ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ३३

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ३३ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- रुद्रः । छंद- त्रिष्टुप आ ते पितर्मरुतां सुम्नमेतु मा नः सूर्यस्य संदृशो युयोथाः । अभि नो वीरो अर्वति क्षमेत प्र जायेमहि रुद्र प्रजाभिः ॥१॥ हे मरुतों के पिता रुद्रदेव! आपका सुख हमें प्राप्त हो। हमें सूर्य के उत्तम प्रकाश से कभी भी दूर न करें। हमारी वीर सन्तति संग्राम में शत्रुओं को पराजित करे । हम उत्तम सन्तति से प्रसिद्धि प्राप्त करें ॥१॥ त्वादत्तेभी रुद्र शंतमेभिः शतं हिमा अशीय भेषजेभिः । व्यस्मद्द्वेषो वितरं व्यंहो व्यमीवाश्चातयस्वा विषूचीः ॥२॥ हे रुद्रदेव ! हम आपके द्वारा प्रदान की गयीं सुखदायी औषधियों के सेवन से सौ वर्ष तक जीवित रहें। आप हमारे द्वेष भावों तथा पापों को दूर करके हमारे शरीर में व्याप्त समस्त रोगों को नष्ट करें ॥२॥ श्रेष्ठो जातस्य रुद्र श्रियासि तवस्तमस्तवसां वज्रबाहो । पर्षि णः पारमंहसः स्वस्ति विश्वा अभीती रपसो युयोधि ॥३॥ हे रुद्रदेव ! आप सबसे श्रेष्ठ ऐश्वर्यशाली हैं। हे आयुधधारी रुद्रदेव ! आप बलवानों में सबसे अधिक बलवान् हैं। हमें पापों से मुक्त करके उनके कारण आने वाली विपत्तियों को हमसे दूर करें ॥३॥ मा त्वा रुद्र चुक्क्रुधामा नमोभिर्मा दुष्टुती वृषभ मा सहूती । उन्नो वीराँ अर्पय भेषजेभिर्भिषक्तमं त्वा भिषजां शृणोमि ॥४॥ हे रुद्रदेव! वैद्यों से भी उत्तम वैद्य के रूप में आप जाने जाते है, अतः ओषधियों के द्वारा हमारी सन्तति को बलशाली बनायें । हम झूठी तथा निन्दित स्तुतियों के द्वारा आपको क्रोधित न करें । साधारण लोगों के समान बुलाकर भी हम आपको क्रोधित न करें ॥४॥ हवीमभिर्हवते यो हविर्भिरव स्तोमेभी रुद्रं दिषीय । ऋदूदरः सुहवो मा नो अस्यै बभ्रुः सुशिप्रो रीरधन्मनायै ॥५॥ जिन रुद्रदेव को हविष्यान्न समर्पित करके स्तुतियों के द्वारा आवाहित किया जाता हैं, उन्हें हम स्तोत्रों के द्वारा शान्त भी करें। कोमल हृदय वाले तेजस्वी हँसमुख स्वभाववाले तथा उत्तम प्रकार से बुलाये जाने योग्य रुद्रदेव ईष्यालुओं के द्वारा हमारी हिंसा न करायें ॥५॥ उन्मा ममन्द वृषभो मरुत्वान्त्वक्षीयसा वयसा नाधमानम् । घृणीव च्छायामरपा अशीया विवासेयं रुद्रस्य सुम्नम् ॥६॥ कामनाओं की पूर्ति करने वाले मरुतों से युक्त हे रुद्रदेव ! हम ऐश्वर्य की कामना वालों को तेजस्वी अन्न से संतुष्ट करें। जिस प्रकार धूप से पीड़ित व्यक्ति छाया की शरण में जाता है, उसी प्रकार हम भी पाप रहित होकर रुद्रदेव की सेवा करते हुए उनके सुख को प्राप्त करें ॥६॥ क्व स्य ते रुद्र मृळयाकुर्हस्तो यो अस्ति भेषजो जलाषः । अपभर्ता रपसो दैव्यस्याभी नु मा वृषभ चक्षमीथाः ॥७॥ हे रुद्रदेव ! जिस हाथ से आप ओषधियाँ प्रदान करके सुखी बनाते हैं, वह आपका सुखदायी हाथ कहाँ हैं? हे बलशाली रुद्रदेव ! आप दैवी आपत्तियों को दूर करने वाले हैं; अतः हमारे अपराधों को क्षमा करें ॥७॥ प्र बभ्रवे वृषभाय श्वितीचे महो महीं सुष्टुतिमीरयामि । नमस्या कल्मलीकिनं नमोभिर्गुणीमसि त्वेषं रुद्रस्य नाम ॥