ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त ५ ऋषि - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - आप्रीसूक्तं । छंद - गायत्री सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्र जुहोतन । अग्नये जातवेदसे ॥१॥ (हे यजमान !} श्रेष्ठ, भली-भाँति प्रज्वलित, जाज्वल्यमान, सर्वज्ञ (जातवेदा), देदीप्यमान यज्ञाग्नि में शुद्ध पिघले हुए घृत की आहुतियाँ प्रदान करें ॥१॥ नराशंसः सुषूदतीमं यज्ञमदाभ्यः । कविर्हि मधुहस्त्यः ॥२॥ मनुष्यों द्वारा अति प्रशंसित ये अग्निदेव इस यज्ञ को भली प्रकार सम्पन्न करें। वे अग्निदेव अडिग, ज्ञान-सम्पन्न और मधुर रश्मियुक्त हैं ॥२॥ ईळितो अग्न आ वहेन्द्रं चित्रमिह प्रियम् । सुखै रथेभिरूतये ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप सबके द्वारा स्तुत्य हैं। आप हमारी रक्षा के निमित्त प्रिय और विलक्षण शक्ति सम्पन्न इन्द्रदेव को यहाँ सुखकारी रथों से ले आयें ॥३॥ ऊर्णम्रदा वि प्रथस्वाभ्यर्का अनूषत । भवा नः शुभ्र सातये ॥४॥ हे मनुष्यो ! आप ऊन के समान मृदु एवं सुखप्रद आसनों को बिछायें, क्योंकि स्तोताओं ने स्तुतियाँ आरम्भ कर दी हैं। हे शुभ्र अग्निदेव ! स्तुतियों से वृद्धि को प्राप्त हुए आप हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों ॥४॥ देवीद्वरो वि श्रयध्वं सुप्रायणा न ऊतये । प्रप्र यज्ञं पृणीतन ॥५॥ हे हवियों ! आप उत्तम गुणों वाली, दिव्य द्वारों को खोलने वाली और श्रेष्ठ कर्म वाली हैं। आप हमारी रक्षा के निमित्त यज्ञ को परिपूर्ण करें ॥५॥ सुप्रतीके वयोवृधा यह्वी ऋतस्य मातरा । दोषामुषासमीमहे ॥६॥ सुन्दर रूप वाली, आयु बढ़ाने वाली, महान् कर्मों को सम्पन्न कराने वाली, यज्ञ कर्मों की निर्मात्री रात्रि और उषा देवियों की हम उत्तम स्तुति करते हैं ॥६॥ वातस्य पत्मन्नीळिता दैव्या होतारा मनुषः । इमं नो यज्ञमा गतम् ॥७॥ हे अग्नि और आदित्य रूप दिव्य होताओ! आप दोनों हम मनुष्यों के इस यज्ञ में स्तुति से प्रेरित होकर वायु की गति से आयें ॥७॥ इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः ॥८॥ इला, सरस्वती और मही (महान् भारती) तीनों देवियाँ सुखकारक हैं । ये मार्ग में अबाधित होकर हमारे यज्ञ में अधिष्ठित हों ॥८॥ शिवस्त्वष्टरिहा गहि विभुः पोष उत त्मना । यज्ञेयज्ञे न उदव ॥९॥ हे त्वष्टादेव ! आप व्यापक सामर्थ्य सम्पन्न और कल्याणकारी कर्म करने वाले हैं। आप हमारे यज्ञ में आगमन करें। हमारे प्रत्येक यज्ञ कर्म के उत्तम पद में प्रतिष्ठित होकर हमारे रक्षक हों ॥९॥ यत्र वेत्थ वनस्पते देवानां गुह्या नामानि । तत्र हव्यानि गामय ॥१०॥ हे वनस्पते ! जहाँ-जहाँ आप देवों के गुप्त स्थानों को जानते हैं, वहाँ- वहाँ इन हव्यादि साधनों को पहुँचायें ॥१०॥ स्वाहाग्नये वरुणाय स्वाहेन्द्राय मरुद्भयः । स्वाहा देवेभ्यो हविः ॥११॥ यह हवि अग्नि और वरुण देवों के लिए समर्पित हैं। यह हवि इन्द्रदेव और मरुद्गणों के लिए समर्पित है ॥११॥

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