ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ४४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ४४ ऋषि - प्रस्कण्व काण्वः देवता- अग्नि। छंद-प्रगाथः अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य । आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥१॥ हे अमर अग्निदेव ! उषा काल में विलक्षण शक्तियाँ प्रवाहित होती हैं, यह दैवी सम्पदा नित्यदान करने वाले व्यक्ति को दें। हे सर्वज्ञ ! उषाकाल में जाग्रत् हुए देवताओं को भी यहाँ लायें ॥१॥ जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनो ऽग्ने रथीरध्वराणाम् । सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत् ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप सेवा के योग्य देवों तक हवि पहुँचाने वाले दूत और यज्ञ में देवों को लाने वाले रथ के समान हैं। आप अश्विनीकुमारों और देवी उषा के साथ हमें श्रेष्ठ पराक्रमी एवं यशस्वी बनायें ॥२॥ अद्या दूतं वृणीमहे वसुमग्निं पुरुप्रियम् । धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानामध्वरश्रियम् ॥३॥ उषाकाल में सम्पन्न होने वाले यज्ञ, जो धूम्र की पताका एवं ज्वालाओं से सुशोभित हैं, ऐसे सर्वप्रिय देवदूत, सबके आश्रय एवं महान् अग्निदेव को हम ग्रहण करते हैं और श्री सम्पन्न बनते हैं॥३॥ श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे । देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु ॥४॥ हम सर्वश्रेष्ठ, अतियुवा, अतिथिरूप, वन्दनीय, हविदाता, यजमान द्वारा पूजनीय, आहवनीय, सर्वज्ञ अग्निदेव की प्रतिदिन स्तुति करते हैं। वे हमें देवत्व की ओर ले चलें ॥४॥ स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन । अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ॥५॥ अविनाशी, सबको जीवन (भोजन) देने वाले, विवाहक, विश्व का वाण करने वाले, सबके आराध्य, युवा हे अग्निदेव ! हम आपकी स्तुति करते हैं॥५॥ सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः । प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम् ॥६॥ मधुर जिह्वावाले, याजकों की स्तुति के पात्र, हे तरुण अग्निदेव ! भली प्रकार आहुतियाँ प्राप्त करते हुए आप याजकों की आकांक्षा को जानें । प्रस्कण्व (ज्ञानियों) को दीर्घ जीवन प्रदान करते हुए आप देवगणों को सम्मानित करें ॥६॥ होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते । स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत् ॥७॥ होता रूप सर्वभूतों के ज्ञाता, हे अग्निदेव ! आपको मनुष्यगण सम्यक् रूप से प्रज्वलित करते हैं। बहुतों द्वारा आहूत किये जाने वाले हे अग्निदेव ! प्रकृष्ट ज्ञान सम्पन्न देवों को तीव्र गति से यज्ञ में लायें ॥७॥ सवितारमुषसमश्विना भगमग्निं व्युष्टिषु क्षपः । कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर ॥८॥ श्रेष्ठ यज्ञों को सम्पन्न करने वाले हे अग्निदेव ! रात्रि के पश्चात् उषाकाल में आप सविता, उषा, दोनों अश्विनीकुमारों, भग और अन्य देवों के साथ यहाँ आयें। सोम को अभिषुत करने वाले तथा हवियों को पहुँचाने वाले विग्गण आपको प्रज्वलित करते हैं॥८॥ पतिर्हाध्वराणामग्ने दूतो विशामसि । उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवाँ अद्य स्वर्दृशः ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप साधकों द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञों के अधिपति और देवों के दूत हैं। उषाकाल में जाग्रत् देव आत्माओं को आज सोमपान के निमित्त यहाँ यज्ञस्थल पर लायें ॥९॥ अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः । असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥१०॥ हे विशिष्ट दीप्तिमान् अग्निदेव ! विश्वदर्शनीय आप उषाकाल के पूर्व ही प्रदीप्त होते हैं। आप ग्रामों की रक्षा करने वाले तथा यज्ञों, मानवों के अग्रणी नेता के समान पूजनीय हैं॥१०॥ नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम् । मनुष्वदेव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम् ॥११॥ है अग्निदेव ! हम मनुष्यों की भाँति आप को यज्ञ के साधन रूप, होता रूप, ऋत्विज्ञ रूप, प्रकृष्ट ज्ञानी रूप, चिर-पुरातन और अविनाशी रूप में स्थापित करते हैं॥११॥ यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम् । सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेर्भाजन्ते अर्चयः ॥१२॥ हे मित्रों में महान् अग्निदेव ! आप जब यज्ञ के पुरोहित रूप में देवों के बीच दूत कर्म के निमित्त जाते हैं, तब आपकी ज्वालायें समुद्र की प्रचण्ड लहरों के समान शब्द करती हुई प्रदीप्त होती हैं॥ १२॥ श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः । आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥१३॥ प्रार्थना पर ध्यान देने वाले हे अग्निदेव ! आप हमारी स्तुति स्वीकार करें । दिव्य अग्निदेव के साथ समान गति से चलने वाले, मित्र और अर्यमा आदि देवगण भी प्रातः कालीन यज्ञ में आसीन हों ॥१३॥ शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः । पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्विभ्यामुषसा सजूः ॥१४॥ उत्तम दानशील, अग्निरूप जिह्वा से यज्ञ को प्रवृद्ध करने वाले मरुद्गण इन स्तोत्रों का श्रवण करें। नियमपालक वरुणदेव, अश्विनीकुमारों और देवी उषा के साथ सोमरस का पान करें ॥१४॥

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