ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त २६

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त २६ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता - ब्रह्मणस्पतिः । छंद जगती ऋजुरिच्छंसो वनवद्वनुष्यतो देवयन्निददेवयन्तमभ्यसत् । सुप्रावीरिद्वनवत्पृत्सु दुष्टरं यज्वेदयज्योर्वि भजाति भोजनम् ॥१॥ ब्रह्मणस्पतिदेव की स्तुति करने वाले सज्जन स्तोता ही देवगणों का पूजन करते हैं तथा देवगणों को न मानने वालों एवं हिंसकों का संहार करते हैं। उत्तम संरक्षण प्रदान करने वाले वे ब्रह्मणस्पतिदेव युद्ध में दुर्धर्ष शत्रुओं को मारते हैं। याज्ञिक (श्रेष्ठ कार्य करने वाले) ही यज्ञन करने वाले (कुसंगी) व्यक्तियों के ऐश्वर्य का उपभोग करते हैं॥१॥ यजस्व वीर प्र विहि मनायतो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये । हविष्कृणुष्व सुभगो यथाससि ब्रह्मणस्पतेरव आ वृणीमहे ॥२॥ हे मनुष्यो ! यज्ञ के द्वारा अहंकारी शत्रुओं का विनाश करो । विघ्नों को नष्ट करने के लिए मंगलमय विचारों से जुड़कर ब्रह्मणस्पतिदेव के संरक्षण की कामना से हविष्यान्न तैयार करो, जिससे सौभाग्यशाली बन सको ॥२॥ स इज्जनेन स विशा स जन्मना स पुत्रैर्वाजं भरते धना नृभिः । देवानां यः पितरमाविवासति श्रद्धामना हविषा ब्रह्मणस्पतिम् ॥३॥ जो याजक श्रद्धाभावना से देवों के पालनकर्ता ब्रह्मणस्पतिदेव को हुव्य समर्पित करता है, वह व्यक्तियों द्वारा, समाज द्वारा तथा सन्तति द्वारा ऐश्वर्य की प्राप्ति करता है और मनुष्य मात्र का सहयोग पाता है॥३॥ यो अस्मै हव्यैर्घतवद्भिरविधत्प्र तं प्राचा नयति ब्रह्मणस्पतिः । उरुष्यतीमंहसो रक्षती रिषोंऽ होश्चिदस्मा उरुचक्रिरद्भुतः ॥४॥ जो याजक यज्ञ में ब्रह्मणस्पतिदेव के निमित्त घृत युक्त हव्य से आहुतियाँ समर्पित करता है, उसे ब्रह्मणस्पतिदेव उत्तम संरक्षण प्रदान करते हैं, पाप से बचाते हैं, दारिद्य आदि कष्ट से रक्षा करते हैं और देवत्व के मार्ग में बढ़ाते हुए अद्भुत महान् बना देते हैं॥४॥

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