ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ७६

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ७६ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप आ भात्यग्निरुषसामनीकमुद्विप्राणां देवया वाचो अस्थुः । अर्वाच्चा नूनं रथ्येह यातं पीपिवांसमश्विना घर्ममच्छ ॥१॥ उषा के मुखरूप ये अग्निदेव दीप्तिमान् हो गये हैं (उषाकाल में अग्निहोत्र प्रारंभ हो गया हैं) तथा दिव्य स्तुतियाँ भी प्रारंभ हो गयी हैं। हे रथ में विराजित अश्विनीकुमारो! हमें दर्शन देकर यज्ञ में पीने योग्य सोम के समीप उपस्थित होने की कृपा करें ॥१॥ न संस्कृतं प्र मिमीतो गमिष्ठान्ति नूनमश्विनोपस्तुतेह । दिवाभिपित्वेऽवसागमिष्ठा प्रत्यवर्ति दाशुषे शम्भविष्ठा ॥२॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप संस्कारितों (प्राणियों, पदार्थों, क्रियाओं) को क्षति नहीं पहुँचाते हैं। इस यज्ञ में उपस्थित होने वाले, आपके निमित्त स्तुति की जाती हैं। दिन के प्रारंभ होते ही हुव्य पदार्थ लेकर आते हुए विदाता (याजक) को आप सुख प्रदान करने वाले हैं ॥२॥ उता यातं संगवे प्रातरह्नो मध्यंदिन उदिता सूर्यस्य । दिवा नक्तमवसा शंतमेन नेदानीं पीतिरश्विना ततान ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! दिन में गाय दुहने (सायं गोधूलि वेला) के समय, प्रातः सूर्योदय के समय, मध्याह्न काले में, दिन के प्रखर रूप (अपराह्न काल) में अर्थात् सम्पूर्ण दिन-रात्रि में हमेशा सुखदायी, रक्षा करने के साधनों सहित पधारें । अभी सोमपान की क्रिया प्रारंभ नहीं हुई हैं। अतः आप शीघ्र पधारें ॥३॥ इदं हि वां प्रदिवि स्थानमोक इमे गृहा अश्विनेदं दुरोणम् । आ नो दिवो बृहतः पर्वतादाद्भयो यातमिषमूर्जं वहन्ता ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों के लिए यह उत्तर वेदी आपका पुरातन निवास योग्य स्थान है। ये सम्पूर्ण गृह और आश्रय-स्थान भी आपके ही हैं। आप उदक पूर्ण मेघों द्वारा अन्तरिक्ष से हमारे निमित्त अन्न और बल वहन करके यहाँ आएँ ॥४॥ समश्विनोरवसा नूतनेन मयोभुवा सुप्रणीती गमेम । आ नो रयिं वहतमोत वीराना विश्वान्यमृता सौभगानि ॥५॥ हम सब अश्विनीकुमारों के नूतन संरक्षण-सामथ्र्यो, सुखदायक अनुग्रहों और उत्तम नेतृत्व से संयुक्त हों । हे अविनाशी अश्विनीकुमारो ! हमारे निमित्त सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण सौभाग्य और वीर पुत्रों को प्रदान करें ॥५॥

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