Shree Rampurvatapiniyopnishd Chapter 4 (श्री रामपूर्वतापिनीयोपनिषद् चतुर्थ सर्ग)

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्रीरामरहस्योपनिषत् ॥ ॥ चतुर्थ सर्ग ॥ श्रीराम के मन्त्र का विस्तृत अर्थ; जाप एवं ध्यान का विधान; संक्षिप्त राम कथा जीववाची नमो नाम चात्मारामेति गीयते । तदात्मिका या चतुर्थी तथा मायेति गीयते ॥१॥ जीव वाची जो शब्द है वो नमन (नमः) करता है चिदात्मा वाची राम शब्द को यानि कि जीव राम का सेवक है। ना कि राम जीव का। जीव राम में एवं राम जीव में रमण करते हैं। 'रामाय' शब्द के दो भाग राम एवं आय से क्रमशः परमात्मा एवं जीव के एक होना बतलाया गया है ॥१॥ मन्त्रोयं वाचको रामो रामो वाच्यः स्याद्योगएतयोः । फलतश्चैव सर्वेषां साधकानां न संशयः ॥ २॥ 'रां रामाय नमः' यह मन्त्र है जो बोला जाता है (वाचक है) और राम इस मन्त्र के वाच्य (उद्देश्य) हैं। इन दोनों का संयोग मंत्र का जाप और लक्ष्य पर केंद्रित ध्यान साधक को अभिष्ठ फल प्रदान करने वाला है। इसमें कोई संदेह नहीं हैं। ॥२॥ यथा नामी वाचकेन नाम्ना योऽभिमुखो भवेत् । तथा बीजात्मको मन्त्रो मन्त्रिणोऽभिमुखो भवेत् ॥ ३॥ जो व्यक्ति का नाम होता है। उसको पुकारने से वह सामने आ जाता है। इसी प्रकार राम के बीज मंत्र 'राम् या रा' को समझना चाहिए। यानि कि राम मन्त्र जपने वाले के सम्मुख भगवान् राम आ जाते हैं। ॥३॥ बीजशक्तिं न्यसेद्दक्षवामयोः स्तनयोरपि । कीलो मध्ये विना भाव्यः स्ववाञ्छाविनियोगवान् ॥ ४॥ साधक को चाहिए कि बीज मंत्र (रामाय) के 'रा या रां' बीज का दाहिना स्तन पर, 'मा' शक्ति का बाएं स्तन पर और 'य' कीलक का मध्य स्थल अर्थात हृदय पर न्यास करे। इसके साथ ही साधक अपनी इच्छा पूर्ति के लिए इस मंत्र का विनियोग करे। ॥४॥ सर्वेषामेव मन्त्राणामेष साधारणः क्रमः । अत्र रामोऽनन्तरूपस्तेजसा वह्निना समः ॥ ५॥ सभी मन्त्रों का यही क्रम होता है- पहले बीज, फिर शक्ति, फिर कीलक का न्यास करना और फिर अंत में अपने मनोरथ सिद्धि का विनियोग करना है। ध्यान करना चाहिए कि जो राम है वह परब्रह्म, अनन्त, अविनाशी परमात्मा हैं एवं तेज में अग्नि के समान है ॥५॥ सत्त्वनुष्णगुविश्वश्वेदग्नीषोमात्मकं जगत् । उत्पन्नः सीतया भाति चन्द्रश्चन्द्रिकया यथा ॥ ६॥ श्रीराम अग्नि के समान तेज होने पर भी सौम्य शीतल किरण वाले हैं। (यानि कि प्रचण्ड तेज युक्त होने पर भी शीतलता प्रदान करते है) जब उनका संयोग शीतल कान्ति वाली सीता से होता है तो अग्नि सोमात्मक जगत (स्त्री एवं पुरुष रूप) की उत्पत्ति होती है। श्रीराम सीता के साथ उसी प्रकार शोभा प्राप्त करते हैं जैसे चंद्रमा चंद्रिका के साथ। ॥६॥ नोट : रा शब्द वैश्वानर अग्नि का प्रतीक है एवं मा शब्द चन्द्रमा का प्रतीक है। अतः रा+म से अग्निषोमात्मक, यानि तेज एवं शीतलता के संयोग का जगत यह अर्थ बनता है। प्रकृत्या सहितः श्यामः पीतवासा जटाधरः । द्विभुजः कुण्डली रत्नमाली धीरो धनुर्धरः ॥ ७॥ साधक श्रीराम का ध्यान करे- श्रीराम अपने प्रकृति, आद्य शक्ति (सीता) के साथ विराजमान है। उनका वर्ण श्याम है, वे पीताम्बर धारण किये हैं, सिर पर जटा है, दो भुजायें हैं, कानों में कुण्डल हैं, गले में रत्नो की माला है, वे धीर (निर्भय, गम्भीर) हैं एवं धनुष लिये हुए हैं। ॥७॥ प्रसन्नवदनो जेता घृष्ट्यष्टकविभूषितः । प्रकृत्या परमेश्वर्या जगद्योन्याङ्किताङ्कभृत् ॥ ८॥ श्री राम प्रसन्नमुख हैं, संसार विजयी हैं, आठ सिद्धियों से युक्त हैं। संसार के कारण मूल प्रकृति के रूप में परमेश्वरी (सीता) उनके बांयी तरफ विराजमान ॥८॥ आठ सिद्धियाँ हैं:- (१) अणिमा - इतना सूक्ष्म बन जाना कि दिखायी न पड़े। (२) महिमा - अपनी शक्ति को इच्छानुसार बढ़ाने की क्षमता; महत्व, गौरव, बड़ाई। (३) गरिमा - अपने वजन को बढ़ाने की क्षमता; भारी, वजनीय, गरू। (४) लघिमा- अपने को हल्का बनाने कि क्षमता (५) प्राप्ति - सब कुछ प्राप्त कर लेने की क्षमता (६) प्राकाम्य - बल, उद्योग, शक्तिशाली होना (७) ईशत्व – सब पर स्वामी मालिक होने कि क्षमता (८) वशित्व - सबको वश में कर लेने कि क्षमता। हेमाभया द्विभुजया सर्वाल‌ङ्कृतया चिता । श्लिष्टः कमलधारिण्या पुष्टः कोसलजात्मजः ॥ ९॥ सीता के अंगों की कान्ति सोने के समान गौर वर्ण है। उनकी भी दो भुजायें हैं, वे समस्त आभूषणों से विभूषित है एवं हाथ में कमल लिए हुए हैं, उनके साथ बैठे हुए कौशल नंदन श्री राम बड़े प्रसन्न दिखाई देते हैं। ॥९॥ दक्षिणे लक्ष्मणेनाथ सधनुष्पाणिना पुनः । हेमाभेनानुजेनैव तथा कोणत्रयं भवेत् ॥ १०॥ उनके (श्रीराम के) दक्षिण भाग (सामने) में लक्ष्मणजी खड़े हैं। उनका वर्ण एवं कान्ति सोने के समान गोरा है। वे हाथ में धनुष बाण धारण किये हुए हैं। उस समय राम, लक्ष्मण एवं सीता का एक त्रिकोण जैसा बन जाता है ॥१०॥ तथैव तस्य मन्त्रस्य यस्याणुश्च स्वडेन्तया । एवं त्रिकोणरूपं स्यात्तं देवा ये समाययुः ॥ ११॥ इस प्रकार जो राम का मन्त्र 'रा रामाय नमः' है उसके तीन शब्द-रां जो परमात्मा का बीज है, रामाय जो परमात्मा तथा जीव की एकता बताता है एवं नमः जो जीव का प्रतीक है-क्रमशः श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण के द्योतक हैं। अतः इस मन्त्र के भी एक त्रिकोण बनता है। एक बार इस मन्त्र रूपी त्रिकोण में विराजमान रामजी से मिलने देवतागण आये। ॥११॥ स्तुतिं चक्रुश्च जगतः पतिं कल्पतरौ स्थितम् । कामरूपाय रामाय नमो मायामयाय च ॥ १२ ॥ तब उन देवताओं ने उन जगतपति की-जो रत्न के सिंहासन पर कल्पतरू के नीचे विराजमान थे-स्तुति की, 'काम' के समान सुन्दर, अथवा कामरूपधारी, एवं माया शरीर धारण करने वाले श्रीराम को नमस्कार है। ॥१२॥ नमो वेदादिरूपाय ओङ्काराय नमो नमः । रमाधराय रामाय श्रीरामायात्ममूर्तये ॥ १३॥ जो वेदों के रूप हैं, जो ॐकार स्वरूप हैं (अथवा जो ॐकार स्वरूप के आदिकारण हैं जिसके बाद वेद प्रकट हुए) उनको नमस्कार है। उन्होंने रमा (सीता, लक्ष्मी) को धारण कर रखा है (यानि की सीता उनके बायीं तरफ विराजमान हैं), जो परमात्मा जीव में रमण करते हैं एवं जो राम आत्मस्वरूप हैं, आत्मा की मूर्ति हैं अथवा परमात्मा शरीर रूप में हैं। ॥१३॥ जानकीदेहभूषाय रक्षोघ्नाय शुभाङ्गिने । भद्राय रघुवीराय दशास्यान्तकरूपिणे ॥ १४॥ जानकी (लक्ष्मी) जिनका आभूषण हैं (यानि कि लक्ष्मी के पति होने के कारण उनका संग पाकर बिना किसी बाहरी आवण्डर के भी विश्व में सबसे ज्यादा सजे हुए माने जाते हैं), जिन्होंने राक्षसों का नाश किया, जिनका शरीर मंगल मय है, जो दशानन (रावण) का अन्त करने वाले काल के समान है- वही रघुकुल के राजा श्रीमान् राम हैं। ॥१४॥ रामभद्र महेश्वास रघुवीर नृपोत्तम । भो दशास्यान्तकास्माकं रक्षां देहि श्रियं च ते ॥ १५॥ हे रामभद्र! हे महा धनुरंधर ! हे रघुवीर ! हे नृपश्रेष्ठ! हे दशानन (रावण) को मारने वाले! आप हमारी रक्षा करें। आप हमें ऐसी 'श्री' (सम्पदा) दें जिसका सम्बन्ध आपसे हो- अर्थात् जो भगवत् प्राप्ति के उपाय में लग सके। ॥१५॥ त्वमैश्वर्यं दापयाथ सम्प्रत्याश्वरिमारणम् । कुर्विति स्तुत्य देवाद्यास्तेन सार्धं सुखं स्थिताः ॥ १६॥ देवता आगे बोले-आप हमें ऐश्वर्य प्रदान करें और शीघ्र ही राक्षस (रावण) को मारने की व्यवस्था करें। ऐसी स्तुति करके देवता एवं सिद्धगण सुख से (यानि निश्चिन्त होकर) राम के सामने स्थित हो गये। ॥१६॥ स्तुवन्त्येवं हि ऋषयस्तदा रावण आसुरः । रामपत्नीं वनस्थां यः स्वनिवृत्त्यर्थमाददे ॥ १७॥ देवताओं के समानऋषियों ने भी राम की स्तुति की। इधर असुर रावण ने वन में स्वयं के विनाश हेतु राम की पत्नी (सीता) को वन में (या 'वन से') हर लिया जहाँ वे उस समय रहती थीं। ॥१७॥ स रावण इति ख्यातो यद्वा रावाच्च रावणः । तव्याजेनेक्षितुं सीतां रामो लक्ष्मण एव च ॥ १८॥ राम (या राम पत्नी) के 'रा' शब्द से एवं वनस्थां (पद संख्या १७) के 'वन' शब्द से वह राक्षस "रावण = रावण' नाम से प्रसिद्ध हुआ। अथवा जो दूसरों को रूदन करवाता है अथवा रूलवाता है। वह रावण कहलाया। कारण उसने सीता को त्रास देकर रूलाया था। अथवा जो बहुत 'र व' (यानि कि हल्ला-गुल्ला, शोर) करता है वह रावण कहलाया। इसके बाद श्रीराम एवं लक्ष्मण ने सीता की खोज में। ॥१८॥ विचेरतुस्तदा भूमौ देवीं संदृश्य चासुरम् । हत्वा कबन्धं शबरीं गत्वा तस्याज्ञया तया ॥ १९॥ वह देवी सीता की खोज में वन प्रांत में भूमि पर विचारने लगे। आगे कबंध नामक असुर को देखकर उन्होंने उसे मार डाला। इसके बाद वे शबरी के यहाँ गये। ॥१९॥ पूजितो वायुपुत्रेण भक्तेन च कपीश्वरम् । आहूय शंसतां सर्वमाद्यन्तं रामलक्ष्मणौ ॥ २०॥ शबरी ने बड़ी भक्ति भावना से उनकी पूजा की। तदन्तर आगे जाने पर उन्हें वीर पुत्र (हनुमान) मिले। उन्होंने मध्यस्थ होकर कपीराज (सुग्रीव) से राम-लक्ष्मण की मित्रता करायी। फिर उन्होंने सुग्रीव से आदि से अंत तक का पूरा वृतांत कह दिया। ॥२०॥ स तु रामे शङ्कितः सन्प्रत्ययार्थं च दुन्दुभेः । विग्रहं दर्शयामास यो रामस्तमचिक्षिपत् ॥ २१॥ उसे (सुग्रीव को) राम के ऐश्वर्य एवं सामर्थ्य पर शंका थी। इसलिए उसने उन्हें दुंदुभि नामक राक्षस का विशाल शरीर दिखाया जिसे श्री राम ने अपने पैर के अंगूठे से अनायास ही दस योजन दूर फेंक दिया । ॥२१॥ सप्त सालान्विभिद्याशु मोदते राघवस्तदा । तेन हृष्टः कपीन्द्रोऽसौ स रामस्तस्य पत्तनम् ॥ २२॥ परंतु सुग्रीव जी शंका तब भी निर्मूल नहीं हुई तब श्री राम ने एक बयान से ताल से सात पेड़ों को बींध डाल जिससे कपिन्द्र (सुग्रीव) को हर्ष हुआ। अपने मित्र को खुश देखकर राघव को भी प्रसन्नता हुई। फिर श्री राम को साथ लेकर वह अपने पुरी किष्किन्धा गया। ॥२२॥ जगामागर्जदनुजो वालिनो वेगतो गृहात् । तदा वाली निर्जगाम तं वालिनमथाहवे ॥ २३॥ वहाँ बालि के छोटे भाई (सुग्रीव) ने घोर गर्जना की जिसको सुनकर बालि बड़े वेग से घर से बाहर निकला। ॥२३॥ निहत्य राघवो राज्ये सुग्रीवं स्थापयत्ततः । हरीनाहूय सुग्रीवस्त्वाह चाशाविदोऽधुना ॥ २४॥ फिर राघव (श्रीराम) ने उसे (बालि को) मार गिराया और सुग्रीव को (किषकिन्धा के) राज्य पर सिंहासनारूढ़ किया। तदन्तर सुग्रीव ने वानरों को बुलवाकर कहा, 'हे वानर वीरों! आप लोग सभी दिशाओं के ज्ञाता हैं (यानि कि सब तरफ की बातें जानते हैं, कारण आप सब तरफ विचरते रहते हैं और पृथ्वी के हर कोने में रहते हैं और वहाँ से पधारे हैं) ॥२४॥ आदाय मैथिलीमद्य ददताश्वाशु गच्छत । ततस्ततार हनुमानब्धिं लङ्कां समाययौ ॥ २५॥ इस समय शीघ्र यहाँ से जाओ और मिथलेश कुमारी (सीता) को आज ही दूर कर लाकर इनको (राम को) दे दो (अर्पित कर दो) | इस आदेश पर सब वानर विभिन्न दिशाओं में चल पड़े और हनुमान ने समुद्र लांघकर लंका में प्रवेश किया। ॥२५॥ सीतां दृष्ट्वाऽसुरान्हत्वा पुरं दग्ध्वा तथा स्वयम् । आगत्य रामेण सह न्यवेदयत तत्त्वतः ॥ २६॥ वहाँ उन्होंने सीता को देखा, अनेक असुरों (राक्षसों) का वध किया तथा लंका को जला डाला। फिर राम के पास आकर सारा समाचार यथावत् उन्हें सुना दिया। ॥२६॥ तदा रामः क्रोधरूपी तानाहूयाथ वानरान् । तैः सार्धमादायास्त्राणि पुरीं लङ्कां समाययौ ॥ २७॥ तब राम ने क्रोध रूप धारण किया, सब वानरों को इकट्ठा किया और अस्त्र-शस्त्र लेकर उनके साथ लंकापुरी पहुँचे। ॥२७॥ तां दृष्ट्वा उदधीशेन सार्धं युद्धमकारयत् । घटश्रोत्रसहस्राक्षजिद्भयां युक्तं तमाहवे ॥ २८॥ हत्वा बिभीषणं तत्र स्थाप्याथ जनकात्मजाम् । आदायाङ्कस्थितां कृत्वा स्वपुरं तैर्जगाम सः ॥ २९॥ उन्होंने लंका का भलीभांति निरीक्षण किया और वहाँ के राजा (रावण) के साथ युद्ध छेड़ दिया। उस युद्ध में रावण के भाई कुंभकर्ण तथा पुत्र इंद्रजीत के सहित रावण को मार कर उन्होंने विभीषण को राजा बनाया और फिर जनकनंदिनी सीता जी को अपनी बाईं तरफ बैठाकर सब वानरों के साथ उन्होंने अपनी पुरी (अयोध्या) के लिए प्रस्थान किया। ॥२८-२९॥ ततः सिंहासनस्थः सन् द्विभुजो रघुनन्दनः । धनुर्धरः प्रसन्नात्मा सर्वाभरणभूषितः ॥ ३०॥ राज्य अभिषेक के बाद वह सिंहासन पर विराजमान हैं। वे दो हाथों वाले रघुनन्दन धनुष धारण किये हैं, प्रसन्न आत्मा हैं एवं सब प्रकार के आभूषणों से अलंकृत हैं। ॥३०॥ मुद्रां ज्ञानमयीं याम्ये वामे तेजप्रकाशिनीम् । धृत्वा व्याख्याननिरतश्चिन्मयः परमेश्वरः ॥ ३१॥ उनका दाहिना हाथ ज्ञानमयी मुद्रा में तथा बायाँ ताथ तेज को प्रकाशित करने वाली मुद्रा में स्थित है। वे निरत चिन्मय परमेश्वर उपदेश (देने) की मुद्रा में स्थित हैं। ॥३१॥ (१) ज्ञानमयी मुद्रा- दहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठों को सटकार आगे छाती पर रखें तथा बांये हाथ को घुटने पर रखें। (२) धनुर्मयी मुद्रा - बांये हाथ की मध्यमा अंगुली के आगे के भाग को तर्जनी अंगुली से सटा दें तथा अनामिका एवं कनिष्टा को अंगूठे से दबायें। फिर उसको बांये कन्धे पर रखें। (३) उपदेश मुद्रा- दहिने हाथ के अंगूठे को तर्जनी अंगुली से उदग्दक्षिणयोः स्वस्य शत्रुघ्नभरतौ ततः । हनूमन्तं च श्रोतारमग्रतः स्यात्त्रिकोणगम् ॥३२॥ श्री राम के उत्तर में शत्रुघ्न एवं दक्षिण में भरत स्थित हैं। हनुमान जी हाथ जोड़कर श्रोता की तरह सामने खड़े हैं। वे भी त्रिकोण के अन्दर ही स्थित हैं। ॥३२॥ भरताधस्तु सुग्रीवं शत्रुघ्नाधो बिभीषणम् । पश्चिमे लक्ष्मणं तस्य धृतच्छूत्रं सचामरम् ॥ ३३॥ भरत के नीचे सुग्रीव तथा शत्रुघ्न के नीचे विभीषण खड़े हैं। पश्चिम की तरफ लक्ष्मण हाथ में छत्र, चंवर लिए खड़े हैं। ॥३३॥ तदधस्तौ तालवृन्तकरौ त्र्यस्रं पुनर्भवेत् । एवं षट्‌कोणमादौ स्वदीर्घाङ्गैरेष संयुतः ॥ ३४॥ दोनों भाई, भरत और शत्रुघन हाथ में ताड़ का पंखा लिए खड़े हैं। इस प्रकार तो त्रिकोण बने- पहला त्रिकोण लक्ष्मण – भरत - शत्रुघन और दूसरा हनुमान - सुग्रीव- विभीषण। इस प्रकार दो त्रिकोण से एक षटकोण बना। श्रीराम का पहला आवरण उनका दीर्घ बीज मन्त्र रूपी अक्षर हैं। ॥३४॥ यह हुआ प्रथम आवरण और उसके बीज मंत्र है – रां, रीं, रूँ, रैं, रौं, रः । द्वितीयं वासुदेवाद्यैराग्नेयादिषु संयुतः । तृतीयं वायुसूनुं च सुग्रीवं भरतं तथा ॥ ३५॥ श्री राम के द्वितीय आवरण हैं- वासुदेव, शांति, संकर्षण, श्री, प्रद्युम्न, सरस्वती, अनिरुद्ध और राति। यह क्रमशः उनके आग्नेय आदि दिशाओं में स्थित है। इस द्वितीय आवरण में श्री राम सबसे संयुक्त (जुड़े हुए, सम्मिलित) रहते हैं। तृतीय आवरण में हनुमान, सुग्रीव, भरत। ॥३५॥ बिभीषणं लक्ष्मणं च अङ्गदं चारिमर्दनम् । जाम्बवन्तं च तैर्युक्तस्ततो धृष्टिर्जयन्तकः ॥ ३६॥ विजयश्च सुराष्ट्रश्च राष्ट्रवर्धन एव च । अशोको धर्मपालश्च सुमन्त्रश्चभिरावृतः ॥ ३७॥ विभीषण, लक्ष्मण, अंगद, जामवंत एवं शत्रुघ्न हैं अर्थात जब श्री राम इन सबसे संयुक्त होते है तो तीसरा आवरण सिद्ध होता है। इनके अलावा धृष्टि, जयंत, विजय, सुराष्ट, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमन्त्र से आवृत्त होने पर भी तीसरा ही आवरण बनता है। ॥३६- ३७॥ ततः सहस्रदृग्वह्निर्धर्मज्ञो वरुणोऽनिलः । इन्द्वीशधात्रनन्ताश्च दशभिश्चैभिरावृतः ॥ ३८॥ जब श्री राम इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋति, वरुण, वायु, चंद्रमा, ईशान, ब्रहम तथा अनंत – इन दस दिक्पालों से जब वह आवृत होते हैं तब चौथा आवरण बनता है। ॥३८॥ दस देवताओं की इन कोणों में पूजा करनी चाहिए १. इन्द्र की पूर्व में, २. अग्नि की दक्षिण पूर्व में, ३. यम की दक्षिण में ४. नैऋति की दक्षिण-पश्चिम में ५. वरुण की पश्चिम में ६. वायु की उत्तर-पश्चिम में ७. चंद्रमा की उत्तर में ८. ईशान की उत्तर पूर्व में ९. ब्रहम की पूर्व एवं उत्तर पूर्व के बीच में १०. अनंत की पश्चिम एवं दक्षिण पश्चिम के बीच में इन देवताओं के क्रमश: हैं लं, रं, मं, क्षं, वं, यं, सं, हं,आं, नं। पश्चिम एवं दक्षिण-पश्चिम के बीच में पूजा करनी चाहिए। (ख) इन देवताओं के बीज-मन्त्र बहिस्तदायुधैः पूज्यो नीलादिभिरल‌ङ्कृतः । वसिष्ठवामदेवादिमुनिभिः समुपासितः ॥ ३९॥ इन दस दिक्पालों के बाहर की तरफ इनके हथियार (आयुध) है, जो पांचवें आवरण को बनाते हैं। इन सबके द्वारा आवरत श्रीराम पूजनीय होते हैं (यानि इनके द्वारा पूजित होते हैं) इसके बाद उसी आवरण में नील आदि वानर, विशिष्ट, वामदेव आदि ऋषिगण सुशोभित होते हैं। ॥३९॥ इन दस देवताओं के दस हथियार हैं १. इन्द्र का वज्र २. अग्नि कि शक्ति ३. यम का दंड ४. नैऋति का खंग ५. वरुण का पाश ६. वायु का अंकुश ७. चंद्रमा की गदा ८. शिव जी का त्रिशूल ९. ब्रह्मा जी का कमल १०. विष्णु जी का चक्र राम के पूजा यन्त्र के बनाने का निर्देश एवमुद्देशतः प्रोक्तं निर्देशस्तस्य चाधुना । त्रिरेखापुटमालिख्य मध्ये तारद्वयं लिखेत् ॥ ४०॥ इस प्रकार संक्षेप में पूजा यंत्र का वरना किया गया। अब उसको बनाने का पूर्ण निर्देश किया जाता है। सम रेखाओं का दो सम त्रिकोण बनाकर उनके बीच दो प्रणव अक्षरों (ॐ ओम्) का उल्लेख करें। ॥४०॥ तन्मध्ये बीजमालिख्य तदधः साध्यमालिखेत् । द्वितीयान्तं च तस्योर्ध्वं षष्ठ्यन्तं साधकं तथा ॥ ४१॥ फिर उन दोनों प्रणव अक्षरों के बीच आद्यबीज रां को लिख कर उसके नीचे 'साध्य कार्य' को लिखें साध्य का नाम द्वितीयान्त होना चाहिए। आद्यबीज रां के ऊपरी भाग में साधक का नाम लिखना चाहिए जो षष्टयन्त रहना चाहिए। ॥४१॥ कुरु द्वयं च तत्पार्श्वे लिखेगीजान्तरे रमाम् । तत्सर्वं प्रणवाभ्यां च वेष्टयेच्छुद्धबुद्धिमान् ॥ ४२॥ इसके बाद जिन मंत्र के दोनों तरफ अर्थात बाएं और दायें 'कुरु' शब्द लिखे। बीज मंत्र के बीचों-बीच श्री-बीज 'श्रीं' लिखे। बुद्धिमान पुरुष यह सब ऐसे लिखे जिससे प्रणव ॐ से संपुटित रहे। ॥४२॥ दीर्घभाजि षडसे तु लिखेगीजं हृदादिभिः । कोणपार्श्वे रमामाये तदग्रेऽनङ्ग‌मालिखेत् ॥ ४३॥ फिर जो षट्कोण के बाहर ६ त्रिकोण बने उनमें क्रमशः (१) रा हृदयाय नमः (पहले त्रिकोण में), (२) रीं शिर से स्वाहा (दूसरे त्रिकोण में), (३) रूं शिखायै वषट् (तीसरे त्रिकोण में), (४) रें कवचाय हुम् (चौथे त्रिकोण में), (५) रौं नेत्राभ्यां वौषट् (पाँचवें त्रिकोण में), (६) र: अस्त्राय फट् (छठे त्रिकोण में) लिखें। तत्पश्चात् कोणों के एक तरफ बाहर 'रमा बीज' (श्रीं) तथा दूसरी तरफ 'माया बीज' (ह्रीं) लिखे। फिर हर दो कोण के बीच 'काम बीज' (क्लीं) लिखे। ॥४३॥ क्रोधं कोणाग्रान्तरेषु लिख्य मन्त्र्यभितो गिरम् । वृत्तत्रयं साष्टपत्रं सरोजे विलिखेत्स्वरान् ॥ ४४॥ हर त्रिकोण के नोक के बाहर एवं भीतर क्रोध बीज 'हुम्' लिखे और इस बीज के दोनों तरफ वाणी का बीज 'ऐं' लिखे। फिर तीन गोलाकार रेखाएं (वृत्त) बनाये- पहली वृत्त तो षटकोण के ऊपर हिस्से में होगा, दूसरा मध्य में होगा तथा तीसरा कमल दल के अग्र भाग में होगा। बाहर की तीसरी वृत्त के साथ आठ पत्तों वाला अष्टदल कमल बनाये। ॥४४॥ तेषु केसरे चाष्टपत्रे च वर्गाष्टकमथालिखेत् । मालामनोर्वर्णान्विलिखेदूर्मिसंख्यया ॥ ४५॥ जो कमल के आठ पत्ते (दल) बने उनमें क्रमशः निम्न श्रृंखला में अक्षरों को लिखे - हिन्दी वर्णमाला के 'स्वर अक्षर' को दो-दो अक्षरों को प्रत्येक कमल दल में क्रमशः लिखे (यानि कि अ आ इ ई, उ ऊ, ऋ ऋ, ललु, ए ऐ ओ औ, अं अः) अब इन स्वरों के ऊपर 'व्यंजन वर्ग' के आठ वर्गों को लिखे (ये वर्ग निम्न है- क, च, ट, त, प, य, श, क्ष)। फिर इन आठों दलों में (पत्तों में) जो उपरोक्त अष्ट वर्ग लिखे गए हैं उनके ऊपर आगे बताये जाने वाले 'माला मन्त्र' के ४७ वर्णों को प्रत्येक पत्ते मे ६ करके क्रम से लिखे। ॥