८॥ ऐश्वर्य प्रदाता, सबके पालक तथा श्वेत आभायुक्त रूद्रदेव की हम महान् स्तुतियाँ गाते हैं। हे स्तोताओ! हम रुद्रदेव के उज्ज्वल नाम का संकीर्तन करते हैं, आप लोग भी तेजस्वी रुद्रदेव की स्तुतियों के द्वारा पूजा करो ॥८॥ स्थिरेभिरङ्गैः पुरुरूप उग्रो बभ्रुः शुक्रेभिः पिपिशे हिरण्यैः । ईशानादस्य भुवनस्य भूरेर्न वा उ योषद्रुद्रादसुर्यम् ॥९॥ सबके पालक, दृढ़ अंगों वाले, अनेक रूपों के स्वामी, तेजस्वी रुद्रदेव स्वर्णाभूषणों से सुशोभित होते हैं ये समस्त भुवनों के स्वामी तथा भरण-पोषण करने वाले हैं। असुर संहारक शक्ति इनसे कभी भी अलग नहीं होती ॥९॥ अर्हन्बिभर्षि सायकानि धन्वार्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति ॥१०॥ हे रुद्रदेव ! आप धनुष-बाण धारण करने के योग्य हैं। स्वर्णाभूषणों से युक्त अनेकों रूपों वाले आप पूजा के योग्य हैं। हे देव ! आपसे तेजस्वी और कोई नहीं है। आप ही विशाल विश्व का संरक्षण करते हैं॥१०॥ स्तुहि श्रुतं गर्तसदं युवानं मृगं न भीममुपहलुमुग्रम् । मृळा जरित्रे रुद्र स्तवानोऽन्यं ते अस्मन्नि वपन्तु सेनाः ॥११॥ हे स्तोताओ ! यशस्वी रथ में विराजमान तरुण, सिंह के समान भय उत्पन्न करने वाले, शत्रु संहारक, बलशाली रुद्रदेव की स्तुति करो । हे रुद्रदेव ! आप स्तोताओं को सुखी बनायें तथा आपकी सेना शत्रुओं का संहार करे ॥११॥ कुमारश्चित्पितरं वन्दमानं प्रति नानाम रुद्रोपयन्तम् । भूरेर्दातारं सत्पतिं गृणीषे स्तुतस्त्वं भेषजा रास्यस्मे ॥१२॥ हे रुद्रदेव ! जिस प्रकार पुत्र अपने पूज्य पिता को प्रणाम करता है, उसी तरह आपके समीप आने पर हम आपको प्रणाम करते हैं। हे सज्जनों के स्वामी दानदाता रुद्रदेव ! हम आपकी स्तुति करते हैं । स्तुति करने पर आप हमें ओषधियाँ प्रदान करें ॥१२॥ या वो भेषजा मरुतः शुचीनि या शंतमा वृषणो या मयोभु । यानि मनुरवृणीता पिता नस्ता शं च योश्च रुद्रस्य वश्मि ॥१३॥ हे बलशाली मरुतो ! आपकी जो कल्याणकारी, पवित्र तथा सुखदायीं ओषधियाँ हैं, जिनका चयन हमारे पिता मनु ने किया था, उन कल्याणकारी रोग निवारक ओषधियों की हम इच्छा करते हैं॥ १३॥ परि णो हेती रुद्रस्य वृज्याः परि त्वेषस्य दुर्मतिर्मही गात् । अव स्थिरा मघवद्भयस्तनुष्व मीढ्वस्तोकाय तनयाय मृळ ॥१४॥ रुद्रदेव के महान् आयुध, पीड़ादायी तीक्ष्ण शस्त्र तथा दुर्बुद्धि हमसे परे ही रहें। हे सुखदायी रुद्रदेव ! ऐश्वर्यशाली याजकों के प्रति अपने दृढ़ धनुष की प्रत्यंचा को शिथिल करें तथा हमारी सन्तति को सुखी बनायें ॥ १४ ॥ एवा बभ्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीषे न हंसि । हवनश्रुन्नो रुद्रेह बोधि बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥१५॥ हे तेजस्वी, सुखकारी, सर्वज्ञ तथा प्रार्थना को स्वीकार करने वाले रुद्रदेव ! आप हमें ऐसा मार्गदर्शन दें, कि हमारे कारण आप कभी कुद्ध न हों, आप हमें नष्ट न करें। हम उत्तम सन्तति सहित यज्ञ में आपकी उत्तम स्तुतियाँ करें ॥१५॥

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