ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ७९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ७९ ऋषि – गौतमो राहुगणः:: देवता - अग्नि । छंद -१-३ त्रिष्टुप, ४-६ उषणिक, ७-१२ गायत्री हिरण्यकेशो रजसो विसारेऽहिधुनिर्वात इव ध्रजीमान् । शुचिभ्राजा उषसो नवेदा यशस्वतीरपस्युवो न सत्याः ॥१॥ ये अग्निदेव स्वर्णिम् ज्वालाओं से युक्त लोकों के विस्तारक, मेघा को कंपाने वाले, वायु के समान वेग वाले हैं। शुभ कान्ति-से युक्त ये अग्निदेव देवी उषा के लिए अन्तरक्ष का विस्तार करते हैं। अपने कर्म में रत, सरल यशस्विनी देवी उषां इस बात से अनभिज्ञ हैं॥१॥ आ ते सुपर्णा अमिनन्तँ एवैः कृष्णो नोनाव वृषभो यदीदम् । शिवाभिर्न स्मयमानाभिरागात्पतन्ति मिहः स्तनयन्त्यभ्रा ॥२॥ हे अग्निदेव ! आपकी दीप्तिमान् रश्मियाँ नीचे आती हुई मेघों से टकराती हैं, तब वर्पण शील कृष्णवर्ण मेघ गरजने लगते हैं। ये मेघ विद्युत् से युक्त गर्जना करते हुए मानो हास्यमयी वृष्टि करते हैं॥२॥ यदीमृतस्य पयसा पियानो नयन्नृतस्य पथिभी रजिष्ठैः । अर्यमा मित्रो वरुणः परिज्मा त्वचं पृञ्चन्त्युपरस्य योनौ ॥३॥ ये अग्निदेव यज्ञ के रसों से चराचर जगत् का पोषण करते हैं, यज्ञ के प्रभाव को सरल मार्गों से अंतरिक्ष में पहुँचाते हैं। तब अर्यमा, मित्र, वरुण एवं मरुद्गण मेघों के उत्पत्ति स्थल पर इनकी त्वचा में जल को स्थापित करते हैं॥३॥ अग्ने वाजस्य गोमत ईशानः सहसो यहो । अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः ॥४॥ बल से (अरणि मंथन से) उत्पन्न होने वाले हे जातवेदा अग्निदेव ! आप अन्न एवं गौ आदि पशु धन से सम्पन्न हैं। आप हमारे लिए भी अपार वैभव प्रदान करें ॥४॥ स इधानो वसुष्कविरग्निरीळेन्यो गिरा । रेवदस्मभ्यं पुर्वणीक दीदिहि ॥५॥ ज्वालाओं के रूप में विभिन्न मुखों वाले जाज्वल्यमान हे अग्निदेव ! आप त्रिकालदर्शी एवं सभी के आश्रय स्थल हैं। दिव्य स्तुतियों से संतुष्ट हुए यज्ञ में सर्वप्रथम उपस्थित होने वाले आप हमें अपनी तेजस्विता से अपार धन-वैभव प्रदान करें ॥५॥ क्षपो राजन्नुत त्मनाग्ने वस्तोरुतोषसः । स तिग्मजम्भ रक्षसो दह प्रति ॥६॥ लपटों के रूप में विकराल दादों वाले हे तेजस्वी अग्निदेव ! अपने तीक्ष्ण स्वभाव से आप असुरों का संहार करने वाले हैं, अतएव हमारे लिए हानिकारक रात्रि और दिन के तथा उषा काल के सभी असुरों (विकारों) को भस्म कर दें ॥६॥ अवा नो अग्न ऊतिभिर्गायत्रस्य प्रभर्मणि । विश्वासु धीषु वन्द्य ॥७॥ हे अग्निदेव ! आप सभी यज्ञों में वन्दनीय हैं। गायत्री छन्द वाले सामगान से स्तुति करने पर प्रसन्न हुए आप अपने संरक्षण-साधनों से हमारी रक्षा करें ॥७॥ आ नो अग्ने रयिं भर सत्रासाहं वरेण्यम् । विश्वासु पृत्सु दुष्टरम् ॥८॥ हे अग्निदेव ! दरिद्रता को नष्ट करने वाले, शत्रुओं को पराजित करने वाले, वरण करने योग्य आप हमें श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करें ॥८॥ आ नो अग्ने सुचेतुना रयिं विश्वायुपोषसम् । मार्डीकं धेहि जीवसे ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप उत्तम ज्ञान से युक्त जीवन भर पोषण-सामर्थ्य प्रदान करने वाला सुखदायक धन, हमारे दीर्घ जीवन के लिए हमें प्रदान करें ॥९॥ प्र पूतास्तिग्मशोचिषे वाचो गोतमाग्नये । भरस्व सुम्नयुर्गिरः ॥१०॥ हे गोतम (गोतमयंशीय याजक गण) ! आप सुख की इच्छा से तीक्ष्ण ज्वालाओं वाले अग्निदेव के लिए पवित्र वचनों वाली स्तुतियों का उच्चारण करें ॥१०॥ यो नो अग्नेऽभिदासत्यन्ति दूरे पदीष्ट सः । अस्माकमिवृधे भव ॥११॥ हे अग्निदेव ! समीपस्थ या दूरस्थ जो शत्रु हमें अपने वश में करके बन्धक बनाना चाहें, उनका पतन हो। आप हमारी वृद्धि करने वाले हों ॥ ११॥ सहस्राक्षो विचर्षणिरग्नी रक्षांसि सेधति । होता गृणीत उक्थ्यः ॥१२॥ हे अग्निदेव ! आप सहस्रों ज्वालाओं रूपी नेत्रों से सबको देखने वाले हैं। आप प्रशंसनीय होता रूप में स्तुतियों से प्रशंसित होते हैं ॥१२॥

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