ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ३०

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ३० ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप इच्छन्ति त्वा सोम्यासः सखायः सुन्वन्ति सोमं दधति प्रयांसि । तितिक्षन्ते अभिशस्तिं जनानामिन्द्र त्वदा कश्चन हि प्रकेतः ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! सोमयाग करने वाले सखा रूप ऋत्विग्गण आपके स्तवन के अभिलाषी हैं। वे आपके लिए सोमरस छान कर तैयार करते हैं और हविष्यान्न धारण करते हैं। वे शत्रुओं के हिंसक प्रहार को सहन करते हैं। हे इन्द्रदेव! आप से अधिक प्रसिद्ध और कौन हैं ? ॥१॥ न ते दूरे परमा चिद्रजांस्या तु प्र याहि हरिवो हरिभ्याम् । स्थिराय वृष्णे सवना कृतेमा युक्ता ग्रावाणः समिधाने अग्नौ ॥२॥ तीव्र गतिशील अश्वों से युक्त हे इन्द्रदेव! अत्यन्त दूरस्थ लोक भी आपके लिए दूर नहीं है, क्योंकि आपके अश्व सर्वत्र गमन करते हैं। आप स्थिर बल-युक्त और अभीष्ट वर्षक हैं, आपके लिए ही ये यज्ञादि कार्य सम्पादित किये गये हैं। यहाँ अग्नि के प्रदीप्त होने पर सोम अभिषवण हेतु पाषाण खण्ड प्रयुक्त होते हैं॥२॥ इन्द्रः सुशिप्रो मघवा तरुत्रो महाव्रातस्तुविकूर्मिक्रघावान् । ि यदुग्रो धा बाधितो मर्येषु क्व त्या ते वृषभ वीर्याणि ॥३॥ हे अभीष्टवर्धक इन्द्रदेव ! आप धनवान्, उत्तम शिरस्त्राण वाले, शत्रुओं का विनाश करने वाले, महान् वतों को धारण करने वाले, विविध कर्मों को सम्पन्न करने वाले और विकराल हैं। युद्धों में (असुरों आदि को) बाधित करने वाले आप मनुष्यों के लिए जो पराक्रम करते हैं, वह सामर्थ्य कहाँ है ? ॥३॥ त्वं हि ष्मा च्यावयन्नच्युतान्येको वृत्रा चरसि जिघ्नमानः । तव द्यावापृथिवी पर्वतासोऽनु व्रताय निमितेव तस्थुः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अकेले हीं अत्यन्त सुदृढ़ शत्रुओं को उनके स्थान से च्युत किया है और वृत्रों को मारते हुए सर्वत्र विचरण किया है। सम्पूर्ण द्यावा-पृथिवी और दृढ़ पर्वत आपके संकल्प के लिए ही अविचल होकर अनुकूल होते हैं ॥४॥ उताभये पुरुहूत श्रवोभिरेको दृळ्हमवदो वृत्रहा सन् । इमे चिदिन्द्र रोदसी अपारे यत्संगृभ्णा मघवन्काशिरित्ते ॥५॥ पुरुहूत (अनेकों के द्वारा आवाहन किये जाने वाले), ऐश्वर्यवान् हे इन्द्रदेव ! बल से युक्त होकर आपने अकेले ही वृत्र का हनन करके, जो अभय वचन कहे, वे सत्य से परिपूर्ण हैं। आपने दूर होते हुए भी द्यावा और पृथिवी को संयोजित किया। आपकी यह महिमा विख्यात है॥५॥ प्र सूत इन्द्र प्रवता हरिभ्यां प्र ते वज्रः प्रमृणन्नेतु शत्रून् । जहि प्रतीचो अनूचः पराचो विश्वं सत्यं कृणुहि विष्टमस्तु ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! हरितवर्ण वाले अश्वों से युक्त आपका रथ उत्तम मार्ग से आगे बढ़े। आपका वज्र शत्रुओं को मारते हुए आगे बढ़े। आप आगे से आने वाले, पीछे से आने वाले और दूर से आने वाले शत्रुओं का हनन करें। लोगों में वह सामर्थ्य भरें, जिससे विश्व सत्य कर्म में प्रवृत्त हो सके ॥६॥ यस्मै धायुरदधा मर्त्यायाभक्तं चिद्भजते गेह्यं सः । भद्रा त इन्द्र सुमतिघृताची सहस्रदाना पुरुहूत रातिः ॥७॥ हे पुरुहूत इन्द्रदेव ! ऐश्वर्यधारक आप, जिस मनुष्य को ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, वह पहले अप्राप्त पशु, गृह आदि वैभव प्राप्त करता है । घृत, हव्यादि से प्रफुल्लित मन से, प्राप्त आपका अनुग्रह कल्याणकारी होता हैं। आपका दान विपुल ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो ॥७॥ सहदानं पुरुहूत क्षियन्तमहस्तमिन्द्र सं पिणक्कुणारुम् । अभि वृत्रं वर्धमानं पियारुमपादमिन्द्र तवसा जघन्थ ॥८॥ हे पुरुहूत इन्द्रदेव ! आप दानशीलों को आश्रय देने वाले हैं। आपने घोर गर्जनशील वृत्र को हस्तहीन कर, छिन्न-विच्छिन्न कर दिया । हे इन्द्रदेव ! आपने विवर्द्धमान और हिंसक वृत्र को पादहीन करके बलपूर्वक मारा था ॥८॥ नि सामनामिषिरामिन्द्र भूमिं महीमपारां सदने ससत्थ । अस्तभ्नाद्द्यां वृषभो अन्तरिक्षमर्षन्त्वापस्त्वयेह प्रसूताः ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अत्यन्त व्यापक विस्तार वाली पृथ्वों को अन्नादि प्रदात्री और समभाव सम्पन्न करके उपयुक्त स्थान पर स्थापित किया है। हे अभीष्टवर्षक इन्द्रदेव! आपने अन्तरिक्ष और द्युलोक को भी धारण किया हैं। आपके द्वारा निस्सृत जल-प्रवाह यहाँ भूमि पर बहें ॥९॥ अलातृणो वल इन्द्र व्रजो गोः पुरा हन्तोर्भयमानो व्यार । सुगान्पथो अकृणोन्निरजे गाः प्रावन्वाणीः पुरुहूतं धमन्तीः ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! सूर्य रश्मि समूह पर आधिपत्य रखने वाला, संग्रहशील, वल नामक असुर आपके वज्र से भयभीत होकर क्षत-विक्षत हुआ । तदनन्तर आपने जल-प्रवाहों के बहने के लिए मार्ग को सुगम कर दिया। स्तुत्य और बहुतों द्वारा आवाहन किये गये इन्द्रदेव से प्रेरित होकर शब्द करते हुए जल-प्रवाह बहने लगे ॥१०॥ एको द्वे वसुमती समीची इन्द्र आ पप्रौ पृथिवीमुत द्याम् । उतान्तरिक्षादभि नः समीक इषो रथीः सयुजः शूर वाजान् ॥११॥ इन्द्रदेव ने अकेले ही पृथिवी और द्यावा को परस्पर संगत और धन संयुक्त करके पूर्ण किया है। हे शूरवीर इन्द्रदेव ! उत्तम रथी आप वेगपूर्वक गमनशील अभ्यों को रथ से जोड़कर, हमारे बीच उपस्थित होने की कृपा करें ॥११॥ दिशः सूर्यो न मिनाति प्रदिष्टा दिवेदिवे हर्यश्वप्रसूताः । सं यदानळध्वन आदिदश्वैर्विमोचनं कृणुते तत्त्वस्य ॥१२॥ सूर्य, इन्द्रदेव द्वारा प्रेरित और गमन के लिए निश्चित दिशाओं का ही अनुसरण करते हैं। वे जब अश्वों द्वारा गमन पथ पूरा कर लेते हैं, तभी अश्वों को मुक्त करते हैं। यह भी इन्द्रदेव के लिए ही करते हैं॥१२॥ दिदृक्षन्त उषसो यामन्नक्तोर्विवस्वत्या महि चित्रमनीकम् । विश्वे जानन्ति महिना यदागादिन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरूणि ॥१३॥ रात्रि को समाप्त करती हुई उषा के उदित होने पर, सभी मनुष्य उन महान् और विचित्र सूर्यदेव के तेज के दर्शन की इच्छा करते हैं। जब उषा आगमन करती है, तब लोग इन्द्रदेव के कल्याणकारी यज्ञादि महान् कर्मों को करना अपना कर्तव्य समझते हैं ॥१३॥ महि ज्योतिर्निहितं वक्षणास्वामा पक्कं चरति बिभ्रती गौः । विश्वं स्वाद्म सम्भृतमुस्रियायां यत्सीमिन्द्रो अदधाद्भोजनाय ॥१४॥ इन्द्रदेव ने जल-प्रवाहों में महान् तेज को स्थापित किया है। उन्होंने जल से अधिक स्वादिष्ट दूध, घृतादि भोजन के लिए गौओं में स्थापित किया है। नव प्रसूता गाय दूध धारण करती हुई विचरण करती है॥१४॥ इन्द्र दृह्य यामकोशा अभूवन्यज्ञाय शिक्ष गृणते सखिभ्यः । दुर्मायवो दुरेवा मर्त्यासो निषङ्गिणो रिपवो हन्त्वासः ॥१५॥ हे इन्द्रदेव! आप दृढ़ हों, क्योंकि शत्रुओं ने अवरोध उत्पन्न किया है। आप यज्ञ और स्तुति करने वाले मित्रों को वाञ्छित मार्ग में प्रेरित करें । शस्त्रादि प्रहारक, कुमार्गगामी, बाणादि धारक शत्रु आपके द्वारा मारने योग्य हैं॥१५॥ सं घोषः शृण्वेऽवमैरमित्रैर्जही न्येष्वशनिं तपिष्ठाम् । वृश्चेमधस्ताद्वि रुजा सहस्व जहि रक्षो मघवत्रन्धयस्व ॥१६॥ हे इन्द्रदेव ! समीपस्थ शत्रुओं द्वारा छोड़े गये आयुधों का शब्द सुनाई देता है। संताप देने वाले आयुधों द्वारा आप उन शत्रुओं को विनष्ट करें, उन्हें समूल नष्ट करें। राक्षसों को प्रताड़ित करें, पराभूत करें और उनका वध करके यज्ञ में प्रवृत्त हों ॥१६॥ उद्धृह रक्षः सहमूलमिन्द्र वृश्चा मध्यं प्रत्यग्रं शृणीहि । आ कीवतः सललूकं चकर्थ ब्रह्मद्विषे तपुषिं हेतिमस्य ॥१७॥ हे इन्द्रदेव ! आप राक्षसों का समूल उच्छेदन करें। उनके मध्य भाग का छेदन करें। उनके अग्रभाग को नष्ट करें। लोभी राक्षसों को दूर करें । श्रेष्ठ ज्ञान-कर्म से द्वेष करने वालों पर भीषण अस्त्रों का प्रहार करें ॥१७॥ स्वस्तये वाजिभिश्च प्रणेतः सं यन्महीरिष आसत्सि पूर्वीः । रायो वन्तारो बृहतः स्यामास्मे अस्तु भग इन्द्र प्रजावान् ॥१८॥ हे जगत्-नियामक इन्द्रदेव! हमें कल्याण के लिए अश्वों से युक्त करें । जब आप हमारे निकट हों, तब हम विपुल अन्न और प्रभूत धनों के स्वामी हों। हमें पुत्र-पौत्रादि से युक्त ऐश्वर्य की प्राप्ति हो ॥१८॥ आ नो भर भगमिन्द्र ह्युमन्तं नि ते देष्णस्य धीमहि प्ररेके । ऊर्व इव पप्रथे कामो अस्मे तमा पृण वसुपते वसूनाम् ॥१९॥ हे इन्द्रदेव ! आप हमें तेजस्विता सम्पन्न ऐश्वर्य से अभिपूरित करें। आप दानशील हैं। हम आपके दान को धारण करने वाले हों। हमारी कामनाएँ बड़वानल के सदृश प्रवृद्ध हुई हैं। हे धनों में श्रेष्ठ धन के स्वामी इन्द्रदेव ! आप हमारी कामनाओं को पूर्ण करें ॥१९॥ इमं कामं मन्दया गोभिरश्वेश्चन्द्रवता राधसा पप्रथश्च । स्वर्यवो मतिभिस्तुभ्यं विप्रा इन्द्राय वाहः कुशिकासो अक्रन् ॥२०॥ हे इन्द्रदेव ! आप हमारी अभिलाषा को पूर्ण करें। हमें गौ, अश्व और हर्षप्रद ऐश्वर्य से सम्पन्न करें। स्वर्गादि सुख के अभिलाषी और बुद्धिमान् कुशिक वंशजों ने बुद्धिपूर्वक स्तोत्रों का सम्पादन किया है॥२०॥ आ नो गोत्रा दर्हहि गोपते गाः समस्मभ्यं सनयो यन्तु वाजाः । दिवक्षा असि वृषभ सत्यशुष्मोऽस्मभ्यं सु मघवन्बोधि गोदाः ॥२१॥ हे स्वर्ग के स्वामी इन्द्रदेव! आप मेघों को विदीर्ण कर हमें जल प्रदान करें। हमें उपभोग योग्य अन्न प्रदान करें। आप द्युलोक में व्याप्त होकर स्थित हैं। हे सत्यबल-सम्पन्न और ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! ज्ञान- प्रदाता आप हमें सर्वोत्कृष्ट ज्ञान प्रदान करें ॥ २१॥ शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥२२॥ धन-धान्य से सम्पन्न, वैभवशाली, युद्धों में उत्साहपूर्वक विजय प्राप्त करने वाले, भयंकर शत्रुसेना का विनाश करने वाले, याजकों द्वारा किये गये स्तुति गान का श्रवण करने वाले हे इन्द्रदेव ! हमें आश्रय की कामना करते हुए आपका आवाहन करते हैं॥२२॥

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