न होने वाला एक तरह का सत् तत्त्व अवशिष्ट रहता है। वह शून्य एवं साकार भी नहीं होता है। दृश्य एवं दर्शन रूप भी नहीं होता है। उसमें ये भूत एवं पदार्थ- समूह भी नहीं होते हैं। केवल वह सत् अन्तरहित स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है। वह ऐसा आश्चर्ययुक्त तत्त्व होता है कि जिसके रूप का निर्देशन नहीं किया जा सकता है। उसकी आकृति एवं प्रकृति पूर्ण से भी पूर्णतर होती है। वह न सत् होता है और न असत् तथा सत्-असत् दोनों भी नहीं होता। वह भाव एवं भावना से परे होता है। वह मात्र चैतन्य ही होता है; किन्तु चित्तविहीन एवं अनन्त भी होता है। वह जरारहित, शिवस्वरूप एवं आत्मकल्याण प्रद होता है। उसका आदि, मध्य एवं अन्त भी नहीं होता। वह अनादि एवं दोषरहित होता है॥ ६५- ६८॥ द्रष्टृदर्शनदृश्यानां मध्ये यद्दर्शनं स्मृतम् । नातः परतरं किंचिन्निश्चयोऽस्त्यपरो मुने ॥ ६९॥ स्वयमेव त्वया ज्ञातं गुरुतश्च पुनः श्रुतम् । स्वसंकल्पवशाद्बद्धो निःसंकल्पाद्विमुच्यते ॥ ७० ॥ तेन स्वयं त्वया ज्ञातं ज्ञेयं यस्य महात्मनः । भोगेभ्यो ह्यरतिर्जाता दृश्याद्वा सकलादिह ॥ ७१॥ प्राप्तं प्राप्तव्यमखिलं भवता पूर्णचेतसा । स्वरूपे तपसि ब्रह्मन्मुक्तस्त्वं भ्रान्तिमुत्सृज ॥ ७२॥ अतिबाह्यं तथा बाह्यमन्तराभ्यन्तरं धियः । शुक पश्यन्न पश्येस्त्वं साक्षी सम्पूर्णकेवलः ॥ ७३॥ द्रष्टा, दृश्य एवं दर्शन की त्रिपुटी के मध्य में मात्र वह दर्शन स्वरूप ही कहा गया है। हे श्रीशुकदेव जी! इस सन्दर्भ में इसके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा निश्चय नहीं किया जा सकता। आपने इस तत्त्वज्ञान को स्वयमेव समझ लिया है और अपने पिता श्रीव्यास जी से भी श्रवण कर लिया है कि जीव अपनी संकल्प शक्ति से ही बन्धन में पड़ता है और संकल्प से ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतः आपने स्वयं ही उस तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लिया है, जिसे जानने के पश्चात् इस नश्वर जगत् में साधुजनों को सभी दृश्यों से अथवा भोगों से विरक्ति पैदा हो जाती है। आपने पूर्ण चैतन्यावस्था में पहुँच कर सभी प्राप्त होने वाले पदार्थों को भी प्राप्त कर लिया है। आप तपःस्वरूप में स्थित हैं। हे ब्रह्मन्! आप मुक्तावस्था को प्राप्त हो चुके हैं, अतः भ्रान्ति का परित्याग कर दें। हे शुकदेव जी! बाह्य एवं अति बाह्य, अन्तः में एवं उसके भी अन्तरंग को देखते हुए भी आप नहीं देखते हैं। आप सर्वदा पूर्ण कैवल्यावस्था में साक्षी भाव से विद्यमान हैं॥६९-७३॥ विशश्राम शुकस्तूष्णीं स्वस्थे परमवस्तुनि । वीतशोकभयायासो निरीहश्छिन्नसंशयः ॥ ७४॥ जगाम शिखरं मेरोः समाध्यर्थमखण्डितम् ॥ ७५॥ तत्र वर्षसहस्राणि निर्विकल्पसमाधिना । देशे स्थित्वा शशामासावात्मन्यस्नेहदीपवत् ॥ ७६॥ व्यपगतकलनाकलङ्कशुद्धः स्वयममलात्मनि पावने पदेऽसौ । सलिलकण इवांबुधौ महात्मा विगलितवासनमेकतां जगाम ॥ ७७॥ विदेहराज जनक के इस तत्त्वदर्शन को सुनने के पश्चात् श्रीशुकदेव शोक, भय एवं श्रमविहीन होकर, संशयरहित और कामनारहित होकर परमतत्त्वरूप आत्मा में स्थित होकर शान्त भाव से विश्राम को प्राप्त हुए। अखण्ड समाधि हेतु वे सुमेरु पर्वत की चोटी की ओर वापस चले गये। वहाँ सहस्रों वर्षों तक नेहरहित दीपक के सदृश उन शुकदेव मुनि ने अन्तर्मुखी होकर निर्विकल्प समाधि द्वारा परमशान्ति लाभ प्राप्त किया। संकल्प रूपी दोषों से मुक्त, शुद्ध स्वरूप, पवित्र, निर्मल एवं वासना रहित होकर वे महान् ज्ञानी शुकदेव जी अपने आत्मपद में वैसे ही एकाकार हुए, जैसे कि जलकण महासागर में विलीन होकर समुद्र रूप हो जाते हैं॥७४-७७॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ ॥ द्वितीय अध्याय समात ॥

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