ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १८१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १८१ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता - आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप कदु प्रेष्टाविषां रयीणामध्वर्यन्ता यदुन्निनीथो अपाम् । अयं वां यज्ञो अकृत प्रशस्तिं वसुधिती अवितारा जनानाम् ॥१॥ हे मनुष्यों के संरक्षक और ऐश्वर्यदाता अश्विनीकुमारों ! इस यज्ञ में आपकी ही प्रशंसा होती हैं। आप यज्ञ हेतु जलों, अन्नों और धन सम्पदाओं को प्रेरित करते हैं, वह क्रम किस समय प्रारम्भ करेंगे ? ॥१॥ आ वामश्वासः शुचयः पयस्पा वातरंहसो दिव्यासो अत्याः । मनोजुवो वृषणो वीतपृष्ठा एह स्वराजो अश्विना वहन्तु ॥२॥ हे अश्विनीकुमारो ! पवित्र, दिव्यता युक्त, गतिशील, वायु के समान वेगवान्, दुग्धाहारी, मन के समान गतिशील, शक्तिशाली, उज्ज्वल पृष्ठ भाग वाले और स्वयं तेजस्विता युक्त गुणों से सुशोभित घोड़े, आप दोनों को हमारे यज्ञ में लायें ॥२॥ आ वां रथोऽवनिर्न प्रवत्वान्त्सृप्रवन्धुरः सुविताय गम्याः । वृष्णः स्थातारा मनसो जवीयानहम्पूर्वी यजतो धिष्ण्या यः ॥३॥ हे उच्च भाग में प्रतिष्ठित, एक ही स्थान पर स्थिर होकर रहने वाले अश्विनीकुमारो ! मन के समान गतिशील, उत्तम अग्र भाग वाला, भूमि के समान व्यापक, अग्रगामी, शक्तिशाली रथ हमारे कल्याण की कामना से आपको हमारे समीप ले आये ॥३॥ इहेह जाता समवावशीतामरेपसा तन्वा नामभिः स्वैः । जिष्णुर्वामन्यः सुमखस्य सूरिर्दिवो अन्यः सुभगः पुत्र ऊहे ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों निर्दोष शरीरों से तथा अपने नामों से प्रख्यात हुए इस लोक में भली-भाँति प्रशंसित हो चुके हैं। आप दोनों में से एक विजयी, श्रेष्ठ मुख वाले (देव मुख रूप यज्ञ) के प्रेरक हैं तथा दूसरे दिव्य लोक के पुत्र होकर श्रेष्ठ ऐश्वर्यों के धारणकर्ता हैं॥४॥ प्र वां निचेरुः ककुहो वशाँ अनु पिशङ्गरूपः सदनानि गम्याः । हरी अन्यस्य पीपयन्त वाजैर्मश्रा रजांस्यश्विना वि घोषैः ॥५॥ हे अश्विनीकुमारों ! आप दोनों में एक को पीतवर्ण युक्त (सूर्य के समान स्वर्णिम) तथा सर्वत्र गमनशील रथ, इच्छित दिशाओं एवं आवासों में पहुँचता है। दूसरे के मन्थन से उत्पन्न घोड़े (अग्नि) अन्नों एवं उद्घोषों (मंत्रों) सहित सम्पूर्ण लोकों को पुष्टि प्रदान करते हैं॥५॥ प्र वां शरद्वान्वृषभो न निष्षाट् पूर्वीरिषश्चरति मध्व इष्णन् । एवैरन्यस्य पीपयन्त वाजैर्वेषन्तीरूर्ध्वा नद्यो न आगुः ॥६॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों में से एक प्राचीन सामर्थ्यशाली शत्रुसेना को पराजित करने वाले हैं और अन्न में मधुर रस की उत्पत्ति हेतु सर्वत्र विचरण करते हैं। दूसरे अन्नों को समृद्ध करने वाली ऊर्ध्वगामी नदियों को वेग पूर्वक प्रवाहित करते हैं। आप दोनों हमारे समीप आयें ॥६॥ असर्जि वां स्थविरा वेधसा गीर्बाव्हे अश्विना त्रेधा क्षरन्ती । उपस्तुताववतं नाधमानं यामन्नयामञ्छृणुतं हवं मे ॥७॥ (अपने कार्य में दक्ष है अश्विनीकुमारो ! आप दोनों के लिए प्राचीन काल से प्रचलित, सामर्थ्य बढ़ाने वाली स्तुतियाँ तीनों प्रकार (ऋक्, यजुषु एवं सामगान के रूप में की गई हैं। हमारे द्वारा की गई प्रार्थना को ज्ञाते हुए अथवा रुक कर सुनने की कृपा करें और साधकों की रक्षा करें ॥७॥ उत स्या वां रुशतो वप्ससो गीस्त्रिबर्हिषि सदसि पिन्वते नृन् । वृषा वां मेघो वृषणा पीपाय गोर्न सेके मनुषो दशस्यन् ॥८॥ हे सामर्थ्यवान् अश्विदेवो! आप दोनों के देदीप्यमान स्वरूप का गुणगान करने वाली यह स्तोत्रवाणी, तीन कुश आसनों से युक्त यज्ञस्थल में मनुष्यों को परिपुष्ट करती है। जिस प्रकार गौ दूध देकर पौष्टिकता प्रदान करती है, उसी प्रकार आपकी प्रेरणा से मेघ भी पोषण प्रदान करते हैं ॥८ ॥ युवां पूषेवाश्विना पुरंधिरग्निमुषां न जरते हविष्मान् । हुवे यद्वां वरिवस्या गृणानो विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥९॥ हे अश्विनीकुमारो ! अनेकों के धारणकर्ता पूषादेव जिस प्रकार पोषण करते हैं, उसी प्रकार हविष्यान्न को साथ लेकर यजमान यज्ञ द्वारा उषा और अग्नि के सदृश ही आप दोनों की प्रार्थना करते हैं। हम कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए विनम्रता पूर्वक आपकी प्रार्थना करते हैं, जिससे हम अतिशीघ अन्न, बल और धन प्राप्त कर सकें ॥९॥

Recommendations