ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ३०

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ३० ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र, १-११ इन्द्रोषसौ। छंद गायत्री, ८, २४ अनुष्टुप नकिरिन्द्र त्वदुत्तरो न ज्यायाँ अस्ति वृत्रहन् । नकिरेवा यथा त्वम् ॥१॥ हे शत्रु संहारक इन्द्रदेव! आप से अधिक श्रेष्ठ और महान् कोई नहीं है। आपके समान अन्य और कोई देव नहीं है ॥१॥ सत्रा ते अनु कृष्टयो विश्वा चक्रेव वावृतुः । सत्रा महाँ असि श्रुतः ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! सब जगह व्याप्त चक्र जिस प्रकार गाड़ी का अनुगमन करता है, उसी प्रकार समस्त प्रजाएँ आपका अनुगमन करती हैं। आप सचमुच महान् हैं तथा गुणों के द्वारा विख्यात हैं ॥२॥ विश्वे चनेदना त्वा देवास इन्द्र युयुधुः । यदहा नक्तमातिरः ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! विजय की अभिलाषा करने वाले समस्त देवों ने शक्ति के रूप में आपका सहयोग प्राप्त करके असुरों के साथ युद्ध किया था। उस समय आपने सभी रिपुओं का सम्पूर्ण विनाश किया था ॥३॥ यत्रोत बाधितेभ्यश्चक्रं कुत्साय युध्यते । मुषाय इन्द्र सूर्यम् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! उस संग्राम में युद्ध करने वाले 'कुत्स' तथा उनके सहयोगियों के विनाश के लिए आपने सूर्य के रथ चक्र को उठाया तथा अपने भक्तों की सुरक्षा की थी ॥४॥ यत्र देवाँ ऋघायतो विश्वाँ अयुध्य एक इत् । त्वमिन्द्र वनूँरहन् ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! उस युद्ध में देवताओं के अवरोधक सम्पूर्ण असुरों के साथ आपने अकेले ही संग्राम किया तथा उन हिंसा करने वालों का संहार किया ॥५॥ यत्रोत मर्त्याय कमरिणा इन्द्र सूर्यम् । प्रावः शचीभिरेतशम् ॥६॥ यदहा नक्तमातिरः ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! विजय की अभिलाषा करने वाले समस्त देवों ने शक्ति के रूप में आपका सहयोग प्राप्त करके असुरों के साथ युद्ध किया था। उस समय आपने सभी रिपुओं का सम्पूर्ण विनाश किया था ॥३॥ यत्रोत बाधितेभ्यश्चक्रं कुत्साय युध्यते । मुषाय इन्द्र सूर्यम् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! उस संग्राम में युद्ध करने वाले 'कुत्स' तथा उनके सहयोगियों के विनाश के लिए आपने सूर्य के रथ चक्र को उठाया तथा अपने भक्तों की सुरक्षा की थी ॥४॥ यत्र देवाँ ऋघायतो विश्वाँ अयुध्य एक इत् । त्वमिन्द्र वनूँरहन् ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! उस युद्ध में देवताओं के अवरोधक सम्पूर्ण असुरों के साथ आपने अकेले ही संग्राम किया तथा उन हिंसा करने वालों का संहार किया ॥५॥ यत्रोत मर्त्याय कमरिणा इन्द्र सूर्यम् । प्रावः शचीभिरेतशम् ॥६॥ हे इन्द्रदेव! आप महान् हैं। विशाल शत्रुसेना को उसी प्रकार चूर- चूर कर दें, जिस प्रकार सूर्यदेव उषा को छिन्न-भिन्न कर देते हैं ॥९॥ अपोषा अनसः सरत्सम्पिष्टादह बिभ्युषी । नि यत्सीं शिश्नथदृषा ॥१०॥ बलशाली इन्द्रदेव ने जब उषा के रथ को विदीर्ण कर दिया था, तब भयभीत होने वाली उषा विदीर्ण रथ से दूर होकर प्रकट हुई थी ॥१०॥ एतदस्या अनः शये सुसम्पिष्टं विपाश्या । ससार सीं परावतः ॥११॥ उस उषा देवी का इन्द्रदेव द्वारा विदीर्ण हुआ रथ 'विपाशा' नदी के किनारे गिर पड़ा और उस स्थान से उषा देवी दूर देश में चली गईं ॥११॥ उत सिन्धुं विबाल्यं वितस्थानामधि क्षमि । परि ष्ठा इन्द्र मायया ॥१२॥ हे इन्द्रदेव! आपने समस्त जल को तथा परिपूर्ण रूप से भरी हुई वेग से प्रवाहित होने वाली सिन्धु नदी को अपनी बुद्धि के द्वारा धरती पर सब जगह स्थापित किया था ॥१२॥ उत शुष्णस्य धृष्णुया प्र मृक्षो अभि वेदनम् । पुरो यदस्य सम्पिणक् ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! आप वर्षण करने वाले हैं। जब आपने 'शुष्ण' नामक असुर के नगरों को विदीर्ण किया था, तब आपने उसके ऐश्वर्य का भी अपहरण किया था ॥१३॥ उत दासं कौलितरं बृहतः पर्वतादधि । अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥१४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने 'कुलितर' के पुत्र विनाशक शम्बर' को विशाल पर्वत के ऊपर से नीचे की ओर धकेल कर मार डाला था ॥१४॥ उत दासस्य वर्चिनः सहस्राणि शतावधीः । अधि पञ्च प्रर्धीरिव ॥१५॥ हे इन्द्रदेव ! चक्र के अरों के समान नियोजित संगठित होकर रहने वाले वर्चस्वी दास के रिपुओं के पाँच लाख सैनिकों को आपने विनष्ट कर दिया था ॥१५॥ उत त्यं पुत्रमनुवः परावृक्तं शतक्रतुः । उक्थेष्विन्द्र आभजत् ॥१६॥ सैकड़ों यज्ञ सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव ने 'अग्रु' के पुत्र 'परावृक्त' को स्तोत्र पाठ में भाग लेने योग्य बनाया ॥१६॥ उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः । इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥ ययाति के शाप से पतित, विख्यात शासक 'यद्' तथा 'तुर्वश' को शची के पति ज्ञानी इन्द्रदेव ने अभिषेक के योग्य बनाया ॥१७॥ उत त्या सद्य आर्या सरयोरिन्द्र पारतः । अर्णाचित्ररथावधीः ॥१८॥ हे इन्द्रदेव ! सरयू नदी के किनारे निवास करने वाले 'अर्ण' तथा 'चित्ररथ' नामक आर्य शासकों को अपने तत्काल मार दिया था ॥१८॥ अनु द्वा जहिता नयोऽन्धं श्रोणं च वृत्रहन् । न तत्ते सुम्नमष्टवे ॥१९॥ हे वृत्रहन्ता इन्द्रदेव! समाज के द्वारा परित्याग किये गये अन्धों तथा पंगुओं को आपने अनुकूल रास्ते पर चलाया था। आपके द्वारा प्रदान किये गये सुख को हटाने में कोई सक्षम नहीं हो सकता ॥१९॥ शतमश्मन्मयीनां पुरामिन्द्रो व्यास्यत् । दिवोदासाय दाशुषे ॥२०॥ रिपुओं के सैकड़ों पाषाण विनिर्मित नगरों को इन्द्रदेव ने हवि प्रदाता दिवोदास के लिए प्रदान किया ॥२०॥ अस्वापयद्दभीतये सहस्रा त्रिंशतं हथैः । दासानामिन्द्रो मायया ॥२१॥ उन इन्द्रदेव ने 'दभीति' के कल्याण के लिए अपनी सामर्थ्य के द्वारा असुरों के तीस हजार वीरों को हथियारों से मारकर सुला दिया ॥२१॥ स घेदुतासि वृत्रहन्त्समान इन्द्र गोपतिः । यस्ता विश्वानि चिच्युषे ॥२२॥ हे इन्द्रदेव ! आप उन समस्त रिपुओं को हिला देते हैं। हे वृत्र का संहार करने वाले इन्द्रदेव! आप गौओं के पालक हैं। आप समस्त याजकों के साथ समान व्यवहार करते हैं ॥२२॥ उत नूनं यदिन्द्रियं करिष्या इन्द्र पौंस्यम् । अद्या नकिष्टदा मिनत् ॥२३॥ हे इन्द्रदेव! आपने अपनी इन्द्रियों का जो बल तथा पराक्रम प्रदर्शित किया है, उसे कोई भी विनष्ट नहीं कर सकता ॥२३॥ वामंवामं त आदुरे देवो ददात्वर्यमा । वामं पूषा वामं भगो वामं देवः करूळती ॥२४॥ रिपुओं का संहार करने वाले हे इन्द्रदेव! 'अर्यमा' देवता आपको वह मनोहर ऐश्वर्य प्रदान करें। दन्तहीन पूषा' तथा 'भग' दैवता आपको वह रमणीय ऐश्वर्य प्रदान करें ॥२४॥

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