Maitreya Upanishad Second Chapter (मैत्रेय उपनिषद) द्वितीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ मैत्रेय्युपनिषत् ॥ मैत्रेय उपनिषद द्वितीयोऽध्यायः द्वितीय अध्याय अथ भगवान्मैत्रेयः कैलासं जगाम तं गत्वोवाच भो भगवन्परमतत्त्वरहस्यमनुब्रूहीति ॥ स होवाच महादेवः ॥ देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः । त्य यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहम्भावेन पूजयेत् ॥ १॥ एक बार भगवान् मैत्रेय कैलास पर्वत पर गये। वहाँ जाकर महादेव जी से उन्होंने कहा-'हे भगवन्! मुझे परम तत्त्व का रहस्य बताने की कृपा करें।' महादेव जी ने कहा- 'शरीर देवालय है तथा उसमें रहने वाला जीव ही केवल शिव-परमात्मा है। अतः अज्ञान रूप निर्माल्य को (पुरानी (बासी) माला की तरह से) छोड़ देना चाहिए तथा परमात्मा मैं ही हूँ, ऐसा समझकर ही उसकी पूजा करनी चाहिए ॥१॥ अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः। स्नानं मनोमलत्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥ २॥ जीव तथा ब्रह्म एक है, ऐसा मानना ही ज्ञान है और मन को विषयों से अलग रखना ही ध्यान है, मन के मैल को छुड़ाना ही स्नान तथा इन्द्रियों को वश में रखना ही पवित्रता है ॥२॥ ब्रह्मामृतं पिबेन्द्रेक्षमाचरेद्देहरक्षणे । वसेदेकान्तिको भूत्वा चैकान्ते द्वैतवर्जिते । इत्येवमाचरेद्धीमान्स एवं मुक्तिमाप्नुयात् ॥ ३॥ ब्रह्मरूपी अमृत का पान करना, शरीर रक्षा के उद्देश्य से ही भिक्षा माँगना, स्वयं अकेला रहकर एकान्त में निवास करना, इस प्रकार से जीवनयापन करता हुआ ज्ञानवान् मनुष्य मुक्ति को प्राप्त करता है ॥३॥ जातं मृतमिदं देहं मातापितृमलात्मकम् । सुखदुःखालयामेध्यं स्पृष्ट्वा स्नानं विधीयते ॥ ४॥ माता-पिता के मलरूप (शुक्रशोणित) से उत्पन्न, जन्म-मृत्यु वाले, सुख-दुःख के भण्डार-रूप एवं अपवित्र इस शरीर को स्पर्श करने के पश्चात् स्नान किया जाता है ॥४॥ धातुबद्धं महारोगं पापमन्दिरमध्रुवम् । विकाराकारविस्तीर्ण स्पृष्ट्वा स्नानं विधीयते ॥ ५॥ सात धातुओं में निर्मित, महारोग से युक्त, पाप के घर की भाँति, सतत चलायमान (अस्थिर), विकारों से भरे हुए इस शरीर को स्पर्श करने के उपरान्त स्नान अवश्य करना चाहिए ॥५॥ नवद्वारमलस्रावं सदा काले स्वभावजम् । दुर्गन्धं दुर्मलोपेतं स्पृष्ट्रा स्नानं विधीयते ॥ ६॥ आँख, कान आदि नौ द्वारों से युक्त इस शरीर से सदा स्वाभाविक रीति से हर समय मल-स्रवित होता (निकलता) रहता है तथा इस मल की दुर्गन्ध से यह शरीर हमेशा परिपूर्ण रहता है, ऐसे इस दुर्गन्धयुक्त, मलिन शरीर को स्पर्श करने के बाद स्नान अवश्य करना चाहिए ॥६॥ मातृसूतकसम्बन्धं सूतके सह जायते । मृतसूतकजं देहं स्पृष्ट्वा स्नानं विधीयते ॥ ७॥ माता के सूतक से सम्बन्धित होने से मनुष्य के साथ ही सूतक भी जन्म ले लेता है तथा मरण काल को सूतक भी इस देह के साथ ही लगा रहता है। अतः शरीर का स्पर्श होने पर स्नान अवश्य करना चाहिए ॥७॥ अहम्ममेति विण्मूत्रलेपगन्धादिमोचनम् । शुद्धशौचमिति प्रोक्तं मृज्जलाभ्यां तु लौकिकम् ॥ ८॥ मल, मूत्रादि दुर्गन्धयुक्त शरीर की शुद्धि तो मिट्टी एवं जल आदि से होती है; लेकिन वह सब तो लौकिक शुद्धि है। वास्तविक पवित्रता तो मैं और मेरा' का परित्याग करने से ही होती है ॥८॥ चित्तशुद्धिकरं शौचं वासनात्रयनाशनम् । ज्ञानवैराग्यमृत्तोयैः क्षालनाच्छौचमुच्यते ॥ ९॥ पवित्रता चित्त का शोधन करती है और वासनाओं को नष्ट करती है; परन्तु ज्ञानरूपी मिट्टी और वैराग्य रूपी जल से प्रक्षालन के द्वारा जो पवित्रता होती है, वही वास्तविक पवित्रता है ॥