ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४७

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४७ ऋषिः प्रतिरथ आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा । छंद - त्रिष्टुप प्रयुञ्जती दिव एति ब्रुवाणा मही माता दुहितुर्बोधयन्ती । आविवासन्ती युवतिर्मनीषा पितृभ्य आ सदने जोहुवाना ॥१॥ ये स्तुत्य, अत्यन्त विस्तृत मातृरूप उषादेवी अपनी पुत्री पृथ्वी को चैतन्य करती हैं। प्राणियों को अपने कर्मों में योजित करती हुई ये आकाश से प्रकाशित होती हैं। सबकी परिचर्या करने वाली ये तरुणी उषा बुद्धिपूर्वक स्तोत्रों से आवाहित होने पर यज्ञ-गृह में पितृ रूप देवों के साथ आगमन करती हैं ॥१॥ अजिरासस्तदप ईयमाना आतस्थिवांसो अमृतस्य नाभिम् । अनन्तास उरवो विश्वतः सीं परि द्यावापृथिवी यन्ति पन्थाः ॥२॥ सतत गमनशील, प्रकाशित होकर कर्मों को सम्पादित करती हुई अमृत रूप सूर्यदेव की नाभि में स्थित रश्मियाँ सर्वत्र व्याप्त होकर अनन्त पथों से द्यावा और पृथिवी का परिभ्रमण करती हैं ॥२॥ उक्षा समुद्रो अरुषः सुपर्णः पूर्वस्य योनिं पितुरा विवेश । मध्ये दिवो निहितः पृश्निरश्मा वि चक्रमे रजसस्पात्यन्तौ ॥३॥ समुद्र में जल को सिंचित करने वाले दीप्तिमान्, सुन्दर रश्मियों से युक्त ये सूर्यदेव अपने पितृ रूप आकाश के पूर्व स्थान में समाविष्ट हुए हैं। विविध दीप्तियुक्त उल्का के सदृश ये सूर्यदेव आकाश के मध्य में स्थापित होकर परिभ्रमण करते हैं और अन्तरिक्ष जगत् की सीमाओं की रक्षा करते हैं ॥३॥ चत्वार ईं बिभ्रति क्षेमयन्तो दश गर्भ चरसे धापयन्ते । त्रिधातवः परमा अस्य गावो दिवश्चरन्ति परि सद्यो अन्तान् ॥४॥ अपने कल्याण की कामना करते हुए चार ऋत्विग्गण हव्यादि देकर इन सूर्यदेव को धारण करते हैं। दसों दिशाएँ अपने गर्भ से उत्पन्न सूर्यदेव को गति के लिए प्रेरित करती हैं। तीनों लोकों में गमनशील सूर्यदेव की श्रेष्ठ किरणे द्रुतवेग से आकाश के सीमा प्रदेशों में भी परिभ्रमण करती हैं ॥४॥ इदं वपुर्निवचनं जनासश्चरन्ति यन्नद्यस्तस्थुरापः । द्वे यदीं बिभृतो मातुरन्ये इहेह जाते यम्या सबन्धू ॥५॥ हे मनुष्यो ! जिनके कारण ये नदियाँ प्रवाहशील हैं और जल स्थिर रहते हैं, उन सूर्यदेव का शरीर स्तुत्य हैं। माता पृथ्वी के स्वयं उत्पादक उन सूर्यदेव को विश्व-नियामक और बंधुत्व युक्त दो लोक धारण करते हैं ॥५॥ वि तन्वते धियो अस्मा अपांसि वस्त्रा पुत्राय मातरो वयन्ति । उपप्रक्षे वृषणो मोदमाना दिवस्पथा वध्वो यन्त्यच्छ ॥६॥ जैसे माताएँ अपने पुत्रों के वस्त्र बुनती हैं, वैसे यजमान इन सूर्यदेव के लिए स्तुतियां और यज्ञादि कर्म की रचना करते हैं। इन वर्षणशील सूर्यदेव के प्रकट होने पर इनकी पत्नीरूप रश्मियाँ हर्षित होती हुई आकाश-पथ से होकर हमारे पास आती हैं ॥६॥ तदस्तु मित्रावरुणा तदग्न्ने शं योरस्मभ्यमिदमस्तु शस्तम् । अशीमहि गाधमुत प्रतिष्ठां नमो दिवे बृहते सादनाय ॥७॥ हे मित्रावरुण देवो ! यह स्तोत्र आपके निमित्त है। हे अग्निदेव! यह स्तोत्र हमारे सुख प्राप्ति के लिए आपके निमित्त है। हमें उत्तम स्थान एवं प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो। सभी को श्रेष्ठ आश्रय प्रदान करने वाले सूर्यदेव को हम नमस्कार करते हैं ॥७॥

Recommendations