Mandal Brahman Upanishad Third Brahman (मण्डल ब्राह्मण उपनिषद) तृतीय ब्राह्मण

॥ श्री हरि ॥ ॥ मण्डलब्राह्मणोपनिषत् ॥ ॥ मण्डल ब्राह्मण उपनिषद ॥ तृतीयं ब्राह्मणम्-तृतीय ब्राह्मण याज्ञवल्क्यो महामुनिर्मण्डलपुरुषं पप्रच्छ स्वामिन्नमनस्कलक्षणमुक्तमपि विस्मृतं पुनस्तल्लक्षणं ब्रूहीति । तथेति मण्डलपुरुषोऽब्रवीत् । इदममनस्कमतिरहस्यम् । यज्ज्ञानेन कृतार्थो भवति तन्नित्यं शांभवीमुद्रान्वितम् । परमात्मदृष्ट्या तत्प्रत्ययलक्ष्याणि दृष्ट्वा तदनु सर्वेशमप्रमेयमजं शिवं परमाकाशं निरालम्बमद्वयं ब्रह्मविष्णुरुद्रादीना- मेकलक्ष्यं सर्वकारणं परंब्रह्मात्मन्येव पश्यमानो गुहाविहरणमेव निश्चयेन ज्ञात्वा भावाभावादिद्वन्द्वातीतः संविदितमनोन्मन्यनुभवस्तदनन्तरमखिलेन्द्रियक्षयवशादमनस्क- सुखब्रह्मानन्दसमुद्रे मनःप्रवाहयोगरूपनिवातस्थितदीपवदचलं परंब्रह्म प्राप्नोति । ततः शुष्कवृक्षवन्मूर्च्छानिद्रामय- निःश्वासोच्छ्वासाभावान्नष्टद्वन्द्वः सदाचञ्चलगात्रः परमशान्तिं स्वीकृत्य मनः प्रचारशून्यं परमात्मनि लीनं भवति । पयस्रावानन्तरं धेनुस्तनक्षीरमिव सर्वेन्द्रियवर्गे परिनष्टे मनोनाशं भवति तदेवामनस्कम् । तदनु नित्यशुद्धः परमात्माहमेवेति तत्त्वमसीत्युपदेशेन त्वमेवाहमहमेव त्वमिति तारकयोगमार्गेणाखण्डानन्दपूर्णः कृतार्थो भवति ॥ १॥ महामुनि याज्ञवल्क्य ने सूर्य मण्डल स्थित पुरुष से कहा-"हे स्वामी! आपने अमनस्क स्थिति के लक्षणों के विषय में मुझे उपदेश दिया, अब वह मुझे विस्मृत हो गया है, अतः कृपा करके पुनः उसके लक्षणों को मुझे बताएँ" ॥ वह मण्डल पुरुष बोला-बहुत अच्छा, "यह अमनस्क स्थिति अतिरहस्यमय है। इसके ज्ञान से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है और वह नित्य ही शाम्भवी मुद्रा से समन्वित होता है" ॥ परमात्म दृष्टि से उसका अनुभव कराने वाले लक्ष्यों को देखकर सबके ईश्वर, अप्रमेय, अज, शिव (कल्याणकारी), परम आकाश, निरालम्ब, अद्वितीय, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि के एकमात्र लक्ष्यरूप सभी के कारण परम ब्रह्म को आत्मरूप में देखने वाला पुरुष हृदयगुहा में ही विहार करता हुआ निश्चय पूर्वक जानकर, भाव- अभाव आदि द्वन्द्वों से अतीत होकर, मन की उन्मनी अवस्था का अनुभव करता है। तत्पश्चात् समस्त इन्द्रियों के (इन्द्रिय जन्य प्रवृत्ति के) क्षय होने पर, अमनस्क सुख रूप ब्रह्मानन्द सागर में उसका मनःप्रवाह बहता है, जिसके योग से वह वायुशून्य स्थल में स्थित दीपक के समान अचल परब्रह्म को प्राप्त करता है॥ तत्पश्चात् शुष्क वृक्षवत् मूच्छ और निद्रा की स्थिति में श्वासोच्छ्वास के अभाव में सुख- दुःख आदि द्वन्द्व विनष्ट हो जाते हैं और शरीर अचञ्चल हो जाता है। ऐसी स्थिति का व्यक्ति परम शान्ति को स्वीकार कर लेता है, जिससे मन प्रचार-शून्य बन जाता है तथा परमात्मा में लीन हो जाता है। जिस प्रकार दुग्ध दोहन कर लेने के उपरान्त वह गाय के स्तनों में नहीं रहता, उसी प्रकार समस्त इन्द्रिय वर्ग के विनष्ट हो जाने पर मन का भी विनाश हो जाता है-यही अमनस्क स्थिति है। इसके उपरान्त 'मैं ही नित्य शुद्ध परमात्मा हूँ इस प्रकार 'तत्त्वमसि' उपदेश प्राप्त हो जाने से 'तुम ही मैं हूँ, 'मैं ही तुम हो' इस तारक योग मार्ग से अखण्डानन्द पाकर (साधक) पूर्णरूपेण कृतकृत्य हो जाता है॥१॥ परिपूर्णपराकाशमग्नमनाः प्राप्तोन्मन्यवस्थः संन्यस्तसर्वेन्द्रियवर्गः अनेकजन्मार्जितपुण्यपुञ्जपक्व- कैवल्यफलोऽखण्डानन्दनिरस्तसर्वक्लेशकश्मलो ब्रह्माहमस्मीति कृतकृत्यो भवति । त्वमेवाहं न भेदोऽस्ति पूर्णत्वात्परमात्मनः । इत्युच्चरन्त्समालिङ्ग्य शिष्यं ज्ञप्तिमनीनयत् ॥ २॥ जिसका मन परमाकाश में पूर्णरूपेण मग्न हो गया हो, जिसे उन्मनी अवस्था प्राप्त हो गई हो एवं जो समस्त इन्द्रिय वर्ग से वियुक्त हो गया हो, अनेक जन्मों से प्राप्त हुए पुण्यपुञ्ज द्वारा उसका कैवल्य स्वरूप फल परिपक्व हो जाता है। अखण्डानन्द प्राप्त कर लेने से उसके समस्त क्लेश रूप पाप विनष्ट हो जाते हैं। तदुपरान्त 'मैं ब्रह्म हूँ' इस भाव से वह निरन्तर अभिभूत रहता हुआ कृतकृत्य हो जाता है॥ परमात्मा पूर्ण है, इसलिए 'तू ही मैं हूँ ऐसा उच्चारण करते हुए गुरु (मण्डल पुरुष) ने शिष्य (याज्ञवल्क्य) का आलिङ्गन (भेंट) करते हुए उसे इस ज्ञान का उपदेश किया था॥२॥ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ३॥ ॥ तृतीय ब्राह्मण समाप्त ॥

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