Brihadaranyaka Upanishad Chapter 1 (बृहदारण्यक उपनिषद) प्रथम अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ अथ बृहदारण्यकोपनिषद ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण कारणात्मक पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ श्री हरि ॥ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः - प्रथमं ब्राह्मणम् प्रथम अध्याय प्रथम ब्राह्मण अश्व ब्राह्मण - विराट का याज्ञिक अश्व के रूप में वर्णन उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः। सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणो व्यात्तमग्निर्वैश्वानरः संवत्सर आत्माऽश्वस्य मेध्यस्य । द्यौः पृष्ठमन्तरिक्षमुदरं पृथिवी पाजस्यं दिशः पार्श्वे अवान्तरदिशः पर्शव ऋतवोऽङ्गानि मासाश्चार्धमासाश्च पर्वाण्यहोरात्राणि प्रतिष्ठा नक्षत्राण्यस्थीनि नभो मासान्यूवध्यः सिकताः सिन्धवो गुदा यकृच्च क्लोमानश्च पर्वता ओषधयश्च वनस्पतयश्च लोमान्युद्यन्पूर्वार्धी निम्लोचञ्जघनार्थो यद्विजृम्भते तद्विद्योतते यद्विधूनुते तत्स्तनयति यन्मेहति तद्वर्षति वागेवास्य वाक् ॥१॥ ॐ उषा (ब्राह्ममुहूर्त) यज्ञ सम्बन्धी अश्व का शिर है, सूर्य नेत्र है, वायु प्राण है, वैश्वानर अग्नि खुला हुआ मुख है और संवत्सर (वर्ष) यज्ञीय अश्व की आत्मा है। द्युलोक उसकी पीठ है, अन्तरिक्ष उदर (पेट) है, पृथिवी पैर रखने का स्थान है, दिशाएँ पाश्र्वभाग हैं, अवान्तर दिशाएँ पसलियाँ हैं, ऋतुएँ अङ्ग (हाथ पैर) हैं, मास और अर्द्धमास पर्व (सन्धिस्थान, जोड़) हैं, दिन और रात्रि प्रतिष्ठा (पैर) हैं, नक्षत्र (तारे) अस्थियाँ हैं, आकाश (आकाशस्थित मेघ) मांस हैं, रेत ऊवध्य ( उदरस्थित अर्धपक्व अन्न) है, नदियाँ नाडी हैं, पर्वत यकृत् (जिगर) और हृदयगत मांसखण्ड हैं, औषधि और वनस्पतियाँ लोम हैं, ऊपरकी ओर जाता हुआ सूर्य (अश्व का) नाभि से ऊपरका भाग और नीचे की ओर जाता हुआ सूर्य (अश्व का) कटि से नीचे का भाग है। उसका जम्भाई लेना बिजली का चमकना है और शरीर हिलाना मेघ का गर्जन है। वह जो मूत्र त्याग करता है वही वर्षा है और वाणी (गर्जना) ही उसकी वाणी है ॥१॥ अहर्वा अश्वं पुरस्तान्महिमाऽन्वजायत तस्य पूर्वे समुद्रे योनी रात्रिरेनं पश्चान्महिमाऽन्वजायत तस्यापरे समुद्रे योनिरेतौ वा अश्वं ् महिमानावभितः सम्बभूवतुर्हयो भूत्वा देवानवहद् वाजी गन्धर्वान् अर्वाऽसुरान् अश्वो मनुष्यान् समुद्र एवास्य बन्धुः समुद्रो योनिः ॥ २॥ अश्वके सामने महिमा रूप से दिन प्रकट हुआ, उसकी पूर्व समुद्र योनि है। रात्रि इसके पीछे महिमा रूप से प्रकट हुई, उसकी अपर (पश्चिम) समुद्र योनि है। ये ही दोनों इस अश्वके आगे-पीछे के महिमासंज्ञक ग्रह हुए। इसने हय होकर देवताओं को, वाजी होकर गन्धर्वोको, अर्वा होकर असुरों को और अश्व होकर मनुष्योंको वहन किया है। समुद्र ही इसका बन्धु है और समुद्र ही इसका उत्पत्ति स्थान है। ॥२॥ ॥ इति प्रथमं ब्राहमणम् ॥ ॥ प्रथम ब्राहमण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः - द्वितीयं ब्राह्मणम् द्वितीय ब्राह्मण अग्नि ब्राह्मण - अश्वमेध सम्बन्धी अग्नि की उत्पत्ति नैवेह किंचनाग्र आसीन् मृत्युनैवेदमावृतमासीदशनाययाऽ शनाया हि मृत्युस्तन्मनोऽ कुरुताऽऽत्मन्वी स्यामिति । सोऽर्चन्नचरत् तस्यार्चत आपोऽजायन्तार्चते वै मे कमभूदिति । तदेवार्त्यस्यार्कत्वम् । कञ् ह वा अस्मै भवति य एवमेतदर्कस्यार्कत्वं वेद ॥ १॥ पहले यहाँ कुछ भी नहीं था। यह सब मृत्यु से ही आवृत था। यह भूख से ढका हुआ था। भूख ही मृत्यु है। उसने मैं शरीर वाला बन जाऊं, ऐसा निश्चय किया। उसने पूजन) करते हुए विचारा, उसके पूजन अर्चन करने से अप हुआ। अर्चन करते हुए मेरे लिये क (जल) प्राप्त हुआ है, अतः यही अर्क का अर्कत्व है। जो इस प्रकार अर्क के इस अर्कत्व को जानता है उसे निश्चय क (सुख) होता है ॥१॥ आपो वा अर्क तद्यदपा शर आसीत् तत्समहन्यत । सा पृथिव्यभवत् तस्यामश्राम्यत् तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य तेजो रसो निरवर्तताग्निः ॥ २॥ जल ही अर्क हैं। उस जल का जो शर-स्थूलभाग अथवा झाग था वह एकत्रित हो गया और वह पृथिवी बन गया। उसके उत्पन्न होने पर वह मृत्यु थक गया। उस थके और तपे हुए प्रजापति के शरीर से उसका सारभूत तेज अग्नि प्रकट हुआ ॥२॥ स त्रेधाऽऽत्मानं व्यकुरुताऽ ऽदित्यं तृतीयं वायुं तृतीयः । स एष प्राणस्त्रेधा विहितस्तस्य प्राची दिक्षिरोऽसौ चासौ चेर्माव अथास्य प्रतीची दिक्पुच्छमसौ चासौ च सक्थ्यौ दक्षिणा चोदीची च पार्श्वे द्यौः पृष्ठमन्तरिक्षमुदरमियमुरः स एषोऽप्सु प्रतिष्ठितो यत्र क्व चैति तदेव प्रतितिष्ठत्येवं विद्वान् ॥ ३॥ उस अग्नि ने अपने आप को तीन प्रकार से विभक्त किया, आदित्य (सूर्य) तीसरा है और वायु तीसरा है और बाकी बचा तीसरा भाग अग्नि है। इस प्रकार यह प्राण तीन भाग में विभक्त हो गया। उसका पूर्व दिशा सिर है तथा इधर-उधर की (ईशानी-उत्तर पूर्व और आग्नेयी दक्षिण पूर्व) विदिशाएँ बाहु हैं। इसी प्रकार पश्चिम दिशा इसकी पूँछ है तथा इधर-उधर की (वायव्य उत्तर पश्चिम और नैर्ऋत्य-दक्षिण पश्चिम) विदिशाएँ जंघाएँ हैं। दक्षिण और उत्तर दिशाएँ उसके पाश्र्व हैं, द्युलोक पृष्ठभाग है, अन्तरिक्ष उदर है, यह पृथिवी हृदय है। यह अग्निरूप विराट् प्रजापति जल में स्थित है। इसे इस प्रकार जाननेवाला पुरुष जहाँ-कहीं जाता है वहीं प्रतिष्ठित होता है ॥३॥ सोऽकामयत द्वितीयो म आत्मा जायेतेति । स मनसा वाचं मिथुनः समभवदशनाया मृत्युस्तद्यद्रेत आसीत् स संवत्सरोऽभवन् न ह पुरा ततः संवत्सर आस । तमेतावन्तं कालमबिभर्यावान्संवत्सरस्तमेतावतः कालस्य परस्तादसृजत । तं जातमभिव्याददात् स भाणकरोत् सैव वागभवत् ॥ ४॥ उसने कामना की कि मेरा दूसरा शरीर उत्पन्न हो; अतः उस भूख रूप मृत्यु ने मन से वेद रूप मिथुन की भावना की। उससे जो बीज उत्पन्न हुआ. वह संवत्सर हुआ। इससे पूर्व सवंत्सर नहीं था। उस संवत्सर को जितना संवत्सर का काल होता है, उठने समय तक वह मृत्युरूप प्रजापति गर्भ में धारण किए रहा। इतने समय के पीछे उसने उसको काल को उत्पन्न किया। जब वह उत्पन्न हुआ तो मृत्यु ने उसकी तरफ मुंह खोला। इससे उसने 'भाण' ऐसा शब्द किया । वही वाणी (आवाज) हुई। स ऐक्षत यदि वा इममभिमस्ये कनीयोऽन्नं करिष्य इति । स तया वाचा तेनाऽऽत्मनेद सर्वमसृजत यदिदं किञ्चर्चा यजूंषि सामानि छन्दासि यज्ञान् प्रजाः पशून् स यद्यदेवासृजत तत्तदत्तुमध्रियत। सर्वं वा अत्तीति तददितेरदितित्व । सर्वस्यैतस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नं भवति य एवमेतददितेरदितित्वं वेद ॥ ५॥ उसने विचार किया कि "यदि मैं इस को मारता हूं, तो थोडा सा भोजन करूँगा । अतः उसने उस वाणी और उस मन के द्वारा इन सबको रचा, जो कुछ भी ये ऋक, यजुः, साम, छंद, यज्ञ, प्रजा और पशु हैं। उसने जिस जिस की रचना की उसी उसी को खाने का विचार किया। निश्चय ही वह सबको खाता है यही अदिति का का अदितित्व है। वह सब कुछ खा जाता है, इसलिए मृत्यु को अदिति कहते हैं। जो इस प्रकार अदिति के अदितित्व को जानता है वह इन सब का भोक्ता होता है और यह सब उसका अन्न होता है। ॥५॥ सोऽकामयत भूयसा यज्ञेन भूयो यजेयेति । सोऽश्राम्यत् स तपोऽतप्यत । तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य यशो वीर्यमुदक्रामत् प्राणा वै यशो वीर्यम् । तत् प्राणेषूत्क्रान्तेषु शरीरः श्वयितुमध्रियत तस्य शरीर एव मन आसीत् ॥ ६॥ उसने यह कामना की कि मैं पुनः बड़े भारी यज्ञ से यजन करूँ। इससे वह श्रमित हो गया। उसने तप किया। उस श्रमित और तपे हुए मृत्यु का यश और वीर्य निकल गया। प्राण ही यश और वीर्य हैं। तब प्राणों के निकल जाने पर शरीर ने फूलना आरम्भ किया। किंतु उसका मन शरीरमें ही रहा ॥६॥ सोऽकामयत मेध्यं म इदः स्यादात्मन्व्यनेन स्यामिति। ततोऽश्वः समभवद् यदश्वत् तन्मेध्यमभूदिति । तदेवाश्वमेधस्याश्वमेधत्वं एष ह वा अश्वमेधं वेद य एनमेवं वेद। तमनवरुध्यैवामन्यत। तः संवत्सरस्य परस्तादात्मन आलभत । पशून्देवताभ्यः प्रत्यौहत् तस्मात्सर्वदेवत्यं प्रोक्षितं प्राजापत्यमालभन्त एष ह वाअश्वमेधो य एष तपति तस्य संवत्सर आत्माऽयमग्निरर्कस्तस्येमे लोका आत्मानस्तावेतावर्काश्वमेधौ। सो पुनरेकैव देवता भवति मृत्युरेवाप पुनर्मृत्युं जयति नैनं मृत्युराप्नोति मृत्युरस्याऽऽत्मा भवत्येतासां देवतानामेको भवति ॥ ७॥ उसने यह कामना की मेरा यह शरीर मेध्य-यज्ञ के योग्य (यज्ञिय) हो जाए, मैं इसके द्वारा शरीरवान होऊँ; क्योंकि वह शरीर अश्वत् अर्थात् फूल गया था, इसलिये वह अश्व हो गया और वह मेध्य हुआ। अतः यही अश्वमेध का अश्वमेधत्व है। जो इसे इस प्रकार जानता है वही अश्वमेध को जानता है। उसने उसे अबरोधरहित (बन्धन शून्य) ही चिन्तन किया। उसने संवत्सर के पश्चात् उसका अपने ही लिये प्राप्त किया तथा अन्य पशुओं को भी देवताओ के प्रति पहुँचाया। अतः याज्ञिक लोग मन्त्र द्वारा संस्कार किये हुए सर्व देव सम्बन्धी प्राजापत्य पशु को प्राप्त करते हैं। यह जो सूर्य तपता है वही अश्वमेध है। उसका संवत्सर शरीर है, यह अग्नि अर्क है तथा उसके ये लोक आत्मा हैं। ये ही दोनों अग्नि और आदित्य अर्क और अश्वमेध हैं। किंतु वे मृत्युरूप एक ही देवता हैं। जो इस प्रकार जानता है वह पुनर्मुत्यु को जीत लेता है, उसे मृत्यु नहीं पा सकता, मृत्यु उसका आत्मा हो जाता है तथा वह इन देवताओं में से ही एक हो जाता है ॥७॥ ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ द्वितीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः - तृतीयं ब्राह्मणम् तृतीय ब्राह्मण उद्गीथ ब्राह्मण द्वया ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च। ततः कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुरास्त एषु लोकेष्वस्पर्धन्त । ते ह देवा ऊचुर्हन्तासुरान्यज्ञ उद्गीथेनात्ययामेति ॥ १॥ प्रजापति के दो प्रकार के पुत्र थे- देव और असुर। उनमें देव कम थे और असुर अधिक थे। इन लोकों में वे एक दूसरे से आगे निकलने के लिए परस्पर स्पर्धा करने लगे। उनमें से देवताओं ने कहा, 'हम यज्ञ में उद्गीथ' के द्वारा असुरों का अतिक्रमण करें'। ॥१॥ ते ह वाचमूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्यो वागुदगायद् यो वाचि भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणं वदति तदात्मने । ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपं वदति स एव स पाप्मा ॥ २॥ उन देवताओं ने वाणी से कहा, "तुम हमारे लिये उद्गान करो।" वाणी ने 'बहुत अच्छा' ऐसा कहकर उनके लिये उद्गान किया। उसने जो वाणी में भोग था उसे देवताओं के लिये गान किया और जो शुभ भाषण करती थी उसे अपने लिये गाया। तब असुरों ने समझा कि इस उद्गाता के द्वारा देवता हमसे आगे निकल जायेंगे। अतः उन्होंने उसके पास जाकर उसे पाप से बींध दिया। यह वाणी जो योग्य भाषण (गाली देना, झूठ बोलना, कठोर बोलना इत्यादि) करती है वही वह पाप है, वही वह पाप है ॥२॥ अथ ह प्राणमूचुस्त्वं न उगायेति । तथेति । तेभ्यः प्राण उदगायद् यः प्राणे भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणं जिघ्रति तदात्मने । ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपं जिघ्रति स एव स पाप्मा ॥ ३॥ फिर देवताओं ने प्राण से कहा "तुम हमारे लिये उद्गान करो ।" तब प्राण ने 'तथास्तु' कहकर उनके लिये उद्गान किया। प्राण में जो भोग है उसे उसने देवताओं के लिये गाया और जो कुछ वह शुभ सूंघता है उसे अपने लिये गाया। तब असुरों ने समझा कि इस उद्गाता के द्वारा देवता हमसे आगे निकल जायेंगे। अतः उन्होंने उसके पास जाकर उसे पाप से बींध दिया। यह जो योग्य सूंघता है, यही वह पाप है, यही वह पाप है। ॥३॥ अथ ह चक्षुरूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्यश्चक्षुरुदगायद् यश्चक्षुषि भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणं पश्यति तदात्मने । ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपं पश्यति स एव स पाप्मा ॥ ४॥ फिर देवताओं ने चक्षु से कहा, "तुम हमारे लिये उद्गान करो।" तब चक्षु ने 'तथास्तु' कहकर उनके लिये उद्गान किया। चक्षु में जो भोग है उसे उसने देवताओं के लिये गाया और जो कुछ वह शुभ दर्शन करता है उसे अपने लिये गाया। तब असुरों ने समझा कि इस उद्गाता के द्वारा देवता हमसे आगे निकल जायेंगे। अतः उन्होंने उसके पास जाकर उसे पाप से बींध दिया। यह जो अयोग्य देखता है यही वह पाप है, यही वह पाप है। ॥४॥ अथ ह श्रोत्रमूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्यः श्रोत्रमुदगायद् यः श्रोत्रे भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणः शृणोति तदात्मने । ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपः शृणोति स एव स पाप्मा ॥ ५॥ फिर देवताओं ने श्रोत्र से कहा, "तुम हमारे लिये उद्गान करो।" तब श्रोत्र ने 'तथास्तु' कहकर उनके लिये उद्गान किया। श्रोत्र में जो भोग है उसे उसने देवताओं के लिये गाया और वह जो शुभ श्रवण करता है उसे अपने लिये गाया। तब असुरों ने समझा कि इस उद्गाता के द्वारा देवता हमसे आगे निकल जायेंगे। अतः उन्होंने उसके पास जाकर उसे पाप से बींध दिया। यह जो अयोग्य श्रवण करता है, यही वह पाप है, यही वह पाप है। ॥५॥ अथ ह मन ऊचुस्त्वं न उद्गायेति। तथेति । तेभ्यो मन उदगायद् यो मनसि भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याण सङ्कल्पयति तदात्मने । ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपः सङ्कल्पयति स एव स पाप्मैवमु खल्वेता देवताः पाप्मभिरुपासृजन् पाप्मभिसुपासृजन् एवमेनाः पाप्मनाऽविध्यन् ॥ ६॥ फिर देवताओं ने उन्होंने मन से कहा, "तुम हमारे लिये उद्गान करो।" तब मन ने 'तथास्तु' कहकर उनके लिये उद्गान किया। मन में जो भोग है उसे उसने देवताओं के लिये गाया और वह जो शुभसंकल्प करता है उसे अपने लिये गाया। तब असुरों ने समझा कि इस उद्गाता के द्वारा देवता हमसे आगे निकल जायेंगे। अतः उन्होंने उसके पास जाकर उसे पाप से बींध दिया। यह जो अयोग्य संकल्प करता है यही वह पाप है, यही वह पाप है। इस प्रकार निश्चय ही इन देवताओं को पाप का संपर्क हुआ और ऐसे ही असुरों ने इस देवताओं को पाप से बींध दिया। ॥६॥ अथ हेममासन्यं प्राणमूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्य एष प्राण उदगायत् ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन् । स यथाश्मानमृत्वा लोष्टो विध्व सेतैव हैव विध्वसमाना विष्वञ्चो विनेशुस्ततो देवा अभवन् पराऽसुराः । भवत्यात्मना पराऽस्य द्विषन्भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद ॥ ७॥ फिर अपने मुख में रहने वाले प्राणसे कहा, "तुम हमारे लिये उद्गान करो ।" तब प्राण ने 'तथास्तु' कहकर उनके लिये उद्गान किया । तब असुरों ने समझा कि इस उद्गाता के द्वारा देवता हमसे आगे निकल जायेंगे। अतः उन्होंने उसके पास जाकर उसे पाप से बींधना चाहा। किंतु जिस प्रकार पत्थर से टकरा कर मिट्टी का ढेला नष्ट हो जाता है उसी प्रकार वह विध्वस्त होकर अनेक प्रकार से नष्ट हो गये। तब देवगण विकार रहित हो गये और असुरों का पराजय हुआ। जो इस प्रकार जानता है वह प्रजापति रूप से उन्नति की ओर अग्रसर होता है और उससे द्वेष करने वाला शत्रु पराजय को प्राप्त होता है। ॥७॥ ते होचुः क्व नु सोऽभूद् यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्तरिति सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गाना हि रसः ॥ ८॥ देवता बोले, "जिसने हमें इस प्रकार देवभाव को प्राप्त किया है, वह कहाँ है ?" उन्होंने विचार करके निश्चय किया कि "यह आस्य (मुख ) के भीतर स्थित है, अतः यह प्राण अयास्य कहलाता है और क्योंकि यह अंगों का रस है, इसलिए अंगिरस है। ॥८॥ सा वा एषा देवता दूर्नाम दूर ह्यस्या मृत्युर्दूर ह वा अस्मान्मृत्युर्भवति य एवं वेद ॥ ९॥ वह देवता प्राण 'दूर' नामवाली है, क्योंकि इससे मृत्यु दूर रहता है। जो ऐसा जानता है, उससे मृत्यु दूर रहता है ॥९॥ सा वा एषा देवतैतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्य यत्राऽऽसां दिशामन्तस्तद्गमयां चकार तदासां पाप्मनो विन्यदधात् तस्मान्न जनमियान् नान्तमियान् नेत्पाप्मानं मृत्युमन्ववायानीति ॥१०॥ इस प्राण देवता ने इन वागादि देवताओं के पापरूप मृत्यु को हटाकर जहाँ इन दिशाओं का अन्त है वहाँ पहुँचा दिया। वहाँ इन के पाप को उन्होंने तिरस्कारपूर्वक स्थापित कर दिया। अतः 'मैं पापरूप मृत्यु से युक्त न हो जाऊँ' इस भय से मनुष्य को धर्म पतित जनों के पास नहीं जाना चाहिए और उन दिशाओं में भी नहीं जाना चाहिए, जहाँ वह वास करते हैं। ॥१०॥ सा वा एषा देवतैतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्याथैना मृत्युमत्यवहत् ॥ ११॥ वह प्राण देवता इन देवताओं के पाप रुपी मृत्यु को दूर कर फिर इन्हें मृत्यु के पार ले जा कर, देवतात्म भाव को प्राप्त करा दिया। ॥११॥ स वै वाचमेव प्रथमामत्यवहत् सा यदा मृत्युमत्यमुच्यत सोऽग्निरभवत् सोऽयमग्निः परेण मृत्युमतिक्रान्तो दीप्यते ॥ १२॥ उस प्रसिद्ध प्राण ने सबसे पहले वाक देवता (वाणी) को मृत्यु के पार पहुँचाया। वह वाणी मृत्यु से मुक्त होकर अग्नि हो गयी। वह अग्नि मृत्यु से मुक्त होकर, उसे जीत कर देदीप्यमान है। ॥१२॥ अथ प्राणमत्यवहत् स यदा मृत्युमत्यमुच्यत स वायुरभवत् सोऽयं वायुः परेण मृत्युमतिक्रान्तः पवते ॥ १३॥ इसके पश्च्यात उसने प्राण (घ्राण) को मृत्यु के पार पहुँचाया। वह घ्राण मृत्यु से मुक्त होकर वायु हो गया। वह वायु मृत्यु से मुक्त होकर, उसे जीत कर पवित्र करता है। ॥१३॥ अथ चक्षुरत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स आदित्योऽभवत् सोऽसावादित्यः परेण मृत्युमतिक्रान्तस्तपति ॥ १४॥ इसके पश्च्यात उसने नेत्र को मृत्यु के पार पहुँचाया। वह नेत्र मृत्यु से मुक्त होकर आदित्य हो गया। वह आदित्य मृत्यु से मुक्त होकर, उसे जीत कर तपता है। ॥१४॥ अथ श्रोत्रमत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत ता दिशोऽभवस्ता इमा दिशः परेण मृत्युमतिक्रान्ताः ॥ १५॥ फिर उसने श्रोत्र को मृत्यु के पार पहुँचाया। वह श्रोत मृत्यु से मुक्त होकर दिशा हो गया। वह दिशाएं मृत्यु से मुक्त हैं। ॥१५॥ अथ मनोऽत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स चन्द्रमा अभवत् सोऽसौ चन्द्रः परेण मृत्युमतिक्रान्तो भात्येव ह वा एनमेषा देवता मृत्युमतिवहति य एवं वेद ॥ १६ ॥ फिर उसने मन को मृत्यु के पार पहुँचाया। वह मन मृत्यु से मुक्त होकर चंद्रमा हो गया। वह चंद्रमा मृत्यु से मुक्त होकर, उसे जीत कर चमकता है। इसी प्रकार जो मनुष्य इस रहस्य को समझ लेता है, यह प्राण देवता उस मनुष्य को मृत्यु के पार पहुंचा देता है। ॥१६॥ अथाऽऽत्मनेऽन्नाद्यमागायद् यद्धि किञ्चान्नमद्यतेऽनेनैव तदद्यत इह प्रतितिष्ठति ॥ १७॥ इसके पश्च्यात उस प्राण ने अपने लिये खाने योग्य अन्न का गान किया, क्योंकि जो भी कुछ अन्न खाया जाता है, वह प्राण के ही द्वारा खाया जाता है तथा इस देह मे विद्यमान उस अन्न में प्राण प्रतिष्ठित होता है। ॥ १७ ॥ ते देवा अब्रुवन्न् एतावद्वा इद सर्वं यदन्नं तदात्मन आगासीरनु नोऽस्मिन्नन्न आभजस्वेति । ते वै माऽभिसंविशतेति । तथेति । तः समन्तं परिण्यविशन्त । तस्माद्यदनेनान्नमत्ति तेनैतास्तृप्यन्त्येव ह वा एन स्वा अभिसंविशन्ति भर्ता स्वानाः श्रेष्ठः पुर एता भवत्यन्नादोऽधिपतिर्य एवं वेद । य उ हैवंविदः स्वेषु प्रतिप्रतिर्बुभूषति न हैवालं भार्येभ्यो भवत्यथ य एवैतमनुभवति यो वैतमनु भार्यान् बुभूषति स हैवालं भार्येभ्यो भवति ॥ १८ ॥ वह देवता बोले, "यह जो अन्न है वह सब तो इतना ही है; उसे तुमने केवल अपने लिये गाया है अर्थात अन्न ही इस जगत में सबसे उत्तम वस्तु है, जिसे तुमने अपने लिए गाया है। अतः हमें भी इस अन्न में भागीदार बनाओ।" तब प्राण ने कहा "तुम लोग सभी ओर से मुझमें प्रवेश कर जाओ।" तब 'तथास्तु' ऐसा कहकर वह देवता सभी ओर से उसमें प्रवेश कर गये। अतः प्राण के द्वारा मनुष्य जो अन्न खाता है उससे यह सभी देवता भी तृप्त होते हैं। अतः जो इस प्रकार जानता है उसके जातिजन सभी ओर से उसका आश्रय ग्रहण करते हैं, वह स्वजनों का भरण करनेवाला, उनमें सबसे श्रेष्ठ और उनके आगे चलने वाला नेता होता है तथा अन्न भक्षण कराने वाला सबका अधिपति होता है। जातिजनों में से जो भी इस प्रकार जाननेवाले के प्रति प्रतिकूल होना चाहता है वह अपने आश्रितों का पोषण करनेमें समर्थ नहीं होता और जो भी इसके अनुकूल रहता है-जो भी इसके अनुसार रहकर अपने आश्रितों का पालन-पोषण करना चाहता है वह निश्चय ही अपने आश्रितों के पालन पोषण में समर्थ होता है। ॥१८॥ सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गाना हि रसः। प्राणो वा अङ्गाना रसः । प्राणो हि वा अङ्गाना रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छुष्यत्येष हि वा अङ्गाना रसः ॥ १९॥ वह प्राण अयास्य आङ्गिरस है, क्योंकि वह अङ्गों का रस अर्थात सार है। प्राण ही अङ्गों का रस है, निश्चय प्राण ही अङ्गों का रस है; क्योंकि जिस किसी अङ्ग से प्राण बाहर निकल जाता है, वह वहीं सूख जाता है, नीरस हो जाता है, अतः यही अङ्गोंका रस है। ॥ १९ ॥ एष उ एव बृहस्पतिर्वाग्वै बृहती तस्या एष पतिस्तस्मादु बृहस्पतिः ॥ २०॥ यही प्राण बृहस्पति भी है। वाणी ही बृहती है और उसका यह पति है, इसलिये यह बृहस्पति है। ॥२०॥ एष उ एव ब्रह्मणस्पतिर्वाग्वै ब्रह्म तस्या एष पतिस्तस्मादु ब्रह्मणस्पतिः ॥ २१॥ यही प्राण ब्रह्मणस्पति भी है। क्योंकि वाणी ही ब्रह्म है और उसका यह पति है, इसलिये यह ब्रह्मणस्पति है ॥२१॥ एष उ एव साम वाग्वै सामैष सा चामश्वेति तत्साम्नः सामत्वम् । यद्वेव समः प्लुषिणा समो मशकेन समो नागेन सम एभिस्त्रिभिर्लोकैः समोऽनेन सर्वेण तस्माद्वेव सामाश्नुते साम्नः सायुज्य सलोकतां य एवमेतत्साम वेद ॥ २२॥ यही प्राण साम भी है। वाणी ही 'सा' है और यह प्राण 'अम' है। 'सा' और 'अम' ही साम है, यही साम का सामत्व है। क्योंकि यह प्राण मक्खी के समान है, मच्छर के समान है, हाथी के समान है, इस त्रिलोकी के समान है और इन सभी के समान है, इसलिए ही यह साम है। जो इस साम को इस प्रकार जानता है वह साम की एकरूपता और उसकी सलोकता प्राप्त करता है ॥ २२ ॥ एष उ वा उद्गीथः । प्राणो वा उत् प्राणेन हीद सर्वमुत्तब्धम् । वागेव गीथोच्च गीथा चेति स उद्गीथः ॥ २३॥ यह प्राण ही उद्गीथ है। प्राण ही उत् है, प्राणके द्वारा ही यह सब कुछ धारण किया हुआ है। वाणी ही गीथा है। 'उत्' और 'गीथा' अर्थात प्राण और वाणी, यही दोनों मिलकर उद्गीथ है ॥ २३ ॥ तद्धापि ब्रह्मदत्तश्चैकितानेयो राजानं भक्षयन्नुवाचायं त्यस्य राजा मूर्धानं विपातयताद् यदितोऽयास्य आङ्गिरसोऽन्येनोदगायदिति। वाचा च ह्येव स प्राणेन चोदगायदिति ॥ २४॥ उस प्राण के विषय में यह आख्यान है चैकितानेय (चेकितान के पोते) ब्रह्मदत्त ने यज्ञ में सोम पान करते हुए कहा था, "यदि अयास्य और आङ्गिरस नामक मुख्य प्राण ने वाणी संयुक्त प्राण के अलावा देवता द्वारा उद्गान किया हो तो यह सोम मेरा सिर गिरा दें।" अतः उसने प्राण और वाणी के ही द्वारा उद्गान किया था-ऐसा निश्चय होता है ॥ २४ ॥ तस्य हैतस्य साम्नो यः स्वं वेद भवति हास्य स्वम् । तस्य वै स्वर एव स्वम् । तस्मादार्विज्यं करिष्यन्वाचि स्ववरमिच्छेत तया वाचा स्वरसम्पन्नयाऽऽर्विज्यं कुर्यात् तस्माद्यज्ञे स्वरवन्तं दिदृक्षन्त एवाथो यस्य स्वं भवति । भवति हास्य स्वं य एवमेतत्साम्नः स्वं वेद ॥ २५॥ जो उस इस साम शब्द वाच्य मुख्य प्राण के धन को जानता है उसे धन प्राप्त होता है। निश्चय ही स्वर ही उसका धन है। अतः ऋत्विक् कर्म करने वाले को वाणी में स्वर की इच्छा करनी चाहिये। उस स्वर सम्पन्न वाणी से ऋत्विक को कर्म करना चाहिए। यही कारण है की यज्ञ मे लोग उसी उद्गाता को देखना चाहते हैं जो स्वरवान् हैं। लोक में भी जिसके पास धन होता है, लोग उसे ही देखना चाहते हैं। जो इस प्रकार इस साम के धन अर्थात्त स्वर को जानता है, उसे धन प्राप्त होता है ॥२५॥ तस्य हैतस्य साम्नो यः सुवर्णं वेद भवति हास्य सुवर्णम् । तस्य वै स्वर एव सुवर्णम् । भवति हास्य सुवर्ण य एवमेतत्साम्नः सुवर्णं वेद ॥ २६॥ जो इस साम के सुवर्ण को जानता है, उसे सुवर्ण प्राप्त होता है। उसका स्वर ही सुवर्ण है। जो इस प्रकार इस सामके सुवर्ण को जानता है उसे सुवर्ण मिलता है ॥२६॥ तस्य हैतस्य साम्नो यः प्रतिष्ठां वेद प्रति ह तिष्ठति । तस्य वै वागेव प्रतिष्ठा वाचि हि खल्वेष एतत्प्राणः प्रतिष्ठितो गीयते ऽन्न इत्यु हैक आहुः ॥ २७॥ जो उस इस साम की प्रतिष्ठा को जानता है वह प्रतिष्ठित होता है। उसकी वाणी ही प्रतिष्ठा है, क्योंकि वाणी मे प्रतिष्ठित हुआ ही यह प्राण ही गाया जाता है। कोई यह भी कहते हैं की 'वह अन्न में प्रतिष्ठित होकर गया जाता है'। ॥ २७॥ अथातः पवमानानामेवाभ्यारोहः । स वै खलु प्रस्तोता साम प्रस्तौति । स यत्र प्रस्तुयात् तदेतानि जपेदसतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमयेति । स यदाहासतो मा सद्गमयेति मृत्युर्वा असत् सदमृतं मृत्योर्माऽमृतं गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह । तमसो मा ज्योतिर्गमयेति मृत्युर्वै तमो ज्योतिरमृतं मृत्योर्मामृतं गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह । मृत्योर्मामृतं गमयेति नात्र तिरोहितमिवास्त्यथ यानीतराणि स्तोत्राणि तेष्वात्मनेऽन्नाद्यमागायेत् तस्मादु तेषु वरं वृणीत यं कामं कामयेत तः । स एष एवंविदुद्गाताऽऽत्मने वा यजमानाय वा यं कामं कामयते तमागायति । तद्वैतल्लोकजिदेव न हैवालोक्यताया आशास्ति य एवमेतत्साम वेद ॥ २८ ॥ अब आगे पवमान मन्त्रों का ही अभ्यारोह कहा जाता है। प्रस्तोता निश्चय ही साम का ही प्रस्ताव (आरम्भ) करता है। जिस समय वह प्रस्ताव करे उस समय इन मन्त्रों को जपे- 'असतो मा सद्गमय', 'तमसो मा ज्योतिर्गमय', 'मृत्योर्मामृतं गमय' । वह जिस समय कहता है- 'मुझे असत् से सत् सत की ओर ले जाओ' यहाँ मृत्यु ही असत् है और अमृत सत् हैं। अतः वह यही कहता है कि मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले जाओ अर्थात् मुझे अमर कर दो । जब वह कहता है- 'मुझे अन्धकारसे प्रकाशकी ओर ले जाओ' तो यहाँ मृत्यु ही अन्धकार है और अमृत ज्योति है अर्थात वह यही कहता है कि मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले जाओ अर्थात्, मुझे अमर कर दो । और जब वह यह कहता है की मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले जाओ तो इसमें तो कोई बात छिपी ही नहीं है। इनके बाद जो अन्य स्तोत्र हैं उनमें उद्गाता अपने लिये खाने योग्य अन्न का गान करता है। उनका गान किये जाने पर यजमान वर माँगे और जिस भोग की इच्छा हो उसकी कामना करे। इस प्रकार जाननेवाला उद्गाता अपने या यजमानके लिये जिस भोग की कामना करता है उसी का उद्गान करता है। यही प्राणदर्शन लोकप्राप्ति का साधन है। जो इस प्रकार से सामको जानता है उसे लोक के अयोग्य होने की आशा तो हो ही नही सकती। ॥ २८ ॥ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ तृतीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः - चतुर्थं ब्राह्मणम् चतुर्थ ब्राह्मण पुरुषविध ब्राह्मण आत्मैवेदमग्र आसीत्पुरुषविधः । सोऽनुवीक्ष्य नान्यदात्मनोऽपश्यत् सोऽहमस्मीत्यग्रे व्याहरत् ततोऽहन्नामाभवत् । तस्मादप्येतह्यमन्त्रितो ऽहमयमित्येवाग्र उक्त्वाऽथान्यन्नाम प्रब्रूते यदस्य भवति । स यत्पूर्वोऽस्मात्सर्वस्मात्सर्वान्पाप्मन औषत् तस्मात्पुरुषः । ओषति ह वै स तं योऽस्मात्पूर्वो बुभूषति य एवं वेद ॥ १॥ पहले यह विश्व पुरुषाकार आत्मा ही था। उसने चारों ओर देखने पर अपने से भिन्न कुछ अन्य नहीं देखा। उसने आरम्भ में 'अहमस्मि - मैं ही हूँ' ऐसा कहा, इसलिये वह 'अहम्' नामवाला हुआ। इसलिए अभी भी पुकारे जाने पर पहले 'अहम् - मैं' ऐसा ही कहकर उसके पश्चात् जो उसका नाम होता है वह बतलाता है। क्योंकि इस सबसे पूर्ववर्ती उस आत्मा संज्ञक प्रजापति ने समस्त पापों दग्ध कर डाला था, इसलिये यह पुरुष हुआ। जो इस रहस्य को जान लेता है, वह निःसंदेह समस्त पापों को जला डालता है। ॥१॥ सोऽबिभेत् तस्मादेकाकी बिभेति । स हायमीक्षां चक्रे यन्मदन्यन्नास्ति कस्मान्नु बिभेमीति । तत एवास्य भयं वीयाय । कस्माद्ध्यभेष्यत् द्वितीयाद्वै भयं भवति ॥ २॥ अकेला होने के कारण, वह भयभीत हो गया। इसलिए अकेला मनुष्य भयभीत होता है। उसने यह विचार किया 'यदि मेरे अलावा कोई दूसरा नहीं है तो मैं किससे डरता हूँ ?' तभी उसका वह डर दूर हो गया गया। किंतु उसे भय क्यों हुआ? क्योंकि भय तो केवल दूसरेसे ही होता है ॥२॥ स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते । स द्वितीयमैच्छत् स हैतावानास यथा स्त्रीपुमा सौ सम्परिष्वक्तौ । स इममेवाऽऽत्मानं द्वेधाऽपातयत् । ततः पतिश्च पत्नी चाभवताम् । तस्मादिदमर्धबृगलमिव स्व इति ह स्माऽऽह याज्ञवल्क्यस्तस्मादयमाकाशः स्त्रिया पूर्यत एव । ताः समभवत् ततो मनुष्या अजायन्त ॥ ३॥ वह प्रसन्न नहीं हुआ। इसलिए अकेला पुरुष प्रसन्न नहीं होता। उसने दूसरे की इच्छा की। इस विचार से वह उस आकर का हो गया, जिस आकर के परस्पर आलिंगित स्त्री और पुरुष होते हैं। उसने अपने इस विराट शरीर को दो भागों में विभक्त कर डाला। उस से पति और पत्नी हुए। इसलिये याज्ञवल्क्य ने कहा की यह शरीर अर्द्धबृगल- किसी वस्तु के आधे टुकड़ों में से हर एक टुकड़े का नाम के समान है। इसलिये यह पुरुषार्द्ध आकाश स्त्री से पूर्ण होता है। वह उस स्त्री से संयुक्त हुआ; उसी से मनुष्य उत्पन्न हुए हैं। ॥ ३ ॥ सो हेयमीक्षां चक्रे कथं नु माऽऽत्मन एव जनयित्वा सम्भवति । हन्त तिरोऽसानीति । सा गौरभवद् ऋषभ इतरस्ता समेवाभवत् ततो गावोऽजायन्त । वडवेतराऽभवद् अश्ववृष इतरो गर्दभीतरा गर्दभ इतरस्ता समेवाभवत् तत एकशफमजायत अजेतराऽभवद् वस्त इतरोऽविरितरा मेष इतरस्ता समेवाभवत् ततोऽ जावयोऽ जायन्तैवमेव यदिदं किञ्च मिथुनमा पिपीलिकाभ्यस्तत्सर्वमसृजत ॥ ४॥ उस स्त्री ने यह विचार किया की अपने से ही उत्पन्न करके यह मुझसे क्यों समागम करता है? हा! मैं छिप जाऊं, अतः वह गौ हो गयी तो दूसरा यानि पुरुष ने वृषभ होकर उससे सम्भोग किया, इससे गाय- बैल उत्पन्न हुए। तब वह स्त्री घोड़ी बनी तो वह पुरुष अश्व श्रेष्ठ हो गए, फिर वह स्त्री गद्‌भी हो गयी और वह पुरुष गदर्भ हो गया, इससे एक खुरखाले पशु उत्पन्न हुए। तदनन्तर वह स्त्री बकरी हो गयी और वह पुरुष बकरा हो गया। फिर वह स्त्री भेड़ हो गयी और वह पुरुष भेड़ा होकर उससे समागम करने लगा। इससे बकरी और भेड़ोंकी उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार चींटी से लेकर ये जितने मिथुन (स्त्री-पुरुष रूप जोड़े) हैं उन सभी की उन्होंने रचना कर डाली। ॥४॥ सोऽवेदहं वाव सृष्टिरस्म्यह हीद सर्वमसृक्षीति । ततः सृष्टिरभवत् सृष्ट्या हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद ॥ ५॥ उस विराट पुरुष' मैं ही सृष्टि हूँ!' ऐसा जाना, क्योंकि मैंने इस समस्त सृष्टि को रचा है। इस कारण वह 'सृष्टि' नामवाला हुआ । जो ऐसा जानता है वह इस (प्रजापति) की इस सृष्टि में जीता है। ॥ ५ ॥ अथेत्यभ्यमन्थत् स मुखाच्च योनेर्हस्ताभ्यां चाग्निमसृजत । तस्मादेतदुभयमलोमकमन्तरतोऽलोमका हि योनिरन्तरतस्तद्यदिदमाहुरमुं यजामुं यजेत्येकैकं देवमेतस्यैव सा विसृष्टिरेष उ ह्येव सर्वे देवा अथ यत्किञ्चेदमार्द्र तद्रेतसोऽसृजत तदु सोमः । एतावद्वा इदः सर्वमन्नं चैवान्नादश्च सोम एवान्नमग्निरन्नादः । सैषा ब्रह्मणोऽतिसृष्टिर्यच्छ्रेयसो देवानसृजताथ यन्मर्त्यः सन्नमृतानसृजत तस्मादतिसृष्टिरतिसृष्ट्या हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद ॥ ६॥ फिर उसने इस प्रकार मन्थन किया। उसने मुख रूपी योनि (अग्नि के स्थान) को दोनों हाथों द्वारा मन्थन करके अग्नि को उत्पन्न किया। इसलिये यह दोनों, मुख और हाथ अन्दर की तरफ से लोमरहित हैं, क्योंकि अग्नि भी अन्दर से लोमरहित ही होती है। अतः याज्ञिक लोग अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं को, एक-एक से अलग-अलग देवता मानते हुए जो ऐसा कहते हैं कि 'इस अग्नि का यजन करो, इस इन्द्र का यजन करो' सो वह इस एक ही ब्रह्म के विभिन्न रूप हैं। यह प्रजापति ही सर्वदेवरूप है। इसके बाद जो कुछ यह रसयुक्त वस्तु है उसे उसने बीज से उत्पन्न किया, वही सोम है। इतना ही यह सब अन्न और अन्न को खाने वाले हैं। सोम ही अन्न है और अग्नि ही अन्न को खाने वाली है। यह ब्रह्मा की अति सृष्टि है कि उसने अपने से उत्कृष्ट देवताओं की रचना की-स्वयं मर्त्य होनेपर भी अमृतों को उत्पन्न किया। इसलिये यह अतिसृष्टि है। जो इस प्रकार जानता है वह इसकी इस अतिसृष्टि में ही समाहित हो जाता है। ॥ ६॥ तद्धेदं तर्हाव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियतासौ नामाऽयमिदरूप इति । तदिदमप्येतर्हि नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियतेऽसौ नामायमिदरूप इति । स एष इह प्रविष्ट आ नखाग्रेभ्यो यथा क्षुरः क्षुरधानेऽवहितः स्याद् विश्वम्भरो वा विश्वम्भरकुलाये तं न पश्यन्त्यकृत्स्नो हि सः प्राणन्नेव प्राणो नाम भवति वदन्वाक् पश्यंश्चक्षुः शृण्वञ्होत्रं मन्वानो मनस्तान्यस्यैतानि कर्मनामान्येव । स योऽत एकैकमुपास्ते न स वेदाकृत्स्त्रो ह्येषोऽत एकैकेन भवत्यात्मेत्येवोपासीतात्र ह्येते सर्व एकं भवन्ति । तदेतत्पदनीयमस्य सर्वस्य यदयमात्माऽनेन ह्येतत्सर्वं वेद । यथा ह वै पदेनानुविन्देदेवं कीर्ति श्लोकं विन्दते य एवं वेद ॥ ७॥ यह जगत उस समय - उत्पत्ति से पूर्व प्रकट नहीं था। वह अनेकों नाम रूप के योग से प्रकट हुआ। अतः इस समय भी यह अव्याकृत वास्तु 'इस नाम और इस रूपवाली है' इस प्रकार व्यक्त होती है। वह यह व्याकर्ता इस शरीर में नखाग्र पर्यंत प्रवेश किये हुए हैं जिस प्रकार कि छुरा छुरे के घर में छिपा रहता है अथवा विश्व का भरण करने वाला अग्नि, अग्नि के आश्रय- लकड़ी इत्यादि में गुप्त रहता है उसी तरह यह सर्वान्तरात्मा इसमें प्रविष्ट हुआ परंतु उसे लोग देख नहीं सकते । वह सांस लेता है इसलिए वह प्राण कहलाता है, बोलनेके कारण वाणी है, देखने के कारण नेत्र है, सुनने के कारण श्रोत्र है और मनन करने के कारण मन है। यह इसके कर्मानुसारी नाम ही हैं। अतः इनमें से जो एक-एक की उपासना करता है वह नहीं जानता। वह असम्पूर्ण ही है। वह एक-एक विशेषण से ही युक्त होता है। अतः 'आत्मा है, ऐसा जानकार उसकी उपासना करनी चाहिए, क्योंकि इस आत्मा में ही वह सब एक हो जाते हैं। यह जो आत्मा है वही इस सबका प्राप्त करने योग्य है, क्योंकि यह आत्मा है, इस आत्मा के स्वरुप को जान लेने पर इस समस्त जगत को जाना जा सकता है। जिस प्रकार पदों खुर आदि के चिह्नों द्वारा खोये हुए पशु को प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार जो ऐसा जानता है वह इसके द्वारा यश और इष्ट पुरुषों की कीर्ति और स्तुति को प्राप्त करता है। ॥ ७ ॥ तदेतत्प्रेयः पुत्रात् प्रेयो वित्तात् प्रेयोऽन्यस्मात् सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा । स योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात् प्रिय रोत्स्यतीतीश्वरो ह तथैव स्यादात्मानमेव प्रियमुपासीत । स य आत्मानमेव प्रियमुपास्ते न हास्य प्रियं प्रमायुकं भवति ॥ ८॥ यह आत्म तत्त्व पुत्र से अधिक प्रिय है, धन से अधिक प्रिय है और अन्य सबसे भी अधिक प्रिय है; क्योंकि यह आत्मा उनकी अपेक्षा अत्यंत प्रिय है। वह जो आत्मा को प्रिय देखने वाला है, यदि आत्मा से भिन्न - अनात्मा को प्रिय कहने वाले पुरुष से कहे कि 'तेरा प्रिय नष्ट हो जायगा' तो वैसा ही हो जायगा, क्योंकि वह समर्थ है। अतः आत्मा- रूप प्रिय की ही उपासना करनी चाहिए। जो आत्मा-रूप प्रिय की ही उपासना करता है उसका प्रिय मरणशील नहीं होता ॥८॥ तदाहुर्यद्ब्रह्मविद्यया सर्वं भविष्यन्तो मनुष्या मन्यन्ते किमु तद्ब्रह्मावेद् यस्मात्तत्सर्वमभवदिति ॥ ९॥ उन जिज्ञासु ब्राह्मणों ने यह कहा कि ब्रह्म विद्या के द्वारा जो मनुष्य यह मानते हैं की 'हम ब्रह्म विद्या से सर्व हो जायेंगे'; तो वह क्या था जो उस ब्रह्म ने क्या जाना जिससे वह सर्व हो गया? ॥९॥ ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् तदात्मानमेवावेदहं ब्रह्मास्मीति । तस्मात्तत्सर्वमभवत् तद्यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत् तथर्षीणां तथा मनुष्याणाम् । तद्वैतत्पश्यन्नृषिर्वामदेवः प्रतिपेदेऽहं मनुरभवः सूर्यश्चति । तदिदमप्येतर्हि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति इति स इद सर्वं भवति तस्य ह न देवाश्चनाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषाः स भवत्यथ योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद । यथा पशुरेव स देवानाम् । यथा ह वै बहवः पशवो मनुष्यं भुञ्ज्युरेवमेकैकः पुरुषो देवान्भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशावादीयमानेऽप्रियं भवति किमु बहुषु तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युः ॥ १०॥ आरम्भ में यह ब्रह्म ही था, उसने अपने को जाना कि 'मैं ब्रह्म हूँ'। इससे वह सर्व हो गया। उसे देवों में से जिस-जिसने जाना, उसी की अविद्या दूर हो गयी। इसी प्रकार ऋषियों और मनुष्यों में से भी जिसने उसे जाना वह ब्रह्म हो गया। उसे आत्मारूप से देखते हुए ऋषि वामदेव ने जाना-मैं मनु हुआ और सूर्य भी'। उस इस ब्रह्म को इस समय भी जो इस प्रकार जानता है कि मैं ब्रह्म हूँ', वह यह सर्व हो जाता है। उसके ऐश्वर्य के रोकने में देवता भी समर्थ नहीं होते; क्योंकि वह उनका आत्मा ही हो जाता है। और जो अन्य देवताओं की यह समझते हुए उपासना करता है कि मैं इस देवता अन्य हूँ' वह नहीं जानता की वह वह देवताओं के पशु की भांति है। जैसे लोकमें बहुत- से पशु मनुष्य का पालन करते हैं, उसी प्रकार एक-एक मनुष्य देवताओं का पालन करता है। एक पशु का ही हरण किये जाने पर अच्छा नहीं लगता, फिर बहुतों का हरण होने पर तो कहना ही क्या है ? इसलिये देवताओं को यह प्रिय नहीं है कि मनुष्य ब्रह्मात्म तत्त्व को जानें। ॥१०॥ ब्रह्म वा इदमग्र आसीदेकमेव । तदेक सन्न व्यभवत् तच्छ्रेयो रूपमत्यसृजत क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो मृत्युरीशान इति । तस्मात्क्षत्रात्परं नास्ति तस्माद्वाह्मणः क्षत्रियमधस्तादुपास्ते राजसूये। क्षत्र एव तद्यशो दधाति सैषा क्षत्रस्य योनिर्यद्ब्रह्म । तस्माद्यद्यपि राजा परमतां गच्छति ब्रह्मवान्तत उपनिश्रयति स्वां योनिम्। य उ एन हिनस्ति स्वा स योनिमृच्छति । स पापीयान्भवति यथा श्रेयास हिसित्वा ॥११॥ आरम्भ में यह एक ब्रह्म ही था परन्तु अकेला होने के कारण वह संसार वृद्धि कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ। उसने अतिशयता से क्षत्र इस प्रशस्त रूप की रचना की। अर्थात् देवताओं में क्षत्रिय जो ये इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मृत्यु और ईशानादि हैं, उन्हें उत्पन्न किया। अतः क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नहीं है। इसी कारण से राजसूययज्ञ में ब्राह्मण नीचे बैठता है और क्षत्रिय से नीचे बैठ कर उसकी उपासना करता है, वह क्षत्रिय में ही अपने यश को स्थापित करता है। यह जो ब्रह्म का ब्राह्मणत्व है, वही क्षत्रिय का उत्पत्ति स्थान है। इसलिये यद्यपि राजा उत्कृष्टता को प्राप्त होता है तो भी वह राजसूर्य यज्ञ के अन्त में वह ब्राह्मण का ही आश्रय लेता है। अतः जो क्षत्रिय इस ब्राह्मण की हिंसा करता है, वह अपनी योनि का ही नाश करता है। जिस प्रकार श्रेष्ठ की हिंसा करने से पुरुष पापी होता है, उसी प्रकार वह पापी होता है। ॥११॥ स नैव व्यभवत् स विशमसृजत यान्येतानि देवजातानि गणश आख्यायन्ते वसवो रुद्रा आदित्या विश्वे देवा मरुत इति ॥१२॥ वह ब्रह्म क्षत्र को रच कर भी संसार वृद्धि कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ। तब उसने विश वैश्यजाति की रचना की। यह जो विभिन्न देवताओं के समूह-वसु, रुद्र, आदित्य, विश्वेदेव और मरुत् इत्यादि देवगण गणशः कहे जाते हैं, उन्हें उत्पन्न किया। ॥१२॥ स नैव व्यभवत् स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै पूषेयः हीद सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च ॥ १३॥ फिर भी वह संसार वृद्धि कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ। तब उस ब्रह्म ने शूद्र वर्ण की रचना की। यह पृथ्वी पूषा ही शूद्रवर्ण है। यह पृथिवी ही पूषा है, क्योंकि यह पृथ्वी उस सब का इसका पोषण करती है। ॥ १३ ॥ स नैव व्यभवत् तच्छ्रेयो रूपमत्यसृजत धर्मम् । तदेतत्क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्मस्तस्माद्धर्मात् परं नास्त्यथो अबलीयान् बलीया समाश सते धर्मेण यथा राज्ञैवम् । यो वै स धर्मः सत्यं वै तत् तस्मात्सत्यं वदन्तमाहुर्धर्मं वदतीति धर्म वा वदन्तः सत्यं वदतीत्येतद्धयेवैतदुभयं भवति ॥ १४॥ तब भी वह पूर्ण समर्थ नहीं हुआ। तब उसने अत्यंत श्रेष्ठ, कल्याण स्वरूप, धर्म की अतिसृष्टि की। यह जो धर्म है, क्षत्रिय का भी प्रबंधक है। अतः धर्म से उत्कृष्ट कुछ नहीं है। इसलिये जिस प्रकार राजा की सहायता से दुर्बल में भी प्रबल शत्रु को भी जीतने की शक्ति आ जाती है, उसी प्रकार धर्म के द्वारा निर्बल पुरुष भी बलवान को जीतने की इच्छा करने लगता है। वह जो धर्म है, निश्चय सत्य ही है। इसी से सत्य बोलने वालों को कहते हैं कि 'यह धर्ममय वचन बोलता है' तथा धर्ममय वचन बोलने वाले से कहते हैं कि यह सत्य बोलता है, क्योंकि ये दोनों धर्म के ही पहलु हैं। ॥१४॥ तदेतद्ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्रस्तदग्निनैव देवेषु ब्रह्माभवद् ब्राह्मणो मनुष्येषु क्षत्रियेण क्षत्रियो वैश्येन वैश्यः शूद्रेण शूद्रस्तस्मादग्नावेव देवेषु लोकमिच्छन्ते ब्राह्मणे मनुष्येष्वेताभ्या हि रूपाभ्यां ब्रह्माभवदथ यो ह वा अस्माल्लोकात्स्वं लोकमदृष्ट्वा प्रैति स एनमविदितो न भुनक्ति यथा वेदो वाऽननूक्तोऽन्यद्वा कर्माकृतम्। यदि ह वा अप्यनेवंविन्महत्पुण्यं कर्म करोति तद्धास्यान्ततः क्षीयत एवाऽऽत्मानमेव लोकमुपासीत । स य आत्मानमेव लोकमुपास्ते न हास्य कर्म क्षीयतेऽस्माद्धयेवाऽऽत्मनो यद्यत्कामयते तत्तत्सृजते ॥ १५॥ यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण हैं। इन्हें उत्पन्न करने वाला ब्रह्म अग्निरूप से देवताओं में ब्राह्म हुआ तथा मनुष्यों में ब्राह्मणरूप से ब्राह्मण, क्षत्रियरूप से क्षत्रिय, वैश्यरूप से वैश्य और शूद्ररूप से शूद्र हुआ। इसी से अग्नि में ही कर्म करके देवताओं के बीच कर्मफल की इच्छा करते हैं तथा उसे मनुष्यों के बीच ब्राह्मणजाति में ही कर्मफल की इच्छा करते हैं, क्योंकि ब्रह्म इन दो रूपों से ही व्यक्त हुआ था। तथा जो कोई इस लोक से अन्तरात्मा का दर्शन किये बिना ही चला जाता है, वह उस अविदित आत्मा का पालन नहीं करता और उसका शोक-मोहादि कभी दूर नहीं होता। जिस प्रकार यदि किसी ने वेद अध्ययन न किया हो और न ही किसी अन्य शुभ कर्म का अनुष्ठान किया हो तो वह उसका पालन नहीं करता। इस प्रकार आत्मा को न जाननेवाला पुरुष यदि इस लोक में कोई महान् पुण्यकर्म भी करे तो भी अन्त में उसका वह कर्म क्षीण हो ही जाता है। अतः आत्मा को ही लोक समझ कर उपासना करनी चाहिये। जो पुरुष आत्म लोक की ही उपासना करता है, उसका कर्म क्षीण नहीं होता । इस आत्मा से पुरुष जिस वस्तु की कामना करता है, वह उस को प्राप्त कर लेता है। ॥१५॥ अथो अयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः स यज्जुहोति यद्यजते तेन देवानां लोकोऽथ यदनुब्रूते तेन ऋषीणामथ यत् पितृभ्यो निपृणाति अथ यत्प्रजामिच्छते तेन पितृणामथ यन्मनुष्यान्वासयते यदेभ्योऽशनं ददाति तेन मनुष्याणामथ यत्पशुभ्यस्तृणोदकं विन्दति तेन पशूनां यदस्य गृहेषु श्वापदा वयास्या पिपीलिकाभ्य उपजीवन्ति तेन तेषां लोको यथा ह वै स्वाय लोकायारिष्टिमिच्छेद् एव हैवंविदे सर्वदा सर्वाणि भूतान्यरिष्टिमिच्छन्ति । तद्वा एतद्विदितं मीमा सितम् ॥१६॥ यह आत्मा समस्त प्राण धारियों का लोक वह जो हवन और यज्ञ करता है, उससे देवताओं का लोक होता है; जो स्वाध्याय करता है, उससे ऋषियों का लोक है। जो पितरों के लिये पिण्डदान करता है और संतान की इच्छा करता है, उससे पितरों का लोक होता है और जो मनुष्यों को वासस्थान और भोजन देता है, उससे मनुष्यों का लोक होता है। इसी प्रकार जो पशुओं को तृण एवं जलादि पहुँचाता है, उससे पशुओं का लोक होता है। इसके घर में जो कुत्ते-बिल्ली आदि श्वापद, पक्षी और चींटी पर्यन्त जीव-जन्तु इसके आश्रित होकर जीवन धारण करते हैं, उससे यह उनका लोक होता है। जिस प्रकार लोक में अपने शरीर का अविनाश चाहते हैं, उसी प्रकार ऐसा जाननेवाले का सब जीव अविनाश चाहते हैं। उस इस कर्म की अवश्य कर्तव्यता पञ्चमहायज्ञ प्रकरण में ज्ञात है और अवदान प्रकरण में इसकी मीमांसा की गयी है'। ॥१६॥ आत्मैवेदमग्र आसीदेक एव। सोऽकामयत जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे स्यात् अथ कर्म कुर्वीयेत्येतावान्वै कामो नेच्छश्चनातो भूयो विन्देत् तस्मादप्येतह्येकाकी कामयते जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथवित्तं मे स्यादथ कर्म कुर्वयिति। स यावदप्येतेषामेकैकंन प्राप्नोत्यकृत्स्न एव तावन् मन्यते। तस्यो कृत्स्नता। मनएवास्याऽऽत्मा वाग्जाया प्राणः प्रजा चक्षुर्मानुषं वित्तं चक्षुषा हि तद्विन्दते श्रोत्रं दैव श्रोत्रेण हि तच्छृणोत्यात्मैवास्य कर्माऽऽत्मना हि कर्म करोति। स एष पाङ्‌ङ्क्तो यज्ञः पाङ्क्तः पशुः पाङ्ङ्क्तः पुरुषः पाङ्‌ङ्क्तमिद सर्वं यदिदं किञ्च। तदिद सर्वमाप्नोति य एवं वेद ॥ १७॥ आरम्भ में एक आत्मा ही था। उसने कामना की कि 'मेरे लिए स्त्री हो, फिर मैं संतान वाला बनूँ तथा मेरे लिए धन हो, फिर मैं कर्म करूँ।" बस इतनी ही मनुष्य की कामना है, इच्छा करने पर भी कोई इससे अधिक नहीं पाता। इसीसे अब भी अकेला पुरुष यही कामना करता है कि मेरे लिए स्त्री हो, फिर मैं संतान वाला बनूँ तथा मुझे धन प्राप्त हो तो फिर मैं कर्म करूँ। जब तक वह इनमें से एक-एक (स्त्री, संतान, धन और कर्मों की पूर्ती) को प्राप्त नहीं करता तब तक वह अपने को अपूर्ण ही मानता है। उसकी पूर्णता इस प्रकार होती है- मन ही इसका आत्मा है, वाणी स्त्री है, प्राण संतान है और नेत्र मानुष धन है, क्योंकि वह नेत्र से ही मानुष धन को देख पाटा है। श्रोत्र उसका दैव धन है, क्योंकि श्रोत्र से ही वह दैव धन को सुनता है। शरीर ही इसका कर्म है, क्योंकि शरीर से ही यह कर्म करता है। यह पांच से बना हुआ यज्ञ है, पांच से बना हुआ पशु है, पांच से बना हुआ पुरुष है तथा यह जो कुछ है, सब पांच से ही बना हुआ है। जो ऐसा जानता है, वह इस सभी को प्राप्त कर लेता है ॥१७॥ ॥ इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ॥ चतुर्थ ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः - पञ्चमं ब्राह्मणम् पांचवां ब्राह्मण यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽऽजनयत्पिता । एकमस्य साधारणं द्वे देवानभाजयत् ॥ त्रीण्यात्मनेऽकुरुत पशुभ्य एकं प्रायच्छत् । तस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न ॥ कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदा । यो वै तामक्षितिं वेद सोऽन्नमत्ति प्रतीकेन स देवानपिगच्छति स ऊर्जमुपजीवतीति श्लोकाः ॥१॥ सृष्टि के पिता -प्रजापति ने ज्ञान और तप के द्वारा जिन सात अन्नों की रचना की, उनमें से इसका एक अन्न साधारण है अर्थात् वह सभी प्राणियों का भोग्य है। दो अन्न उन्होंने देवताओं को बाँट दिये, तीन उन्होंने अपने लिये रख लिए और एक पशुओं को दिया। उस पशुओं को दिये हुए अन्न का, जो सांस लेते हैं और जो सांस नहीं लेते वह सभी सहारा लिए हुए हैं। यह अन्न सर्वदा खाये जाने पर भी क्षीण क्यों नहीं होते है जो इस अन्न के अक्षय भाव को जानता है, वह मुख द्वारा अन्न भक्षण करता है। वह देवताओं को प्राप्त होता है तथा अमृत का उपभोग करता है, इस विषय में यह मन्त्र हैं। ॥ १ ॥ यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽजनयत्पितेति मेधया हि तपसाजनयत् पितैकमस्य साधारणमितीदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते । स य एतदुपास्ते न स पाप्मनो व्यावर्तते मिश्र ह्येतत् । द्वे देवानभाजयदिति हुतं च प्रहुतं च तस्माद् देवेभ्यो जुह्वति च प्र च जुह्वत्यथो आहुर्दर्शपूर्णमासाविति । तस्मान्नेष्टियाजुकः स्यात् । पशुभ्य एकं प्रायच्छदिति तत्पयः । पयो ह्येवाग्रे मनुष्याश्च पशवश्चोपजीवन्ति । तस्मात् कुमारं जातं घृतं वै वाग्रे प्रतिलेहयन्ति स्तनं वाऽनुधापयन्त्यथ वत्सं जातमाहुरतृणाद इति । तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च नेति पयसि हीद सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न । तद्यदिदमाहुः संवत्सरं पयसा जुह्वदप पुनर्मृत्युं जयतीति न तथा विद्याद् यदहरेव जुहोति तदहः पुनर्मृत्युमपजयत्येवं विद्वान् सर्व हि देवेभ्योऽन्नाद्यं प्रयच्छति । कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदेति पुरुषो वा अक्षितिः स हीदमन्नं पुनः पुनर्जनयते । यो वै तामक्षितिं वेदेति पुरुषो वा अक्षितिः। स हीदमन्नं धिया धिया जनयते कर्मभिर्यद्वैतन्न कुर्यात् क्षीयेत ह । सोऽन्नमत्ति प्रतीकेनेति मुखं प्रतीकं मुखेनेत्येतत् स देवानपिगच्छति स ऊर्जमुपजीवतीति प्रशसा ॥ २॥ सृष्टि के पिता - प्रजापति ने "ज्ञान और तप के द्वारा सात अन्नों की रचना की" यह सत्य है की उन्होंने ज्ञान और तप से ही साथ अन्न उत्पन्न लिए हैं। उनमे से एक अन्न साधारण है अर्थात् यह जो खाया जाता है, वही साधारण अन्न है। जो इसकी उपासना करता है अर्थात खाता है, वह पाप से अलग नहीं होता; क्योंकि यह अन्न समस्त प्राणियों का सम्मिलित रूप है। दो अन्न उसने देवताओंको बाँटे- वह हैं हुत और प्रहुत हैं। हुत-देवताओं के लिए अग्नि में होम करना और प्रहुत- बलिभाग देना । इसलिये गृहस्थ पुरुष देवताओं के लिये हवन करता है बलि-भाग अर्पित करता है। कोई ऐसा भी कहते हैं कि ये दो अन्न दर्श और पूर्णमास (दर्शेष्टि और पूर्णमासेष्टि) हैं। इसलिये मनुष्य को केवल कामना की पूर्ती करने वाले यजन में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। एक अन्न पशुओं को दिया, वह दुग्ध है। मनुष्य और पशु पहले दुग्ध के ही आश्रय जीवन धारण करते हैं, इसलिये उत्पन्न हुए बालक को पहले घृत चटाते हैं या स्तनपान कराते हैं। तथा उत्पन्न हुए बछड़े को भी अतृणाद (तृण भक्षण न करनेवाला) कहते हैं। जो श्वास लेते हैं और जो श्वास नहीं लेते, वह वे सब इस दुग्ध का ही सहारा लिए हुए हैं। अतः जो ऐसा कहते हैं कि एक साल तक दुग्ध से हवन करनेवाला पुरुष अपमृत्यु को जीत लेता है, सो ऐसा नहीं समझना चाहिये; क्योंकि जिस दिन वह दुग्ध से हवन करता है, उसी दिन अपमृत्यु को जीत लेता है। इस प्रकार जानने वाला पुरुष देवताओंको सम्पूर्ण अन्नाद्य प्रदान करता है। किंतु सर्वदा खाये जानेपर भी वह अन्न क्षीण क्यों नहीं होते? इसका कारण यह है कि पुरुष अविनाशी है, वही पुनः पुनः इस अन्न को उत्पन्न कर देता है। जो भी इस अक्षय भाव को जानता है अर्थात् पुरुष क्षयरहित है, वही इस अन्न को ज्ञान और कर्म द्वारा उत्पन्न कर देता है, यदि वह इसे उत्पन्न न करता तो यह क्षीण हो जाता। जो ऐसा जानता है। वह मुख के द्वारा अन्न का भक्षण करता है । वह देवताओं को प्राप्त होता है और अमृत का उपभोग करता है। यह फलश्रुति अर्थात इस विद्या के जानने वाले की प्रशंसा है ॥२॥ त्रीण्यात्मनेऽकुरुतेति मनो वाचं प्राणं तान्यात्मनेऽकुरुतान्यत्रमना अभूवं नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमिति मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति । कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्तीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव । तस्मादपि पृष्ठत उपस्पृष्टो मनसा विजानाति । यः कश्च शब्दो वागेव सैषा ह्यन्तमायत्तैषा हि न। प्राणोऽपानो व्यान उदानः समानोऽन इत्येतत्सर्वं प्राण एवैतन्मयो वा अयमात्मा वाङ्गयो मनोमयः प्राणमयः ॥ ३॥ उसने तीन अन्न उन प्रजापति ने अपने लिये बनाये अर्थात् मन, वाणी और प्राण। इन तीनों अन्नों को उन्होंने अपने (आत्मा के) लिए बनाया। जैसा की मनुष्य कहता है की मेरा मन अन्यत्र था, इसलिये मैंने नहीं देखा, मेरा मन अन्यत्र था, इसलिये मैंने नहीं सुना', इससे निश्चय होता है कि वह मन से ही देखता है और मन से ही सुनता है। काम, संकल्प, संशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, धृति (धारणशक्ति), अधृति, लजा, बुद्धि, भय- यह सब कुछ मन ही हैं। इसी कारण पीछे से स्पर्श किये जाने पर भी मनुष्य मन से जान लेता है। जो कुछ भी शब्द है, वह वाणी ही है; क्योंकि निःसंदेह यह अंत तक पहुँचती है, इसलिये प्रकट किए जाने योग्य नहीं है। प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान यह सभी प्राण ही हैं। यह आत्मा इन्ही पर निर्भर रहने वाला है अर्थात् वांग्मय (वाणी पर निर्भर करता है), मनोमय (मन पर निर्भर करता है) और प्राणमय (प्राण पर निर्भर करता) है। ॥३॥ त्रयो लोका एत एव वागेवायं लोको मनोऽन्तरिक्षलोकः प्राणोऽसौ लोकः ॥ ४॥ तीनों लोक यही हैं। वाणी ही पृथ्वी लोक है, मन अंतरिक्ष लोक है और प्राण यह स्वर्ग लोक है। ॥५॥ त्रयो वेदा एत एव वागेवर्वेदो मनो यजुर्वेदः प्राणः सामवेदः ॥ ५॥ तीनों वेद यही हैं। वाणी ही ऋग्वेद है, मन यजुर्वेद है और प्राण सामवेद है। ॥५॥ देवाः पितरो मनुष्या एत एव वागेव देवा मनः पितरः प्राणो मनुष्याः। ॥६॥ देवता, पितृगण और मनुष्य यही हैं। वाणी ही देवता हैं, मन पितृगण है और प्राण मनुष्य हैं। ॥६॥ पिता माता प्रजैत एव मन एव पिता वाङ्गाता प्राणः प्रजा ॥ ७॥ पिता, माता और प्रजा भी यही हैं। मन ही पिता है, वाणी ही माता है और प्राण प्रजा है ॥७॥ विज्ञातं विजिज्ञास्यमविज्ञातमेत एव यत्किञ्च विज्ञातं वाचस्तद्रूपं वाग्घि विज्ञाता वागेनं तद्भूत्वाऽवति ॥८॥ जो कुछ जाना जा चुका है, जो जानने योग्य है और जो अज्ञात है वह यही तीनो हैं। जो कुछ जाना जा चुका है वह वाणी का ही रूप है, क्योंकि वाणी ही जानी हुई है, वाणी अपने ज्ञाता की विज्ञात होकर रक्षा करती है। ॥८॥ यत्किञ्च विजिज्ञास्यं मनसस्तद्रूपं मनो हि विजिज्ञास्यं मन एनं तद्भूत्वाऽवति ॥ ९॥ जो कुछ जानने योग्य है, वह मन का रूप है। क्योंकि जिसके जानने की इच्छा होने चाहिए वह मन ही है। मन ही विजिज्ञास्य होकर इसकी रक्षा करता है। ॥९॥ यत्किञ्चाविज्ञातं प्राणस्य तद्रूपं प्राणो ह्यविज्ञातः प्राण एनं तद्भूत्वाऽवति ॥ १०॥ जो कुछ अविज्ञात है (बिना जाना-समझा), वह प्राण का रूप है। प्राण ही अविज्ञात है। प्राण ही अविज्ञात होकर इसकी रक्षा करता है। ॥१०॥ तस्यै वाचः पृथिवी शरीरं ज्योती रूपमयमग्निस्तद्यावत्येव वाक् तावती पृथिवी तावानयमग्निः ॥११॥ उस वाणी का पृथिवी शरीर है और यह अग्नि ज्योति रूप है। अतः जितनी बड़ी वाणी है, उतनी ही बड़ी पृथिवी है और उतना ही यह अग्नि है। ॥११॥ अथैतस्य मनसो द्यौः शरीरं ज्योतीरूपमसावादित्यस्तद्यावदेव मनस्तावती द्यौस्तावानसावादित्यस्तौ मिथुनः समैतां ततः प्राणोऽजायत । स इन्द्रः स एषोऽसपत्नो द्वितीयो वै सपत्नो नास्य सपत्नो भवति य एवं वेद ॥१२॥ तथा इस मन का द्युलोक शरीर है और आदित्य ज्योतीरूप है। अतः जितना बड़ा मन है, उतना ही द्युलोक और उतना ही वह आदित्य है। वे दोनों जोड़े आदित्य और अग्नि जब पारस्परिक संसर्ग को प्राप्त हुए, तब प्राण (वायु) उत्पन्न हुआ। वह प्राण जी इन्द्र है और वह शत्रुहीन है; दूसरा अर्थात् इंद्र का प्रतिपक्षी वही शत्रु संपन्न है। जो इस रहस्य को जानता है, उसका शत्रु नहीं होता। ॥१२॥ अथैतस्य प्राणस्याऽऽपः शरीरं ज्योतीरूपमसौ चन्द्रस्तद्यावानेव प्राणस्तावत्य आपस्तावानसौ चन्द्रः। त एते सर्व एव समाः सर्वेऽनन्ताः। स यो हैतानन्तवत उपास्तेऽन्तवन्तः स लोकं जयत्यथ यो हैताननन्तानुपास्तेऽनन्तः स लोकं जयति ॥१३॥ इस प्राण का जल शरीर है और वह चन्द्रमा ज्योतिरूप है। अतः जितना बड़ा प्राण है, उतना ही जल है और उतना ही वह चन्द्रमा है । वैसे तो यह सभी समान हैं और सभी अनन्त हैं। जो कोई इन्हें अंत शील समझ कर उपासना करता है, वह अंत शील लोक पर ही विजय प्राप्त करता है और जो इन्हें अनन्त समझकर उपासना करता है वह अनन्त लोक पर विजय प्राप्त करता है। ॥१३॥ स एष संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलस्तस्य रात्रय एव पञ्चदश कला ध्रुवैवास्य षोडशी कला। स रात्रिभिरेवाऽऽ च पूर्यते ो ऽप च क्षीयते । सोऽमावास्याः रात्रिमेतया षोडश्या कलया सर्वमिदं प्राणभृदनुप्रविश्य ततः प्रातर्जायते । तस्मादेता रात्रिं प्राणभृतः प्राणं न विच्छिन्द्यादपि कृकलासस्यैतस्या एव देवताया अपचित्यै ॥ १४॥ वही तीन अन्नरूप संवत्सर प्रजापति है, जिसकी सोलह कलाएँ हैं। उसकी रात्रियाँ ही पंद्रह कला (15 रात्रि) हैं, नित्य रहने वाली ध्रुवा इसकी सोलहवीं कला है। वह रात्रियों के द्वारा ही शुक्लपक्ष में वृद्धिको प्राप्त होता है तथा कृष्ण पक्ष में क्षीण होता है। अमावास्या की रात्रि में वह इस सोलहवीं कला से इन सब प्राणियों में प्रवेश कर फिर दूसरे दिन प्रातःकाल में उत्पन्न होता है। अतः इस अमावस्या की रात्रि में किसी प्राणी के प्राण का विच्छेद न करे, यहाँ तक कि छिपकली के भी अंग का विच्छेद न करे ॥ १४ ॥ यो वै स संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलोऽयमेव स योऽयमेवंवित्पुरुषस्तस्य वित्तमेव पञ्चदश कला आत्मैवास्य षोडशी कला । स वित्तेनैवाऽऽ च पूर्यतेऽप च क्षीयते । तदेतन्नभ्यं यदयमात्मा प्रधिर्वित्तम् । तस्माद्यद्यपि सर्वज्यानिं जीयत आत्मना चेज्जीवति प्रधिनाऽगादित्येवाऽऽहुः ॥ १५॥ निःसंदेह वह सोलह कलाओं वाला संवत्सर प्रजापति है यही है जो कि इस प्रकार जाननेवाला पुरुष है। धन ही उसकी घटने बढ़ने वाली पंद्रह कलाएँ हैं तथा आत्मा (शरीर) ही उसकी सोलहवीं कला है। वह धन से ही बढ़ता और क्षीण होता है। यह जो आत्मा (पिण्ड) है, वह नभ्य (रथ चक्र की नाभिरूप) है और धन प्रधि (रथचक्र का बाहर का घेरा) है। इसलिये यदि पुरुष सब कुछ खो जाने के बाद क्षीणता को प्राप्त हो जाय, किंतु शरीरसे जीवित रहे, तो यही कहते हैं कि केवल धन से ही क्षीण हुआ है। ॥१५॥ अथ त्रयो वाव लोकाः मनुष्यलोका पितृलोको देवलोक इति । सोऽयं मनुष्यलोकः पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा कर्मणा पितृलोको विद्यया देवलोको देवलोको वै लोकाना श्रेष्ठस्तस्माद्विद्यां प्रशसन्ति ॥