ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १०५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १०५ ऋषि-त्रित आप्त्य; कुत्स अंगिरसः: देवता- विश्वेदेवा । छंद पंक्ति, ८ यवमध्या महावृहती, १९ त्रिष्टुप - चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि । न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१॥ अन्तरिक्ष में चन्द्रमा तथा द्युलोक में सूर्य दौड़ रहे हैं। (हे विज्ञपुरुषो !) तुम्हारा स्तर सुनहरी धार वाली विद्युत् को जानने योग्य नहीं है। हे द्युलोक एवं भूलोक ! आप हमारे भावों को समझें । (हमें उनका बोध करने की सामर्थ्य प्रदान करें) ॥१॥ अर्थमिद्वा उ अर्थिन आ जाया युवते पतिम् । तुज्ञ्जाते वृष्ण्यं पयः परिदाय रसं दुहे वित्तं मे अस्य रोदसी ॥२॥ उद्देश्य पूर्ण कार्य करने वाले अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर लेते हैं। पत्नी उपयुक्त पति को पा लेती हैं। दोनों मिलकर (उद्देश्य पूर्वक) संतान प्राप्त कर लेते हैं। हे द्युलोक एवं पृथिवी देवि ! आप हमारी भावना समझे (हमारे लिए उत्कृष्ट उत्पादन बढ़ाएँ) ॥२॥ मो षु देवा अदः स्वरव पादि दिवस्परि । मा सोम्यस्य शम्भुवः शूने भूम कदा चन वित्तं मे अस्य रोदसी ॥३॥ हे देवगण ! हमारी तेजस्विता कभी भी स्वर्गलोक से निम्नगामी न हो अर्थात् हमारा लक्ष्य सदा ऊँचा हो। आनन्द प्रदायक सोम से रहित स्थान पर कभी भी हमारा निवास न रहे। हे द्युलोक और भूलोक ! आप हमारी इस प्रार्थना के अभिप्राय को समझें ॥३॥ यज्ञं पृच्छाम्यवमं स तद्भूतो वि वोचति । क्व ऋतं पूर्वं गतं कस्तद्विभर्ति नूतनो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥४॥ हम समुपस्थित यज्ञाग्नि से प्रश्न करते हैं, वे देवदूत अग्निदेव उत्तर दें, कि प्राचीन सरलभाव रूपी शाश्वत नियमों का कहाँ लोप हो गया ? नवीन पुरुष कौन उन प्राचीन नियमों का निर्वाह करते हैं ? हे पृथिवि और द्युलोक ! हमारी इस महत्वपूर्ण जिज्ञासा को जाने और शान्त करें ॥४॥ अमी ये देवाः स्थन त्रिष्वा रोचने दिवः । कद्व ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ॥५॥ हे देवो ! तीनों (पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं द्युलोक) में से आपका वास द्युलोक में है। आपका त वास्वविक रूप क्या है ? अमृत (माया युक्त) रूप कहाँ है? आपने प्रारंभ में (सृजन यज्ञ में) जो आहुति डाली, वह कहाँ है ? द्युलोक एवं पृथ्वी हमारे भावों को समझें (और पूर्ति करें ) ॥५॥ कद्व ऋतस्य धर्णसि कद्वरुणस्य चक्षणम् । कदर्यम्णो महस्पथाति क्रामेम दूढ्यो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥६॥ आपके श्रेष्ठ सत्य का निर्वाह करने वाले नियम कहाँ हैं ? वरुण की व्यवस्थादृष्टि कहाँ है ? सर्वश्रेष्ठ अर्यमा के मार्ग कौन-कौन से हैं? जिससे हम दुष्टजनों से राहत पा सकें। हे द्युलोक और पृथिवि ! हमारी इस जिज्ञासा के अभिप्राय को समझें ॥६॥ अहं सो अस्मि यः पुरा सुते वदामि कानि चित् । तं मा व्यन्त्याध्यो वृको न तृष्णजं मृगं वित्तं मे अस्य रोदसी ॥७॥ पिछले यज्ञ में सोमनिष्पादन काल में स्तोत्रों का पाठ हमने किया था, लेकिन अब मानसिक व्यथाएँ भेड़िये द्वारा प्यासे हरिण को खाये जाने के समान हो, हमें व्यथित किये हुए हैं। हे द्यावापृथिवी देवि ! हमारी इन व्यथाओं को समझें और दूर करें ॥७॥ सं मा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवः । मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥८॥ दो सौतों (पत्नियों) की तरह हमारे पाश्र्व (बाजू) में रहने वाली कामनाएँ हमें सता रही हैं। हे शतक्रतो! जिस प्रकार चूहे माड़ी लगे धागों को खा जाते हैं, वैसे ही आपकी स्तुति करने वालों को भी मन की पीड़ाएँ सता रही हैं। हे द्यावापृथिवीं देवि ! हमारी इन व्यथाओं को समझें और दूर करें ॥८॥ अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभिरातता । त्रितस्तद्वेदाप्त्यः स जामित्वाय रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ॥९॥ ये सात रंगो वाली सूर्य की किरणें जहाँ तक हैं, वहाँ तक हमारा नाभि क्षेत्र (पैतृक प्रभाव) फैला हैं। इसका ज्ञान जल के पुत्र 'त्रित' को है। अतएव प्रीतियुक्त मैत्री भाव हेतु हम प्रार्थना करते हैं। हे द्यावापृथिवि! आप हमारी इन प्रार्थनाओं के अभिप्राय को समझें ॥