ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ९२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ९२ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- उषा, १६-१८ आश्विनौ । छंद १-४ जगती, ५-१२ त्रिष्टुप, १३-१८ उषणिक एता उ त्या उषसः केतुमक्रत पूर्वे अर्धे रजसो भानुमज्ञ्जते । निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः प्रति गावोऽरुषीर्यन्ति मातरः ॥१॥ नित्यप्रति ये उषायें उजाला लाती हैं। (इस समय) आकाश के पूर्वार्द्ध में प्रकाश फैल जाता है। जैसे वीर शस्त्रों को पैना करते हैं (चमकाते हैं), उसी प्रकार अपने प्रकाश से जगत् को प्रकाशित करती हुईं वे गमनशील और तेजस्वी लालवर्ण की गौएँ (किरणे) आगे बढ़ती हैं॥१॥ उदपप्तन्नरुणा भानवो वृथा स्वायुजो अरुषीर्गा अयुक्षत । अक्रन्नुषासो वयुनानि पूर्वथा रुशन्तं भानुमरुषीरशिश्रयुः ॥२॥ (उषा काल में) अरुणाभ किरणे स्वाभाविक रूप में (क्षितिज के) ऊपर आ गई हैं। स्वयं जुते हुए बैलों (किरणों) के रथ से देवी उषा ने पहले ज्ञान का (चेतना का संचार किया, फिर प्रकाश दाता तेजस्वी सूर्यदेव की सेवा (सहायता) करने लगीं ॥२॥ अर्चन्ति नारीरपसो न विष्टिभिः समानेन योजनेना परावतः । इषं वहन्तीः सुकृते सुदानवे विश्वेदह यजमानाय सुन्वते ॥३॥ (���ज्ञादि) श्रेष्ठ कर्म और श्रेष्ठ प्रयोजन हेतु दान देने वाले, सोमरस को संस्कारित करने वाले, यजमान को अपनी किरणों (के प्रभाव) से प्रचुर मात्रा में अन्नादि देती हुई (उषा) आकाश को अपने तेज से परिपूर्ण करती हैं। रण में शस्त्रों से सज्जित वीर के तुल्य देवी उषा आकाश को सुन्दर दीप्तिमान् बना देती हैं॥३॥ अधि पेशांसि वपते नृतूरिवापोर्णते वक्ष उसेव बर्जहम् । ा ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वती गावो न व्रजं व्युषा आवर्तमः ॥४॥ ये देवी उषा नर्तकी के समान विविध रूपों को धारण कर उतरती हैं। ये देवी उषा गौ के समान (दूध की तरही पोषक प्रवाह प्रदान करने के लिए अपना वक्ष खोल देती हैं। ये देवी उषा सम्पूर्ण लोकों को प्रकाश से व्याप्त करती हैं और तमिस्रा को मिटाकर सबकी रक्षा करती हैं॥४॥ प्रत्यर्ची रुशदस्या अदर्शि वि तिष्ठते बाधते कृष्णमभ्वम् । स्वरुं न पेशो विदथेष्वज्ञ्जञ्चित्रं दिवो दुहिता भानुमश्रेत् ॥५॥ इन देवी उषा की दीप्तियाँ उदित होकर सर्वत्र फैल रही हैं और व्यापक तमिस्रा को दूर करती हैं। यज्ञों में जैसे यूप को घृत से लीपकर सुन्दर बनाते हैं, वैसे ही आकाश पुत्री देवी उषा विलक्षण प्रकाश को धारण करती हैं॥५॥ अतारिष्म तमसस्पारमस्योषा उच्छन्ती वयुना कृणोति । श्रिये छन्दो न स्मयते विभाती सुप्रतीका सौमनसायाजीगः ॥६॥ हम उस अंधकार से पार हो गये। प्रकाशवती देवी उषा सब कुछ स्पष्ट कर देती हैं। कवि द्वारा छन्दों से अलंकृत करने के समान और पति को प्रसन्न करने के लिए अलंकारों से सुसज्जित सुन्दर स्त्री के समान दिव्य प्रकाश से अलंकृत देवी उषा मुस्कराती हैं॥६॥ भास्वती नेत्री सूनृतानां दिवः स्तवे दुहिता गोतमेभिः । प्रजावतो नृवतो अश्वबुध्यानुषो गोअग्राँ उप मासि वाजान् ॥७॥ ये प्रकाशमती, सत्यवाणी को प्रेरित करने वाली, आकाशपुत्री उषा गोतम ऋषि द्वारा स्तुत्य है। हे उषे! आप हमें पुत्र-पौत्रों, अश्वों, गौओं तथा विविध प्रकार के धन-धान्यों से सम्पन्न करें ॥७॥ उषस्तमश्यां यशसं सुवीरं दासप्रवर्गं रयिमश्वबुध्यम् । सुदंससा श्रवसा या विभासि वाजप्रसूता सुभगे बृहन्तम् ॥८॥ हे सौभाग्य शालिनि उषे! हमें सुन्दर पुत्रों, सेवकों, अश्वों से युक्त उस यशस्वी धन को प्राप्त करायें। आप उत्तम कर्म वाली, यशस्विनी, अन्न उत्पन्न करने वाली हैं। अपने ऐश्वर्यों से हमें भी प्रकाशित करें ॥८॥ विश्वानि देवी भुवनाभिचक्ष्या प्रतीची चक्षुरुर्विया वि भाति । विश्वं जीवं चरसे बोधयन्ती विश्वस्य वाचमविदन्मनायोः ॥९॥ ये देवी उषा सभी लोकों को देखती हुई पश्चिम की ओर मुख करके विशिष्ट प्रकाश से प्रतिभासित होती हैं। यह सब जीवों को जगाकर गतिवान् बनाती हैं। विश्व के मननशील मानवों की वाणी को प्रेरणा देती हैं ॥९॥ पुनःपुनर्जायमाना पुराणी समानं वर्णमभि शुम्भमाना । श्वघ्नीव कृत्लुर्विज आमिनाना मर्तस्य देवी जरयन्त्यायुः ॥१०॥ पुनः पुनः प्रकट होने वाली पुरातन देवी उषा प्रतिदिन एक समान वर्ण को प्राप्त कर अति सुशोभित होती हैं। ये देवी उषा मनुष्य की आयु को उसी प्रकार क्षीण करती जाती हैं, जैसे व्याधिनी पक्षियों की संख्या क्षीण करती जाती है॥१०॥ व्यूर्वती दिवो अन्ताँ अबोध्यप स्वसारं सनुतर्युयोति । प्रमिनती मनुष्या युगानि योषा जारस्य चक्षसा वि भाति ॥११॥ वे देवी उषा आकाश के विस्तृत प्रदेशों को प्रकाशित करने के लिए जाग उठी हैं। वे अपनी बहिन रात्रि को दूर छिपाती हैं। ये मानवीं युगों को विनष्ट करती हुईं (अर्थात् नित्यप्रति मनुष्य की आयु को कम करती) सूर्यदेव के दर्शन से विशेष प्रकाशित होती हैं॥११॥ पशून्न चित्रा सुभगा प्रथाना सिन्धुर्न क्षोद उर्विया व्यश्वेत् । अमिनती दैव्यानि व्रतानि सूर्यस्य चेति रश्मिभिर्दृशाना ॥१२॥ विश्वानि देवी भुवनाभिचक्ष्या प्रतीची चक्षुरुर्विया वि भाति । विश्वं जीवं चरसे बोधयन्ती विश्वस्य वाचमविदन्मनायोः ॥९॥ ये देवी उषा सभी लोकों को देखती हुई पश्चिम की ओर मुख करके विशिष्ट प्रकाश से प्रतिभासित होती हैं। यह सब जीवों को जगाकर गतिवान् बनाती हैं। विश्व के मननशील मानवों की वाणी को प्रेरणा देती हैं ॥९॥ पुनःपुनर्जायमाना पुराणी समानं वर्णमभि शुम्भमाना । श्वघ्नीव कृत्लुर्विज आमिनाना मर्तस्य देवी जरयन्त्यायुः ॥