१६॥ अतः मनुष्यलोक, पितृलोक और देवलोक ये ही तीन लोक हैं। वह यह मनुष्य लोक पुत्र के द्वारा ही जीता जा सकता है, किसी अन्य कर्म से नहीं। तथा पितृलोक कर्म से और देवलोक विद्या से जीते जा सकते हैं। लोकों में देवलोक ही श्रेष्ठ है; इसलिये सदैव विद्या की ही प्रशंसा की जाती है। ॥१६॥ अथातः सम्प्रत्तिर्यदा प्रैष्यन्मन्यतेऽथ पुत्रमाह त्वं ब्रह्म त्वं यज्ञस्त्वं लोक इति । स पुत्रः प्रत्याहाहं ब्रह्माहं यज्ञो ऽहम् लोक इति । यद्वै किञ्चानूक्तं तस्य सर्वस्य ब्रह्मेत्येकता । ये वै के च यज्ञास्तेषा सर्वेषां यज्ञ इत्येकता । ये वै केच लोकास्तेषा सर्वेषां लोक इत्येकतैतावद्वा इद सर्वमेतन्मा सर्वः सन्नयमितोऽभुनजदिति । तस्मात् पुत्रमनुशिष्टं लोक्यमाहुस्तस्मादेनमनुशासति । स यदैवंविदस्माल्लोकात्प्रैत्यथैभिरेव प्राणैः सह पुत्रमाविशति । स यद्यनेन किञ्चिदक्ष्णयाऽकृतं भवति तस्मादेन सर्वस्मात्पुत्रो मुञ्चति । तस्मात् पुत्रो नाम । स पुत्रेणैवास्मिं ल्लोके प्र रतितिष्ठत्यथैनमेते दैवाः प्राणा अमृता आविशन्ति ॥ १७॥ अब सम्प्रति कही जाती है-जब पिता यह समझता है कि मैं मरनेवाला हूँ तो वह पुत्र से कहता है-'तू ब्रह्म है, तू यज्ञ है, तू लोक है।' वह पुत्र उत्तर देता है- 'मैं ब्रह्म हूँ, मैं यज्ञ हूँ, मैं लोक हूँ।' जो कुछ भी स्वाध्याय है, उस सबकी 'ब्रह्म' यह एकता है। जो कुछ भी यज्ञ हैं, उनकी 'यज्ञ' यह एकता है। और जो कुछ भी लोक हैं, उनकी 'लोक' यह एकता है। बस इतना ही गृहस्थ पुरुष का सारा कर्त्तव्य है। फिर पिता यह मानने लगता है कि मेरा यह पुत्र मेरे इस भार को लेकर इस लोक से जानेपर मेरा पालन करेगा। अतः इस प्रकार अनुशासित हुए पुत्र को 'लोक्य' - लोकप्राप्ति में हितकर कहते हैं। इसी से पिता उसका अनुशासन करता है। इस प्रकार जानने वाला वह पिता जब इस लोकसे जाता है तो अपने उन्हीं प्राणों के साथ पुत्र में व्याप्त हो जाता है। यदि किसी प्रमाद, विघ्न अथवा त्रुटी से पिता के द्वारा कोई कर्त्तव्य पूरा नहीं किया जाता तो उस सबसे पुत्र उसे मुक्त कर देता है। इसीसे उसका नाम 'पुत्र' है। वह पिता पुत्र के द्वारा ही इस लोकमें प्रतिष्ठित होता है। तब उस पिता में यही अमर अमृत प्राण (मन, वाणी, प्राण) प्रवेश करते हैं। ॥१७॥ पृथिव्यै चैनमग्नेश्च दैवी वागाविशति। सा वै दैवी वाग्यया यद्यदेव वदति तत्तद्भवति ॥ १८॥ पृथिवी और अग्नि से उस पिता में वह दैवी वाणी का प्रवेश होता है। दैवी वाणी वही है, जिससे पुरुष जो भी बोलता है, वही हो जाता है। ॥१८॥ दिवश्चैनमादित्याच्च दैवं मन आविशति । तद्वै दैवं मनो येनाऽऽनन्द्येव भवत्यथो न शोचति ॥ १९॥ द्युलोक और आदित्य से इसमें दैव मन का प्रवेश हो जाता है। दैव मन सचमुच वही है, जिससे वह केवल आनंदित रहता है, कभी शोक नहीं करता। ॥१९॥ अद्भयश्चैनं चन्द्रमसश्च दैवः प्राण आविशति । स वै दैवः प्राणो यः सञ्चरःश्वासञ्चरश्च न व्यथतेऽथो न रिष्यति । स एवंवित्सर्वेषां भूतानामात्मा भवति । यथैषा देवतैव स यथैतां देवता सर्वाणि भूतान्यवन्त्येव हैवंविदः सर्वाणि भूतान्यवन्ति । यदु किञ्चेमाः प्रजाः शोचन्त्यमैवाऽऽसां तद्भवति पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान्पापं गच्छति ॥ २०॥ जलों से और चन्द्रमा से इसमें दैव प्राण का प्रवेश हो जाता है। दैव प्राण वही है जो चलता हुआ अथवा न चलते हुए भी व्यथित नहीं होता और न नष्ट ही होता है। वह इस प्रकार जानने वाला समस्त भूतों का आत्मा हो जाता है। जैसा यह देवता प्राण है, वैसा ही वह हो जाता है । जिस प्रकार समस्त प्राणी इस देवता (प्राण) का पालन और रक्षा करते हैं, उसी प्रकार ऐसी उपासना करने वाले का समस्त समस्त प्राणी पालन और रक्षा करते हैं। जो कुछ ये प्रजाएँ शोक करती हैं, वह शोकादिजनित दुःख उन्हीं के साथ रहता है। इसे तो पुण्य ही प्राप्त होता है, क्योंकि देवताओंके पास पाप नहीं जाता। ॥२०॥ अथातो व्रतमीमासा । प्रजापतिर्ह कर्माणि ससृजे। तानि सृष्टान्यन्योऽन्येनास्पर्धन्त वदिष्याम्येवाहमिति वाग्दधे द्रक्ष्याम्यहमिति चक्षुः श्रोष्याम्यहमिति श्रोत्रम् । एवमन्यानि कर्माणि यथाकर्म । तानि मृत्युः श्रमो भूत्वोपयेमे तान्याप्नोत् तान्याप्त्वा मृत्युरवारुन्ध । तस्माच्छ्राम्यत्येव वाक् श्राम्यति चक्षुः श्राम्यति श्रोत्रमथेममेव नाऽऽप्नोद् योऽयं मध्यमः प्राणस्तानि ज्ञातुं दधिरेऽयं वै नः श्रेष्ठो यः सञ्चरःश्वासञ्चरश्च न व्यथतेऽथो न रिष्यति । हन्तास्यैव सर्वे रूपमसामेति । त एतस्यैव सर्वे रूपमभवस्तस्मादेत एतेनाऽऽख्यायन्ते प्राणा इति । तेन ह वाव तत्कुलमाचक्षते यस्मिन्कुले भवति य एवं वेद। य उ हैवंविदा स्पर्धतेऽनुशुष्यत्यनुशुष्य हैवान्ततो म्रियत इत्यध्यात्मम् ॥ २१॥ अब आगे व्रत का विचार किया जाता है। प्रजापति ने कर्मों (कर्म करने वाली इन्द्रियों) की रचना की। रचे जाने पर वह एक दूसरे से स्पर्धा करने लगे। वाणी के व्रत लिया कि मैं बोलती ही रहूँगी अर्थात अपने बोलने के धर्म को कभी बंद नहीं करूँगी तथा 'मैं देखता ही रहूँगा' ऐसा नेत्र ने व्रत लिया। 'मैं सुनता ही रहूँगा' ऐसा श्रोत्र ने व्रत लिया। इसी प्रकार अपने-अपने कर्म के अनुसार अन्य इन्द्रियों ने भी व्रत लिया तब मृत्यु ने थकावन श्रम बनकर उनसे सम्बन्ध किया और उनमें व्याप्त हो गया। उनमें व्याप्त होकर मृत्यु ने उनका अवरोध किया, इसी से वाणी थकती ही है, नेत्र थकता ही है, श्रोत्र थकता ही है। किंतु यह जो मध्यम प्राण (मुख्य प्राण) है, इसमें में वह व्याप्त न हो सका । तब उन इन्द्रियों ने उसे जानने का निश्चय किया। निश्चय यही हम सभी से श्रेष्ठ है, जो चलता हुआ तथा न चलता हुआ भी व्यथित नहीं होता और न नष्ट ही होता है। अच्छा, हम सभी इसी के रूप हो जायें। ऐसा निश्चय कर वह सभी इसी के रूप हो गयीं। अतः वह इसी के नामसे 'प्राण' इस प्रकार कही जाती हैं, जो इस रहस्य को जानता है, वह जिस कुल में होता है, वह कुल उसी के नाम से जाना जाता है। तथा जो ऐसे विद्वान् से स्पर्धा करता है, वह सूख जाता है और सूखकर अन्त में मर जाता है। यह अध्यात्मप्राण दर्शन है अर्थात शरीर के सम्बन्ध मे विचार है। ॥२१॥ अथाधिदैवतं ज्वलिष्याम्येवाहमित्यग्निर्दध्र तप्स्याम्यहमित्यादित्यो भास्याम्यहमिति चन्द्रमा एवमन्या देवता यथादैवतः । स यथैषां प्राणानां मध्यमः प्राण एवमेतासां देवतानां वायुर्निम्लोचन्ति ह्यन्या देवता न वायुः । सैषाऽनस्तमिता देवता यद्वायुः ॥ २२॥ अब अधिदैवदर्शन (देवताओं के सम्बन्ध मे विचार) कहा जाता है- अग्नि ने व्रत लिया कि मैं जलता ही रहूँगा', सूर्य ने व्रत लिया, 'मैं तपता ही रहूँगा तथा चन्द्रमा ने व्रत लिया, मैं प्रकाशित ही होता रहूँगा ।' इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी यथा दैवत (जिस देवता का जो व्यापार था, उसीके अनुसार) व्रत लिया। जिस प्रकार इन वाणी प्राणों में मध्यम प्राण है, उसी प्रकार इन देवताओं में वायु है, क्योंकि अन्य देवगण तो अस्त हो जाते हैं; किंतु वायु अस्त नहीं होता। यह जो वायु है, अस्त न होने वाला देवता है। ॥२२॥ अथैष श्लोको भवति यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छतीति प्राणाद्वा एष उदेति प्राणेऽस्तमेति तं देवाश्चक्रिरे धर्म, स एवाद्य स उ श्व इति । यद्वा एतेऽमुर्हाध्रियन्त तदेवाप्यद्य कुर्वन्ति । तस्मादेकमेव व्रतं चरेत् प्राण्याच्चैवापान्याच्च नेन्मा पाप्मा मृत्युराप्नवदिति । यद्यु चरेत् समापिपयिषेत् तेनो एतस्यै देवतायै सायुज्य सलोकतां जयति ॥ २३॥ इसी अर्थ को समझाने वाला यह मन्त्र हैं-जिस वायुदेवता से सूर्य उदय होना है और जिसमें वह अस्त होता है। निःसंदेह यह प्राणसे ही उदित होता है और प्राण में ही अस्त जो जाता है। उस धर्म को देवताओं ने बनाया। वही आज है और वही कल भी रहेगा। देवताओं ने जो व्रत उस समय धारण किया था वही आज भी करते हैं। अतः एक ही व्रतका आचरण करें। प्राण और अपान व्यापार करे अर्थात साँस अन्दर खींचे और बाहर छोड़ें। इस भय से कि कही पापी मृत्यु मुझे व्याप्त न कर ले। इस व्रत का आचरण करें और यदि इसका आचरण करें तो इसे समाप्त करने की भी इच्छा रखें इससे वह इस देवता से सायुज्य और सालोक्य प्राप्त करता है ॥२३॥ ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ पांचवां ब्राह्मण समाप्त ॥

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