४५॥ अन्ते पञ्चाक्षराण्येवं पुनरष्टदलं लिखेत् । तेषु नारायणाष्टार्णालिख्य तत्केसरे रमाम् ॥ ४६॥ अन्तिम (आठवें) पत्ते / दल में बचे हुए ५ वर्गों का ही जिक्र होगा (कारण ७ पत्ते में ६५७ = ४२ वर्ण आ गये हैं तो सिर्फ ४७-४२ = ५ ही बचे)। उपरोक्त आठ पत्तों वाले कमल के बाहर एक दूसरा आठ पत्तों का कमल बनाये। इसके पत्तों में 'ॐ नमो नारायणाय' इस अष्टाक्षर मन्त्र के प्रत्येक अक्षर को क्रम से हर पत्ते में लिखे। हर पत्ते के केसर (जड़) में रमा बीज मन्त्र 'श्रीं' लिखे। ॥४६॥ तद्वहिर्द्वादशदलं विलिखेद्द्वादशाक्षरम् । अथों नमो भगवते वासुदेवाय इत्ययम् ॥ ४७॥ पद संख्या ४६ में वर्णित आठ पत्तों वाले कमल के बाहर एक तीसरा कमल १२ पत्तों का बनाये और द्वादश अक्षर मन्त्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' के एक-एक अक्षर को एक-एक पत्ते में क्रमशः ऊपरी हिस्से में लिखे ॥४७॥ आदिक्षान्तान्केसरेषु वृत्ताकारेण संलिखेत् । तद्बहिः षोडशदलं लिख्य तत्केसरे हृयम् ॥ ४८॥ उपरोक्त १२ पत्तों वाले कमल के पत्तों के केसरों में हिन्दी वर्णमाला के 'अ' से लेकर 'ज्ञ' तक वर्गों को (यानि कि १६ स्वर ३५व्यंजन) लिखे जो गोलाकार रूप में हो। (प्रत्येक केसर में ४ अक्षर होंगे और अन्तिम केसर में ७ अक्षर होंगे) इस कमल के बाहर की तरफ एक १६ पत्तों का चौथा कमल बनाये और उसके प्रत्येक पत्ते के केसर में माया बीज 'ह्रीं' लिखे। ॥४८॥ वर्मास्त्रनतिसंयुक्तं दलेषु द्वादशाक्षरम् । तत्सन्धिष्विरजादीनां मन्त्रान्मन्त्री समालिखेत् ॥ ४९॥ उस चौथे १६ पत्तों वाले कमल में हर पत्ते में ऊपर की नोक की तरफ एक-एक अक्षर क्रम से 'हुं फट न मः' तथा द्वादश मन्त्र ('ॐ ह्रीं भरताग्रज राम क्लीं स्वाहा') के एक-एक १२ अक्षरों को (कुल ४+१२- १६) लिखे। इन पत्तों के जोड़ों में (सन्धियों में) मन्त्रवेत्ता हनुमान आदि के बीज मन्त्र लिखे (जो नीचे पद संख्या ५० में वर्णित है)। ॥४९॥ हं संभ्रं व्रलूमं, ऋ, जंच लिखेत्सम्यक्ततो बहिः । द्वात्रिंशारं महापद्म नादबिन्दुसमायुतम् ॥ ५०॥ उपरोक्त १६ बीज मन्त्र इस प्रकार हैं- हूं (हनुमान का), सं (सुग्रीव का), मुं (भरत का), वृं (विभीषण का), लू (लक्ष्मण का), शृं (शत्रुघ्न का), जूं (जामवन्त का), y (धृष्टि का), जं (जयन्ति का), विं (विजय का), सुं (सुराष्ट्र का), रां (राष्ट्रवर्धन का), अं (अकोप का), धं (धर्मपाल का), सुं (सुमन्त्र का)L मूल श्लोक में आये हुए 'च' अक्षर से इनका समुच्य होता है। इस कमल के बाहर एक पाँचवां महाकमल ३२ पत्तों का बनाये। यह 'नाद' एवं 'बिन्दु' से युक्त हो। नाद अर्द्ध चन्द्राकार होगा और उसके ऊपर बिन्दु होगा ॥५०॥ विलिखेन्मन्त्रराजार्णांस्तेषु पत्रेषु यत्नतः । ध्यायेदष्टवसूनेकादशरुद्रांश्च तत्र वै ॥ ५१॥ द्वादशेनांश्च धातारं वषट्कारं च तद्बहिः । भूगृहं वज्रशूलाढ्यं रेखात्रयसमन्वितम् ॥ ५२॥ इस कमल के ३२ दलों (पत्तों) के केसर की तरफ इस ३२ अक्षरों वाले मन्त्र का एक-एक अक्षर क्रम से लिखे- 'रामभद्र महेश्वास रघुवीर नृपोत्तम । भो दशास्यान्तकास्माकं श्रियं दापय देहि में॥ फिर उन दलों में ८ वसु, ११ रूद्र और १२ आदित्य एवं १ वषट्‌कार ब्रह्मा को एक-एक करके क्रमशः लिखना चाहिए। उक्त ३२ दलों वाले कमल के बाहर की तरफ एक 'मूगृह' (भूपुर) बनाए। उसके चारों दिशाओं में (उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, पूर्व) वन का निशान तथा ४ कोणों में शूल का चिन्ह अंकित करे। उपरोक्त 'भूपुर' को तीन रेखाओं से घेरे ॥५१-५२॥ (१) ८ वसु हैं- ध्रुव, धर, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूष, प्रभास (२) ११ रूद्र हैं- हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, शम्भु, वृषाकपि, कपर्दी, रैवत, मृगब्याध, शर्व, कपाली (३) १२ आदित्य ये हैं- धाता, अर्यमा, मित्र, वरूण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान, पूषा, पर्जन्य, त्वष्टा तथा विष्णु। (४) कुल नामों की संख्या ८+११+१२+१=३२ हुई। (५) भूपुर यन्त्र के बाहर की तीन रेखायें सत, रज, तम गुणों को बताती हैं। भूपुर यन्त्र का लक्षण निम्न है- चौकोर रेखा, वज्र का चिन्ह और पीला रंग। द्वारोपतं च राश्यादिभूषितं फणिसंयुतम् । अनन्तो वासुकिश्चैव तक्षः कर्कोटपद्मकः ॥ ५३॥ महापद्मश्च श‌ङ्खश्च गुलिकोऽष्टौ प्रकीर्तिताः । एवं मण्डलमालिख्य तस्य दिक्षु विदिक्षु च ॥ ५४॥ जैसे किसी मण्डप में दरवाजे होते हैं उसी प्रकार इस चौकोर ज्योति मण्डप में भी द्वार बनाये। फिर उस भूपुर यन्त्र को १२ राशियों से विभूषित करेL (प्रत्येक द्वार के दोनों तरफ एक-एक राशि होगी।४ दरवाजे ४२ = ८ एवं ४ कोनों में ४ राशि =-८+४ = कुल १२ राशि हुई)। फिर इस चित्र को सर्प (फणि) के फण से संयुक्त करे- यानि कि ऐसा प्रदर्शित करे कि इस यन्त्र को शेषनाथ ने धारण कर रखा है। आठ नागों के नाम ये हैं- अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक ॥५३-५४॥ (१) उपरोक्त बारह राशियों ये हैं- मीन, मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिका, धनुष, मकर, कुम्भ। नारसिंहं च वाराहं लिखेन्मन्त्रद्वयं तथा । कूटो रेफानुग्रहेन्दुनादशक्त्यादिभिर्युतः ॥ ५५॥ इस प्रकार भूपूर यंत्र बनाकर उसके चारों दिशाओं में (उत्तर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम) दोनों मंत्रों 'नारसिंह' के बीज मंत्र को लिखें तथा कोणों में 'वाराह' की बीज मंत्र को लखें। यह जो नारसिंह का बीज मंत्र क्षरौं तथा क्षों है यह क, ष, र, औ, अनुस्वार, नाद तथा शक्ति से युक्त है। ॥५५॥ नरसिंह बीज मंत्र हैं- क्षरौं अथवा क्षों। वाराह बीज मंत्र हैं - हूँ। यो नृसिंहः समाख्यातो ग्रहमारणकर्मणि । अन्त्या‌ङ्ग्रीशवियद्विन्दुनादैर्बीजं च सौकरम् ॥ ५६॥ यह नारसिंह बीज मन्त्र ग्रह बाधा निवारण तथा शत्रुमारण कर्म में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। जो वाराह बीज है वह अन्त्य वर्ण-हकार- ह, उकार से युक्त हो, उसमें बिन्दु अर्थात अनुस्वार लगा हो, नाद अर्थात अर्ध चंद्राकार और शक्ति का भी संयोग हो 'हुम' अथवा 'हुँ' बीज बना। ॥५६॥ हुंकारं चात्र रामस्य मालमन्त्रोऽधुनेरितः । तारो नतिश्च निद्रायाः स्मृतिर्भेदश्च कामिका ॥ ५७॥ यह हुंकार बीज यन्त्र के कोणों में रखना चाहिए। अब राम के 'माला मन्त्र बीज' का वर्णन किया जा रहा है। इसमें प्रथम अक्षर 'तार' है अर्थात प्रणव है फिर 'नमः' पद है। इसके बाद निद्रा (भ), स्मृति (ग), मेद व, कमिका (त) पद।॥५७॥ रुद्रेण संयुता वह्निमेधामरविभूषिता । दीर्घा क्रूरयुता ह्लादिन्यथो दीर्घसमायुता ॥ ५८॥ जो रुद्र (ए) से युक्त है। इसके बाद अग्नि (र), मेधा (घ) है, जो अमर (उ) से विभूषित है। इसके बाद दीर्घ कला (न) जो अक्रूर अर्थात सौम्यता चंद्रमा (अनुस्वार) से संयुक्त है। फिर ह्लादिनी (द) है, फिर दीर्घ कला (न) है, जो मानदा कला (आ) से सुशोभित है। ॥५८॥ क्षुधा क्रोधिन्यमोघा च विश्वमप्यथ मेधया । युक्ता दीर्घज्वालिनी च सुसूक्ष्मा मृत्युरूपिणी ॥ ५९॥ इसके बाद क्षुधा (य) है। (इस प्रकार पद संख्या ५७ से यहाँ तक 'रघुनन्दनाय' बना।) तदन्तर क्रोधिनी (र), अमोघा (क्ष) और विश (ओ) है को मेधा (घ) से संयुक्त है। फिर दीर्घा (न), ज्वालिनी (व), जो सूक्ष्म रुद्र (इ) से युक्त है। फिर मृत्यु प्रणव कला (श) है। ॥५९॥ सप्रतिष्ठा ह्लादिनी त्वक्क्ष्वेलप्रीतिश्च सामरा । ज्योतिस्तीक्ष्णाग्निसंयुक्ता श्वेतानुस्वारसंयुता ॥ ६०॥ जो उच्चारण के आधार स्वरूप (यानि कि प्रतिष्ठा स्वरूप) 'अ' से संयुक्त है। इसके बाद ह्लादिनी (दा) तथा त्वक (य) है। इसके मंत्र का आगे का हिस्सा रक्षोघ्नविशंदाय' बना। इसके बाद क्षवेल (म), प्रीति (ध), अमर (उ), ज्योति (र), तीक्ष्णा (प), जो अग्नि (र) से संयुक्त है। इसके बाद श्ववेता (स) है जो अनुस्वार ( ं) है। (अतः बीज मन्त्र निम्न बने मधुर पृसं) ॥६०॥ कामिकापञ्चमूलान्तस्तान्तान्तो थान्त इत्यथ । स सानन्तो दीर्घयुतो वायुः सूक्ष्मयुतो विषः ॥ ६१॥ फिट कामिका (अर्थात त) से पाँचवाँ अक्षर 'न', 'ल' के बाद अक्षर 'व', 'त' के बाद वाले अक्षर के पीछे का अक्षर 'द', फिर 'ध' के बाद का अक्षर 'न' जो अननत (आ) से संयुक्त हैं। दीर्घ स्वर से युक्त वायु (या) सूक्ष्म 'इ' कार से युक्त विष मकार (मि) है। इस प्रकार अक्षर बने नवदना यामि। ॥६१॥ कामिका कामका रुद्रयुक्ताथोऽथ स्थिरातपा । तापनी दीर्घयुक्ता भूरनलोऽनन्तगोऽनिलः ॥ ६२॥ इसके बाद कामिका (त) और इसमें रुद्र (ए) का संयोग है। तदन्तर स्थिरा (ज), उसके बाद अक्षर 'स' है और उसमें 'ए' की मात्र है। इस प्रकार 'मधुरप्रसन्नवदनायमिततेजसे' यह मंत्र भाग बना। ॥६२॥ नारायणात्मकः कालः प्राणाभो विद्यया युतः । पीतारातिस्तथा लान्तो योन्या युक्तस्ततो नतिः ॥ ६३॥ फिर नारायणात्मक 'रा? के साथ 'काल' (यानि कि आम मा) है। इसके बाद 'प्राण' (य) है। इससे 'रामाय' शब्द बना। सके बाद 'विद्यायुक्त अम्भस्', यानि कि इ+व = वि है। फिर पीता (ष), रति (ण) और 'ल' के बाद का अक्षर 'व' है जो योनि (ए) से युक्त है। इससे मन्त्र का अगला शब्द 'विष्णवे' बना। अन्त में नति- प्रणाम का वाचक शब्द 'नमः' और 'प्रर्णव' है । ॥६३॥ (ॐ नमो भगवते रघुनन्दनाय रक्षोघ्नविशदाय मधुर प्रसन्नवदनाय मिततेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः) सप्तचत्वारिंशद्वर्णगुणान्तःस्पृङ्गनुः स्वयम् । राज्याभिषिक्तस्य तस्य रामस्योक्तक्रमाल्लिखेत् ॥ ६४॥ 'ॐ नमो भगवते रघुनन्दनाय रक्षोघ्नविशदाय मधुर प्रसन्नवदनाय मिततेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः ॐ।' यह ४७ अक्षरों का 'माला मन्त्र' है। यह राज्य पर अभिषिक्त श्रीराम से सम्बन्ध रखता है। सगुण श्रीराम का मन्त्र होने पर भी यह भक्तों के त्रिगुणमयी माया के बन्धन का नाश करने वाला है एवं उन्हें साकेत धाम देता है। इस मन्त्र को पहले बताये हुए क्रम से लिखना चाहिए (कृपया पद संख्या ४५ देखें) ॥६४॥ माला मन्त्र का वर्णन पद संख्या ५६-६३ में हुआ और यह पद संख्या ४५ में जो कमल दल है उसके अन्दर ऊपर की तरफ पद संख्या ४५ में बताये तरीके से लिखा जायेगा। इदं सर्वात्मकं यन्त्रं प्रागुक्तमृषिसेवितम् । सेवकानां मोक्षकरमायुरारोग्यवर्धनम् ॥ ६५॥ यह राम का यन्त्र सर्वदेव पूज्यात्मक है- अर्थात् सभी प्रधान देवता बीज रूप में इसमें मौजूद हैं। इसका उपदेश प्राचीन आचार्यों ने किया है तथा ऋषियों ने भी इसका सेवन करने मोक्ष प्रपात किया है। यह मोक्ष देता है एवं आयु तथा आरोग्य में वृद्धि करता है। ॥६५॥ अपुत्राणां पुत्रदं च बहुना किमनेन वै । प्राप्नुवन्ति क्षणात्सम्यगत्र धर्मादिकानपि ॥ ६६॥ यह पुत्रहीनों को पुत्र प्राप्ति कराता है। ज्यादा क्या कहना, इस मन्त्र के सेवन से मनुष्य से सब कुछ शीघ्र पा जाता है। इसका आश्रय लेकर उपासक धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं ऐश्वर्य सब पा लेता है ॥६६॥ इदं रहस्यं परममीश्वरेणापि दुर्गमम् । इदं यन्त्रं समाख्यातं न देयं प्राकृते जने ॥ ६७॥ यह अत्यन्त गोपनीय रहस्य है। यह यन्त्र बिना उपदेश के परम सामर्थ्यशाली पुरूष के लिए भी दुर्गम है। प्राकृतजनों को इसका उपदेश नहीं देना चाहिए। ॥६७॥ ॥ इति रामपूर्वतापिनीयोपनिषद् तृतीय सर्ग ॥ ॥३॥ श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद् का तृतीय सर्ग समाप्त हुआ।

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