Kenopanisad Volume 3 (केनोपनिषद) तृतीय खण्ड

॥ श्री हरि ॥ ॥केनोपनिषद ॥ ॥ अथ तृतीयं खण्डः ॥ तृतीय खण्ड ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त ॥१॥ निश्चय ही, ब्रह्म ने देवताओं के लिए विजय प्राप्त की, उस ब्रह्म की विजय में देवता महिमायुक्त हुए अर्थात देवताओं को गौरव प्राप्त हुआ। ॥१॥ त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति । तद्वैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति ॥ २॥ उन देवों ने यह विचारा किया कि यह विजय हमारी ही तथा यह विजय केवल हमारी ही महिमा से प्राप्त हुई है। वह ब्रह्म इन देवों के अभिमान को जान गया और तब वह इन पर यक्षरूप में प्रकट हुआ, परन्तु देवता उसे न जाना पाए कि यह यक्ष अर्थात् पूजनीय कौन है। अर्थात् परमात्मा ने अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, आकाश पञ्च भूतों से सृष्टि की रचना कर, अग्नि आदि देवों में शक्ति स्थापित की। परन्तु देवों ने समझा कि यह जगत् की रचना हमारी ही महिमा है। हम से भिन्न कोई अन्य ईश्वर नहीं है। तब ब्रह्म स्वयं यक्षरूप में देवताओं के समक्ष प्रकट हुए, परन्तु देवता उनको पहचान नहीं पाए। ॥२॥ तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥३॥ उन देवताओं ने अग्नि से कहा: हे जातवेद ! यह पता करो कि यह यक्ष कौन है ? अग्नि ने कहा-बहुत अच्छा। ॥३॥ तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीत्यग्निर्वा अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥ ४॥ तब दौड़ कर अग्नि यक्षरुपी ब्रह्म के पास पहुंचे, यक्ष ने अग्नि से पूछा कि तू कौन है ? वह बोला-मैं अग्नि हूँ, मैं निश्चय ही जातवेदा हूँ। ॥४॥ तस्मिः स्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदः सर्वंदहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥५॥ यक्ष ने पूछाः अच्छा! तुझ में क्या शक्ति है? अग्नि ने कहा कि पृथ्वी की सम्पूर्ण चीजों को मैं जला सकता हूँ, मेरे अन्दर यह शक्ति है। ॥५॥ तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ ६॥ ऐसा समझ कर यक्ष ने अग्निदेव के सामने एक तिनका रखा और कहा कि इसे जला! अग्निदेव पूरे वेग से उसके पास गए परन्तु अपनी सारी शक्ति लगा कर भी उसको न जला सके और वहीं से लौट कर देवताओं के समक्ष बोले कि मैं इसको न जान सका कि यह यक्ष कौन है। ॥६॥ अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥ ७॥ देवता तब वायुदेव से बोले कि हे वायो ! तुम जाकर देखो कि यह यक्ष कौन है। वायु ने कहा-बहुत अच्छा । ॥७॥ तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥ वायुदेव दौड़ कर यक्षरुपी ब्रह्म के पास पहुंचे, यक्ष ने उससे पूछा कि तू कौन है ? उसने कहा- मैं वायु हूँ, मैं निश्चय मातरिश्वा ही हूँ। ॥८॥ तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदें सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥९॥ यक्ष ने पूछाः अच्छा! तुझ में क्या शक्ति है? वायुदेव ने कहा-जो कुछ पृथ्वी पर है मैं सबको उड़ा सकता हूँ मुझ में यह शक्ति है। ॥९॥ तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकादातुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ १०॥ यक्ष ने उनके आगे वही एक तिनका रखा, और कहा इसको उड़ा कर दिखाओ। वायुदेव अपने पूरे वेग से उसके तिनके के पास पहुंचे, परन्तु उस तिनके को उड़ा नहीं सके। तब वह वहीं से लौट पड़े और देवताओं से बोले कि मैं इसको नहीं जान सका जो यह यक्ष है। ॥१०॥ - अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥ ११॥ समस्त देवताओं ने तब इन्द्र से प्रार्थना कि हे मघवन् ! देखो तो सही यह यक्ष कौन है-इन्द्र ने कहा बहुत अच्छा। वह दौड़ कर उस यक्षरुपी ब्रह्म के पास गए, परन्तु वह इंद्र के सामने से अंतर्ध्यान हो गए। ॥११॥ स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥ १२॥ वह इन्द्र उसी आकाश में अति शोभावाली सुवर्ण से भूषिता उमा नामक (पार्वती रूपिणी ब्रह्मविद्या) स्त्री से मिले और उससे पूछा कि यह यक्ष कौन है ? ॥१२॥ आशय यह है कि स्थूल इन्द्रियां कभी ब्रह्म को प्राप्त कर ही नहीं सकतीं, किन्तु आत्मा भी बिना सूक्ष्म बुद्धि की सहायता के उस अविनाशी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकती। इससे से यह भी विदित होता है कि तत्वों में प्रधान अग्नि और वायु तत्व भी उसी परमपिता ब्रह्मरूप परमात्मा के सामर्थ्य से शक्ति प्राप्त करते हैं अन्यथा स्वयं इनमें एक तिनके को जलाने और उड़ाने तक का सामर्थ्य नहीं है। ॥ इति केनोपनिषदि तृतीयः खण्डः ॥ ॥ तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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