ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३४ ऋषि - हिरण्यस्तूप अंगीरसः देवता- आश्विनौ । छंद - जगती, ९, १२ - त्रिष्टुप त्रिश्चिन्नो अद्या भवतं नवेदसा विभुर्वां याम उत रातिरश्विना । युवोर्हि यन्त्रं हिम्येव वाससोऽभ्यायंसेन्या भवतं मनीषिभिः ॥१॥ हे ज्ञानी अश्विनीकुमारो ! आज आप दोनों यहाँ तीन बार (प्रातः, मध्याह्न, सायं) आयें। आप के रथ और दान बड़े महान् हैं। सर्दी की रात एवं आतपयुक्त दिन के समान आप दोनों का परस्पर नित्य सम्बन्ध है। विद्वानों के माध्यम से आप हमें प्राप्त हों ॥१॥ त्रयः पवयो मधुवाहने रथे सोमस्य वेनामनु विश्व इद्विदुः । त्रयः स्कम्भासः स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥२॥ मधुर सोम को वहन करने वाले रथ में वज्र के समान सुदृढ़ तीन पहिये लगे हैं। सभी लोग आपकी सोम के प्रति तीव्र उत्कंठा को जानते हैं। आपके रथ में अवलम्बन के लिये तीन खम्भे लगे हैं। हे अश्विनीकुमारो ! आप उस रथ से तीन बार रात्रि में और तीन बार दिन में गमन करते हैं॥२॥ समाने अहन्त्रिरवद्यगोहना त्रिरद्य यज्ञं मधुना मिमिक्षतम् । त्रिर्वाजवतीरिषो अश्विना युवं दोषा अस्मभ्यमुषसश्च पिन्वतम् ॥३॥ हे दोषों को ढूंकने वाले अश्विनीकुमारो ! आज हमारे यज्ञ में दिन में तीन बार मधुर रसों से सिंचन करें। प्रातः, मध्याह्न एवं सायं तीन प्रकार के पुष्टिवर्धक अन्न हमें प्रदान करें ॥३॥ त्रिर्वर्तिर्यातं त्रिरनुव्रते जने त्रिः सुप्राव्ये त्रेधेव शिक्षतम् । त्रिर्नान्यं वहतमश्विना युवं त्रिः पृक्षो अस्मे अक्षरेव पिन्वतम् ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो ! हमारे घर आप तीन बार आयें । अनुयायी जनों को तीन बार सुरक्षित करें, उन्हें तीन बार तीन विशिष्ट ज्ञान करायें। सुखप्रद पदार्थों को तीन बार इधर हमारी ओर पहुँचायें । बलप्रदायक अन्नों को प्रचुर परिमाण में देकर हमें सम्पन्न करें ॥४॥ त्रिर्नो रयिं वहतमश्विना युवं त्रिर्देवताता त्रिरुतावतं धियः । त्रिः सौभगत्वं त्रिरुत श्रवांसि नस्त्रिष्ठं वां सूरे दुहिता रुहद्रथम् ॥५॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों हमारे लिए तीन बार धन इधर लायें । हमारी बुद्धि को तीन बार देवों की स्तुति में प्रेरित करें। हमें तीन बार सौभाग्य और तीन बार यश प्रदान करें। आपके रथ में सूर्य-पुत्री (उषा) विराजमान हैं॥५॥ त्रिर्नो अश्विना दिव्यानि भेषजा त्रिः पार्थिवानि त्रिरु दत्तमद्भयः । ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवे त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती ॥६॥ हे शुभ कर्मपालक अश्विनीकुमारो ! आपने तीन बार हमें (द्युस्थानीय) दिव्य ओषधियाँ, तीन बार पार्थिव ओषधियाँ तथा तीन बार जलौषधियाँ प्रदान की हैं। हमारे पुत्र को श्रेष्ठ सुख एवं संरक्षण दिया है और तीन धातुओं (वात-पित्त-कफ) से मिलने वाला सुख, आरोग्य एवं ऐश्वर्य भी प्रदान किया है॥६॥ त्रिर्नो अश्विना यजता दिवेदिवे परि त्रिधातु पृथिवीमशायतम् । तिस्रो नासत्या रथ्या परावत आत्मेव वातः स्वसराणि गच्छतम् ॥७॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप नित्य तीन बार यजन योग्य हैं। पृथ्वी पर स्थापित वेदी के तीन ओर आसनों पर बैठे। हे असत्यरहित रथारूढ़ देवो ! प्राणवायु और आत्मा के समान दूर स्थान से हमारे यज्ञों में तीन बार आयें ॥७॥ त्रिरश्विना सिन्धुभिः सप्तमातृभिस्त्रय आहावास्त्रेधा हविष्कृतम् । तिस्रः पृथिवीरुपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरक्तुभिर्हितम् ॥८॥ हे अश्विनीकुमारो ! सात मातृभूत नदियों के जलों से तीन बार तीन पत्र भर दिये हैं। हवियों को भी तीन भागों में विभाजित किया है। आकाश में ऊपर गमन करते हुए आप तीनों लोकों की दिन और रात्रि में रक्षा करते हैं ॥८॥ क्व त्री चक्रा त्रिवृतो रथस्य क्व त्रयो वन्धुरो ये सनीळाः । कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञं नासत्योपयाथः ॥९॥ अश्विनीकुमारों के रहस्यमय रथ - यान का वर्णन करते हुए कहा गया है हे सत्यनिष्ठ अश्विनीकुमारो ! आप जिस रथ द्वारा यज्ञ-स्थल में पहुँचते हैं, उस तीन छोर वाले रथ के तीन चक्र कहाँ हैं? एक ही आधार पर स्थापित होने वाले तीन स्तम्भ कहाँ हैं और अति शब्द करने वाले बलशाली (अश्व या संचालक यंत्र) को रथ के साथ कब जोड़ा गया था ? ॥९॥ आ नासत्या गच्छतं हूयते हविर्मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिः । युवोर्हि पूर्वं सवितोषसो रथमृताय चित्रं घृतवन्तमिष्यति ॥१०॥ हे सत्यशील अश्विनीकुमारो ! आप यहाँ आएँ । यहाँ हवि की आहुतियाँ दी जा रही हैं। मधु पीने वाले मुखों से मधुर रसों का पान करें। आप के विचित्र पुष्ट रथ को सूर्यदेव उषाकाल से पूर्व, यज्ञ के लिये प्रेरित करते हैं॥१०॥ आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना । प्रायुस्तारिष्टं नी रपांसि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा ॥११॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों तैतीस देवताओं सहित हमारे इस यज्ञ में मधुपान के लिये पधारें। हमारी आयु बढ़ायें और हमारे पापों को भली-भाँति विनष्ट करें। हमारे प्रति द्वेष की भावना को समाप्त करके सभी कार्यों में सहायक बने ॥११॥ आ नो अश्विना त्रिवृता रथेनार्वाञ्चं रयिं वहतं सुवीरम् । शृण्वन्ता वामवसे जोहवीमि वृधे च नो भवतं वाजसातौ ॥१२॥ हे अश्विनीकुमारो ! त्रिकोण रथ से हमारे लिये उत्तम धन-सामथ्र्यों को वहन करें । हमारी रक्षा के लिए आवाहनों को आप सुनें । युद्ध के अवसरों पर हमारी बल-वृद्धि का प्रयास करें ॥१२॥

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