१०॥ पुनः पुनः प्रकट होने वाली पुरातन देवी उषा प्रतिदिन एक समान वर्ण को प्राप्त कर अति सुशोभित होती हैं। ये देवी उषा मनुष्य की आयु को उसी प्रकार क्षीण करती जाती हैं, जैसे व्याधिनी पक्षियों की संख्या क्षीण करती जाती है॥१०॥ व्यूर्वती दिवो अन्ताँ अबोध्यप स्वसारं सनुतर्युयोति । प्रमिनती मनुष्या युगानि योषा जारस्य चक्षसा वि भाति ॥११॥ वे देवी उषा आकाश के विस्तृत प्रदेशों को प्रकाशित करने के लिए जाग उठी हैं। वे अपनी बहिन रात्रि को दूर छिपाती हैं। ये मानवीं युगों को विनष्ट करती हुईं (अर्थात् नित्यप्रति मनुष्य की आयु को कम करती) सूर्यदेव के दर्शन से विशेष प्रकाशित होती हैं॥११॥ पशून्न चित्रा सुभगा प्रथाना सिन्धुर्न क्षोद उर्विया व्यश्वेत् । अमिनती दैव्यानि व्रतानि सूर्यस्य चेति रश्मिभिर्दृशाना ॥१२॥ उज्ज्वल वर्णवाली, सौभाग्यशालिनी देवी उषा गौशाला से निकले हुए पशुओं के समान विस्तार को प्राप्त होती हैं। नदियों में बढ़ते जल के समान फैलती हुई जाती हैं। ये देवी उषा देवों के श्रेष्ठ कर्मों से विचलित नहीं होती और सूर्य की रश्मियों सी दीखती हुई प्रतीत होती हैं॥१२॥ उषस्तच्चित्रमा भरास्मभ्यं वाजिनीवति । येन तोकं च तनयं च धामहे ॥१३॥ वनों को प्रारम्भ करने वाली हे उषे! हमें वह विलक्षण ऐश्वर्य प्रदान करें, जिससे हम सन्तानादि का पोषण कर सकें ॥१३॥ उषो अद्येह गोमत्यश्वावति विभावरि । रेवदस्मे व्युच्छ सूनृतावति ॥१४॥ गौओं (पोषक तत्वों) और अश्वों (पराक्रम) से युक्त यज्ञ कर्मों की प्रेरक हे उषे ! आप आज हमें धन-धान्य से परिपूर्ण करें ॥१४॥ युवा हि वाजिनीवत्यश्वाँ अद्यारुणाँ उषः । अथा नो विश्वा सौभगान्या वह ॥१५॥ हवनों को प्रारम्भ करने वाली हे उषे! अरुणाभ अश्वों (किरणों) को अपने रथ से युक्त करें और हमें विश्व के सब सौभाग्य प्रदान करें ॥१५॥ अश्विना वर्तिरस्मदा गोमद्दस्रा हिरण्यवत् । अर्वाग्रथं समनसा नि यच्छतम् ॥१६॥ शत्रुओं का नाश करने वाले हे अश्विनीकुमारो ! आप गौओं और स्वर्णमय रथ को मनोयोग पूर्वक हमारी ओर प्रेरित करें ॥१६॥ यावित्था श्लोकमा दिवो ज्योतिर्जनाय चक्रथुः । आ न ऊर्ज वहतमश्विना युवम् ॥१७॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप द्युलोक से प्रशंसा योग्य प्रकाश लाकर लोगों का हित करते हैं, ऐसे आप हमें अन्न से पुष्ट करें ॥ १७। एह देवा मयोभुवा दस्रा हिरण्यवर्तनी । उषर्बुधो वहन्तु सोमपीतये ॥१८॥ देवी उषा के साथ जाग्रत् अश्व (शक्तिप्रवाह) स्वर्णिम प्रकाश में स्थित दुःख निवारक एवं सुखदायी अश्विनीकुमारों को इस यज्ञ में सोमपान के लिये लायें ॥ १८ ॥

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