ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ५८

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त ५८ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता–अग्नि, सूर्यो । छंद - त्रिष्टुप, ११ जगती समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ उदारदुपांशुना सममृतत्वमानट् । घृतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभिः ॥१॥ समुद्र से मधुर लहर ऊपर को उद्भूत होती है, वह सोमरस के संग अमृतत्व को प्राप्त हो गयी। घृत (तेज) का जो रहस्यपूर्ण रूप है, वह देवताओं की जिह्वा तथा अमृत की नाभि है ॥१॥ वयं नाम प्र ब्रवामा घृतस्यास्मिन्यज्ञे धारयामा नमोभिः । उप ब्रह्मा शृणवच्छस्यमानं चतुः शृङ्गोऽवमीद्गौर एतत् ॥२॥ हम याजक उस घृत की स्तुति करते हैं। इस यज्ञ मण्डप में नमन के द्वारा हम उसे धारण करते हैं। हमारे द्वारा गान किये जाने वाले स्तवनों को ब्रह्मा जी श्रवण करें। चार वेदरूपी श्रृंग वाले गौर वर्ण देव ने इस जगत् का सृजन किया ॥२॥ चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश ॥३॥ इस यज्ञाग्नि देव के चार सींग हैं और तीन पैर, दो सिर तथा सात हाथ हैं। वे बलशाली देव तीन तरह से बद्ध होकर ध्वनि करते हैं तथा मनुष्यों के बीच में प्रवेश करते हैं ॥३॥ त्रिधा हितं पणिभिर्गुह्यमानं गवि देवासो घृतमन्वविन्दन् । इन्द्र एकं सूर्य एकं जजान वेनादेकं स्वधया निष्टतक्षुः ॥४॥ देवताओं ने पणियों के द्वारा गौओं के बीच तीन तरह से छिपाकर रखे हुए घृत (तेज) को ज्ञात कर लिया। उनमें से प्रथम को इन्द्रदेव ने पैदा किया, दूसरे को आदित्यदेव ने पैदा किया तथा तीसरे को देवताओं ने अपने बल के द्वारा ओजस्वी अग्नि से उत्पन्न किया ॥४॥ एता अर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नावचक्षे । घृतस्य धारा अभि चाकशीमि हिरण्ययो वेतसो मध्य आसाम् ॥५॥ ये धाराएँ मनोहर समुद्र से सैकड़ों गतियों से प्रवाहित हो रही हैं। रिपु उसे देख नहीं सकते । घृत की उन धाराओं को हम देख सकते हैं। उन धाराओं के बीच में विद्यमान अग्नि को भी हम देख सकते हैं ॥५॥ सम्यक्स्रवन्ति सरितो न धेना अन्तर्हदा मनसा पूयमानाः । एते अर्षन्त्यूर्मयो घृतस्य मृगा इव क्षिपणोरीषमाणाः ॥६॥ अन्तःकरण के बीच से निकलकर तथा चित्त के द्वारा शुद्ध की गयी तेज की धाराएँ हर्षप्रदायक सरिताओं के सदृश भली-भाँति प्रवाहित होती हैं। जिस प्रकार शिकारी से भयभीत होकर हिरण भागते हैं, उसी प्रकार घृत की धाराएँ तीव्र गति से प्रवाहित होती हैं ॥६॥ सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमियः पतयन्ति यह्वाः । घृतस्य धारा अरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दन्नूर्मिभिः पिन्वमानः ॥७॥ जिस प्रकार नदी का जल नीचे की ओर तेजी से गमन करता है, उसी प्रकार वायु के समान बलशाली होकर घृत की बड़ी धाराएँ द्रुतगति से गमन करती हैं। तेजस्वी अश्वों के समान ये घृत धाराएँ अपनी परिधि को भेद करके लहरों के द्वारा वर्धित होती हैं ॥७॥ अभि प्रवन्त समनेव योषाः कल्याण्यः स्मयमानासो अग्निम् । घृतस्य धाराः समिधो नसन्त ता जुषाणो हर्यति जातवेदाः ॥८॥ जिस प्रकार समान विचार वाली तथा हँसने वाली स्त्रियाँ अपने पति के पास गमन करती हैं, उसी प्रकार घृत की धाराएँ अग्नि की ओर गमन करती हैं। ये घृत-धाराएँ प्रज्वलित होकर सब जगह व्याप्त होती हैं। वे जातवेदा अग्निदेव हर्षित होकर उन धाराओं की इच्छा करते हैं ॥८॥ कन्या इव वहतुमेतवा उ अञ्ज्यञ्जाना अभि चाकशीमि । यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञो घृतस्य धारा अभि तत्पवन्ते ॥९॥ जहाँ सोमरस अभिषुत किया जाता है तथा यज्ञ सम्पन्न किया जाता है, वहाँ पर ये घृत-धाराएँ उसी प्रकार प्रवाहित होती हैं, जिस प्रकार पति (वर) के समीप जाने के लिए कन्याएँ अलंकृत होती हैं। उन घृत- धाराओं को हम देखते हैं ॥९॥ अभ्यर्षत सुष्टुतिं गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि धत्त । इमं यज्ञं नयत देवता नो घृतस्य धारा मधुमत्पवन्ते ॥१०॥ हे याजको ! देवताओं के लिए आप श्रेष्ठ स्तुतियाँ करें। हे देवताओ ! हम याजकों के लिए आप प्रशंसनीय ऐश्वर्य, गौ तथा विजय धारण करें। हमारे इस यज्ञ को आप देवताओं के समीप पहुँचाएँ । घृत की मधुर धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं ॥१०॥ धामन्ते विश्वं भुवनमधि श्रितमन्तः समुद्रे हृद्यन्तरायुषि । अपामनीके समिथे य आभृतस्तमश्याम मधुमन्तं त ऊर्मिम् ॥११॥ हे परमात्मन् ! आपका तेज समुद्र के बीच में बड़वाग्नि के रूप में, आकाश में सूर्यदेव के रूप में, हृदय के बीच में वैश्वानर के रूप में, अन्न में प्राण के रूप में, जल में विद्युत् के रूप में तथा युद्ध में शौर्याग्नि के रूप में विद्यमान है। समस्त लोक आपके आश्रित हैं। आपके उस मिठास से पूर्ण रस का उपयोग करने में हम समर्थ हों ॥११॥ ॥ इति चतुर्थ मण्डलं ॥

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