९॥ अद्वैतभावनाभैक्षमभक्ष्यं द्वैतभावनम् । गुरुशास्त्रोक्तभावेन भिक्षोर्भेक्षं विधीयते ॥ १०॥ अद्वैत की भावना ही वास्तव में सच्ची भिक्षावृत्ति है एवं द्वैत की भावना ही अभक्ष्य वस्तु है। भिक्षुक को गुरु तथा शास्त्र के आदेशानुसार भिक्षा माँगनी चाहिए ॥१०॥ विद्वान्स्वदेशमुत्सृज्य संन्यासानन्तरं स्वतः । कारागारविनिर्मुक्तचोरवद्वरतो वसेत् ॥ ११॥ जिस तरह से चोर कैदखाने से छूटकर दूर जाकर निवास करता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष को संन्यास। ग्रहण कर अपने देश से दूर निवास के लिए चले जाना चाहिए ॥११॥ अहङ्कारसुतं वित्तभ्रातरं मोहमन्दिरम् । आशापत्नी त्यजेद्यावत्तावन्मुक्तो न संशयः ॥ १२॥ अहंकार रूपी पुत्र का, वित्त (धन) रूपी भाई का, मोहरूपी घर का तथा आशा रूपी पत्नी का परित्याग कर देने वाला शीघ्र ही मुक्त हो जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है ॥१२॥ मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुतः । सूतकद्वयसम्प्राप्तौ कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ १३॥ मोहरूपी माँ मृत्यु को प्राप्त हो गयी और ज्ञानरूपी पुत्र उत्पन्न हो गया है, इस कारण मरण और जन्म के दो सूतक लगे हुए हैं, तो फिर सन्ध्या-वन्दन आदि कार्य किस प्रकार किये जा सकते हैं? ॥१३॥ हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति । नास्तमेति न चोदेति कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ १४॥ हृदयरूपी आकाश में चैतन्य रूप सूर्य सदैव प्रकाशित रहता है और फिर वह न अस्त होता है न उदय ही। तब फिर सन्ध्या किस प्रकार (कब) करे? ॥१४॥ एकमेवाद्वितीयं यद्‌गुरोर्वाक्येन निश्चितम् । एतदेकान्तमित्युक्तं न मठो न वनान्तरम् ॥ १५॥ यहाँ पर सभी कुछ एक ही है, दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसा गुरु के उपदेश द्वारा निश्चय हो गया है। यह भावना ही एकान्त स्वरूप है, मठ अथवा वन का मध्य भाग एकान्त नहीं है। ॥१५॥ असंशयवतां मुक्तिः संशयाविष्टचेतसाम् । न मुक्तिर्जन्मजन्मान्ते तस्माद्विश्वासमाप्नुयात् ॥ १६॥ जो मनुष्य संशयरहित हैं, वे ही मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं तथा जिन लोगों को संशय है, वे अनेक जन्मों के अन्त में भी मुक्त नहीं हो सकते। इसलिए गुरु एवं शास्त्र के वचनों पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए ॥१६॥ कर्मत्यागान्न संन्यासो न प्रेषोच्चारणेन तु । सन्धौ जीवात्मनोरैक्यं संन्यासः परिकीर्तितः ॥ १७॥ कर्मों को छोड़ देना ही संन्यास नहीं है। इसी प्रकार 'मैं संन्यासी हूँ' ऐसा कह देने से भी कोई संन्यासी नहीं हो सकता। समाधि अवस्था में जीव-परमात्मा की एकता का भान होना ही संन्यास कहा जाता है ॥१७॥ वमनाहारवद्यस्य भाति सर्वेषणादिषु । तस्याधिकारः संन्यासे त्यक्तदेहाभिमानिनः ॥ १८॥ जिस मनुष्य को समस्त एषणाएँ इच्छायें वमन किये हुए (उगले हुए) आहार के समान लगती हैं और जिसने शरीर की ममता त्याग दी है, उसको संन्यास का अधिकार है ॥१८॥ यदा मनसि वैराग्यं जातं सर्वेषु वस्तुषु । तदैव संन्यसेद्विद्वानन्यथा पतितो भवेत् ॥ १९॥ जब सभी वस्तुओं से मन में वैराग्य उत्पन्न हो जाए, तभी विद्वान् मनुष्य को संन्यास-धर्म ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा उसका अवश्य ही पतन हो जाता है ॥१९॥ द्रव्यार्थमन्नवस्त्रार्थं यः प्रतिष्ठार्थमेव वा । संन्यसेदुभयभ्रष्टः स मुक्तिं नाप्तुमर्हति ॥ २०॥ जो मनुष्य द्रव्य (धन) के, अन्न के, वस्त्रों के अथवा ख्याति के लोभ में संन्यास-धर्म ग्रहण कर लेता है, वह दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ, कभी भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता ॥२०॥ उत्तमा तत्त्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम् । अधमा मन्त्रचिन्ता च तीर्थभ्रान्त्यधमाधमा ॥ २१॥ तत्त्व का चिन्तन ही उत्तम (श्रेष्ठ) है, शास्त्र का चिन्तन मध्यम है, मन्त्रों का चिन्तन (साधना) अधम है और तीर्थों में भ्रमण करना अधम से भी अधम है ॥२१॥ अनुभूतिं विना मूढो वृथा ब्रह्मणि मोदते । प्र रतिबिम्बितशाखाग्रफलास्वादनमोदवत् ॥ २२॥ जिस प्रकार कोई भी मनुष्य शाखा के अग्र भाग में प्रतिबिम्ब के रूप में दिखाई देने वाले फल का रसास्वादन कर आनन्द प्राप्त करना चाहे, उसी प्रकार वास्तविक अनुभव के बिना अज्ञानी मनुष्य ब्रह्म का आनन्द पाने की व्यर्थ कल्पना करता है ॥२२॥ न त्यजेच्चेद्यतिर्मुक्तो यो माधुकरमातरम् । वैराग्यजनकं श्रद्धाकलत्रं ज्ञाननन्दनम् ॥ २३॥ जो संन्यासी मुक्त हो चुका है, वह वैराग्य रूपी पिता को, श्रद्धा रूपी पत्नी को और ज्ञान रूपी पुत्र को न छोड़ते हुए अन्तःकरण में स्थित अद्वैतभावना का आनन्दमय रूप में चिन्तन करे ॥२३॥ धनवृद्धा वयोवृद्धा विद्यावृद्धास्तथैव च । ते सर्वे ज्ञानवृद्धस्य किंकराः शिष्यकिंकराः ॥ २४॥ जो (मनुष्य) धन में बड़ा है, जो आयु में बड़ा है अथवा जो विद्या में बड़ा है, वे सब अनुभव में बड़े के समक्ष नौकर अथवा शिष्य की भाँति ही हैं ॥२४॥ यन्मायया मोहितचेतसो मामात्मानमापूर्णमलब्धवन्तः । परं विदग्दोधरपूरणाय भ्रमन्ति काका इव सूरयोऽपि ॥ २५॥ जो माया के प्रभाव से मूढ़ चित्त वाले होकर के 'मैं' रूपी आत्मा को सम्यक् रूप से नहीं जानते, वे। यदि बुद्धिमान् भी हों, तो कौए की भाँति अभागे पेट को भरने के लिए जहाँ-तहाँ मारे-मारे फिरते हैं ॥२५॥ पाषाणलोहमणिमृण्मयविग्रहेषु पूजा पुनर्जननभोगकरी मुमुक्षोः । तस्माद्यतिः स्वहृदयार्चनमेव कुर्याद्वाह्यार्चनं परिहरेदपुनर्भवाय ॥२६॥ प्रस्तर खण्ड, स्वर्ण अथवा मिट्टी द्वारा निर्मित मूर्तियों की पूजा, मोक्ष की इच्छा वाले को पुनः जन्म एवं भोग प्राप्त कराने वाली होती है। इस कारण पुनः जन्म न ग्रहण करना पड़े, इस उद्देश्य से संन्यासी को इस प्रकार बाह्य जगत् की पूजा का परित्याग करके हृदय में ही (आत्मा की) पूजा करनी चाहिए ॥२६॥ अन्तःपूर्णो बहिः पूर्णः पूर्णकुम्भ इवार्णवे । अन्तःशून्यो बहिःशून्यः शून्यकुम्भ इवाम्बरे ॥२७॥ समुद्र में रखा हुआ घड़ा अन्दर और बाहर जल से पूर्ण है तथा बाहर शून्य में स्थित घड़ा अन्दर और बाहर खाली ही है ॥२७॥ मा भव ग्राह्यभावात्मा ग्राहकात्मा च मा भव । भावनामखिलं त्यक्त्वा यच्छिष्टं तन्मयो भव ॥ २८॥ आप ग्रहण करने वाले न बनें। इसी तरह से ग्रहण करने योग्य विषयरूप भी न बनें। इस प्रकार की सभी कल्पनाओं का त्याग करके शेष जो कुछ भी रहे, उसी में तन्मय रहें ॥२८॥ द्रष्टृदर्शनदृश्यानि त्यक्त्वा वासनया सह । दर्शनप्रथमाभासमात्मानं केवलं भज ॥ २९॥ द्रष्टा, दृश्य एवं दर्शन को वासना के साथ ही त्याग करके, जिसमें से दर्शन का सर्वप्रथम आभास होता है, उसे आत्मा का ही तुम भजन करो ॥२९॥ संशान्तसर्वसंकल्पा या शिलावदवस्थितिः । जाग्रन्निद्राविनिर्मुक्ता सा स्वरूपस्थितिः परा ॥ ३०॥ सभी संकल्प जिसमें शान्त हो गये हैं, जागृति तथा निद्रा जिससे परे हो गयी है, ऐसी जो प्रस्तर खण्ड की भाँति (दृढ़ एवं निश्चेष्ट) अवस्था है, वही चरम स्वरूप की अवस्था है ॥३०॥ ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ ॥ द्वितीय अध्याय समाप्त ॥

Recommendations