९॥ अमी ये पञ्चोक्षणो मध्ये तस्थुर्महो दिवः । देवत्रा नु प्रवाच्यं सध्रीचीना नि वावृतुर्वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१०॥ (कामनाओं) की वर्षा करने वाले ये पाँच शक्तिशाली देव (अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्रमा और विद्युत् विस्तृत चुलोक में स्थित हैं। देवों में प्रशंसनीय ये देवगण आवाहन करते ही पूजा ग्रहण करने के लिए उपस्थित हो जाते हैं। इसके बाद तृप्त होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं। अर्थात् मन के साथ ये इन्द्रियाँ भी उपासना में तल्लीन हो जाती हैं। हे द्युलोक और पृथिवि ! आप हमारी इस प्रार्थना के अभिप्राय को जानें ॥१०॥ सुपर्णा एत आसते मध्य आरोधने दिवः । ते सेधन्ति पथो वृकं तरन्तं यहृतीरपो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥११॥ सर्वव्यापी आकाश में सूर्य की रश्मियाँ हैं। विशाल जलराशि पार करते समय, मार्ग में, सूर्य-रश्मियाँ अरण्यकुक्कूर या वृक को निवारण करती हैं। द्यावा-पृथिवी, मेरा यह विषय जानो ॥११॥ नव्यं तदुक्थ्यं हितं देवासः सुप्रवाचनम् । ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१२॥ देवगण, तुम्हारे भीतर वह नव्य, प्रशंसनीय और सुवाच्य बल है। उसके द्वारा वहनशील नदियाँ सदा जल-संचालन करतीं और सूर्य अपना सर्वदा विद्यमान आलोक विस्तार करते हैं। द्यावा-पृथिवी, मेरा यह विषय जानो ॥१२॥ अग्ने तव त्यदुक्थ्यं देवेष्वस्त्याप्यम् । स नः सत्तो मनुष्वदा देवान्यक्षि विदुष्टरो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१३॥ अग्नि, देवों के साथ तुम्हारा वही प्रशंसनीय बन्धुत्व है। तुम अत्यन्त विद्वान् हो । मनु के यज्ञ की तरह हमारे यज्ञ में बैठकर देवों का यज्ञ करो । द्यावा-पृथिवी, मेरा यह विषय जानो ॥१३॥ सत्तो होता मनुष्वदा देवाँ अच्छा विदुष्टरः । अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१४॥ मनु के यज्ञ की तरह हमारे यज्ञ में बैठकर देवों के आह्वानकारी, अतिशय विद्वान् और देवों में मेधावी अग्निदेव देवों को हमारे हव्य की ओर शास्त्रानुसार प्रेरणा करें। द्यावा-पृथ्वी, मेरा यह विषय जानो ॥१४॥ ब्रह्मा कृणोति वरुणो गातुविदं तमीमहे । व्यूर्णोति हृदा मतिं नव्यो जायतामृतं वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१५॥ वरुण रक्षा-कार्य करते हैं। उन (वरुण) मार्ग-दर्शक के पास हम याचना करते हैं। अन्तःकरण से स्तोता वरुण को लक्ष्य कर मननीय स्तुति का प्रचार करता है। वही स्तुति-पात्र वरुण हमारे सत्य-स्वरूप हों। धावा-पृथिवी, मेरा यह विषय जानो ॥१५॥ असौ यः पन्था आदित्यो दिवि प्रवाच्यं कृतः । न स देवा अतिक्रमे तं मर्तासो न पश्यथ वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१६॥ यह जो सूर्य, आकाश में, सर्व-सिद्ध पथ-स्वरूप हैं, देवगण, उन्हें तुम लोग नहीं लाँध सकते । मनुष्यगण, तुम लोग नहीं उन्हें जानते । द्यावा-पृथिवी, मेरा यह विषय जानो ॥१६॥ त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये । तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१७॥ पाप रूपी कुएं में गिरे हुए 'त्रित' ने अपनी सुरक्षा के लिए देवताओं का आवाहन किया । ज्ञान रूपी बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना को सुनकर, 'त्रित को पाप रूपी कुएँ से निकालकर कष्टों से मुक्ति पाने का व्यापक मार्ग खोल दिया। हे द्युलोक और पृथिवी देवि ! आप हमारी इस प्रार्थना पर ध्यान दें ॥१७॥ अरुणो मा सकृदृकः पथा यन्तं ददर्श हि । उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१८॥ पीठ के रोगी बढ़ई की तरह (टेढ़ा) चन्द्रमा अपने मार्ग पर चलता हुआ हमें नित्य देखता है। वह नीचे की ओर जाकर (अस्त होकर) पुनः उदित होता है। हे द्यावापृथिवी देवि ! आप हमारी इस स्थिति पर ध्यान दें ॥१८॥ एनाङ्‌गुषेण वयमिन्द्रवन्तोऽभि ष्याम वृजने सर्ववीराः । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥१९॥ इन्द्रदेव तथा सभी वीर पुरुषों से युक्त होकर हम इस स्तोत्र से संग्राम में शत्रुओं को पराजित करें। मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और द्युलोक सभी देव हमारे इस स्तोत्र का अनुमोदन करें ॥१९॥

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