ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ९०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ९० ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- विश्वेदेवाः । छंद - अनुष्टुप ऋजुनीती नो वरुणो मित्रो नयतु विद्वान् । अर्यमा देवैः सजोषाः ॥१॥ ज्ञानी देव मित्र और वरुण हमें सरल नीति पथ पर बढ़ाते हैं। देवों के सहचर अर्यमा हमें सरल मार्ग से उन्नतिशील बनायें ॥१॥ ते हि वस्वो वसवानास्ते अप्रमूरा महोभिः । व्रता रक्षन्ते विश्वाहा ॥२॥ वे धनों के धारणकर्ता धनपति, प्रकृष्ट बुद्धि सम्पन्न, महान् सामथ्र्यों से सम्पूर्ण शत्रुओं के नाशक नियमों में अटल हैं॥२॥ ते अस्मभ्यं शर्म यंसन्नमृता मर्त्यभ्यः । बाधमाना अप द्विषः ॥३॥ वे अविनाशी देवगण हमारे शत्रुओं का नाश करके हम मनुष्यों को सब भाँति सुख देते हैं॥३॥ वि नः पथः सुविताय चियन्त्विन्द्रो मरुतः । पूषा भगो वन्द्यासः ॥४॥ ये वन्दनीय देवगण इन्द्र, मरुत्, पूषा और भग हमें कल्याणकारी पथ पर प्रेरित करें ॥४॥ उत नो धियो गोअग्राः पूषन्विष्णवेवयावः । कर्ता नः स्वस्तिमतः ॥५॥ हे पूषन् ! हे विष्णो ! हे गतिशील मरुतो! आप हमारी बुद्धि को गो सदृश (पोषक विचार स्रवित करने वाली) बनायें। (इस प्रकार) हमारा कल्याण करें ॥५॥ मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ॥६॥ यज्ञ कर्म करने वालों के लिये वायु एवं नदियाँ मधुर प्रवाह पैदा करें । सभी ओषधियाँ मधुर रस से सम्पन्न हों ॥६॥ मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता ॥७॥ पिता की तरह पोषणकर्ता दिव्यलोक हमारे लिए माधुर्य युक्त हो । मातृवत् रक्षक पृथ्वी की रज भी मधु के समान आनन्दप्रद हो । रात्रि और देवी उषा भी हमारे लिये माधुर्ययुक्त हों ॥७॥ मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥८॥ सम्पूर्ण वनस्पतियाँ हमारे लिये मधुर सुख प्रदायक हों। सूर्यदेव हमें अपने माधुर्य (तेजस्वी किरणों से परिपुष्ट करें तथा गौएँ भी हमारे लिये अमृत स्वरूष मधुर दुग्ध रस प्रदान करने में सक्षम हों ॥८॥ शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥९॥ मित्रदेव, श्रेष्ठ वरुणदेव, न्यायकारी अर्यमादेव, ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव, वाणी के स्वामी बृहस्पतिदेव, संसार के पालन करने वाले विष्णुदेव हम सबके लिये कल्याणकारी हों ॥९॥

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