ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ९४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ९४ ऋषि – कुत्स अंगीरसः: देवता-अग्नि, मित्र, वरुण, अदिति, सिंधु पृथ्वी, द्यावो । छंद -जगती, १५ १६ त्रिष्टुप, इमं स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया । भद्रा हि नः प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥१॥ पूजनीय जातवेद (अग्नि) को यज्ञ में प्रकट करने के लिए स्तुति को विचार पूर्वक रथ की तरह प्रयुक्त करते हैं। इस यज्ञाग्नि के सान्निध्य से हमारी बुद्धि कल्याणकारी बनती है। हे अग्निदेव ! हम आपकी मित्रता से सन्ताप रहित रहें ॥१॥ यस्मै त्वमायजसे स साधत्यनर्वा क्षेति दधते सुवीर्यम् । स तूताव नैनमश्नोत्यंहतिरग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप जिस साधक की सहायता करते हैं, वह शक्ति से सम्पन्न होकर एवं शत्रुओं से निर्भय होकर निवास करता है। धन- बल से सम्पन्न वह प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है। आपकी मित्रता से हमें कभी कोई कष्ट न हो ॥२॥ शकेम त्वा समिधं साधया धियस्त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम् । त्वमादित्याँ आ वह तान्ह्युश्मस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥३॥ हे अग्निदेव ! आपको समिधाओं आदि से भली-भाँति प्रज्वलित कर हम देवताओं के लिए आहुतियाँ प्रदान करते हैं। हवि ग्रहण करने हेतु देवों को बुलायें और हमारा यज्ञ भली-भाँति सम्पन्न करें । यहाँ हमें उनके आगमन के लिए उत्सुक हैं। हे अग्निदेव ! आपकी मित्रता से हम कल्याण युक्त हों ॥३॥ भरामेध्मं कृणवामा हवींषि ते चितयन्तः पर्वणापर्वणा वयम् । जीवातवे प्रतरं साधया धियोऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥४॥ हे अग्निदेव ! प्रत्येक शुभ अवसर पर हम समिधाएँ एकत्र कर आपको प्रज्वलित करते हैं तथा आहुतियाँ प्रदान करते हैं। आप हमारे दीर्घायुष्य की कामना से यज्ञ को सफल करें। आपकी मित्रता से हम कभी कष्ट न पायें ॥४॥ विशां गोपा अस्य चरन्ति जन्तवो द्विपच्च यदुत चतुष्पदक्तुभिः । चित्रः प्रकेत उषसो महाँ अस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥५॥ इन अग्निदेव से उत्पन्न किरणें समस्त प्राणियों की रक्षा करती हुई विचरण करती हैं। इन अग्निदेव से रक्षित होकर दो पाये (मनुष्य) और चौपाये (पशु) भी विचरण करते हैं। हे अग्निदेव ! विलक्षण तेजों से युक्त होकर आप देवी उषा के सदृश महान् होते हैं। आपकी मित्रता से हम दुःखी न हों ॥५॥ त्वमध्वर्युरुत होतासि पूर्व्यः प्रशास्ता पोता जनुषा पुरोहितः । विश्वा विद्वाँ आर्विज्या धीर पुष्यस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥६॥ हे मेधावी अग्निदेव ! आप अध्वर्यु और चिर पुरातन होता रूप हैं। आप प्रशासक, पोतारूप और प्रारम्भ से ही पुरोहित रूप हैं। आप ऋत्विजों और विद्वानों के सम्पूर्ण कर्मों को पुष्ट करने वाले हैं। आपको मित्रता हमारे लिए कष्टकर न हो ॥६॥ यो विश्वतः सुप्रतीकः सदृङ्‌ङसि दूरे चित्सन्तळिदिवाति रोचसे । रात्र्याश्चिदन्धो अति देव पश्यस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥७॥ हे अग्निदेव ! आप अति उत्तम रूपवान् और सब ओर से दर्शनीय हैं। दूरस्थ होते हुए आप तड़ित् (विद्युत् के समान अति दीप्तिमान् हैं। हे देव ! आप रात्रि के अंधकार को भी नष्ट कर प्रकाशित होते हैं। आपकी मित्रता से हम कभी कष्ट में न रहें ॥७॥ पूर्वी देवा भवतु सुन्वतो रथोऽस्माकं शंसो अभ्यस्तु दूढ्यः । तदा जानीतोत पुष्यता वचोऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥८॥ हे देवो ! सोम-सवन करने वाले को रथ सदा अग्रणी हो। हमारे स्तोत्र पाप बुद्धि वाले दुष्टों का पराभव करें। आप हमारा निवेदन जानकर हमारे वचनों को पुष्ट करें। हे अग्निदेव! आपकी मित्रता से हम कभी व्यथित न हों ॥८॥ वधैर्दुःशंसाँ अप दूढ्यो जहि दूरे वा ये अन्ति वा के चिदत्रिणः । अथा यज्ञाय गृणते सुगं कृध्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप पाप बुद्धि वाले, दूरस्थ अथवा निकटस्थ दुष्टों और हिंसक शत्रुओं का, शस्त्रों से वध करें। तदनन्तर यज्ञ के स्तोता का मार्ग सुगम करें। हम आपकी मित्रता से कभी कष्ट न पायें ॥९॥ यदयुक्था अरुषा रोहिता रथे वातजूता वृषभस्येव ते रवः । आदिन्वसि वनिनो धूमकेतुनाग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥१०॥ हे अग्निदेव ! आप तेजस्वी, रोहित वर्ण वाले, वायु के सदृश वेग वाले अश्वों को रथ में नियोजित करते हैं, तब गम्भीर ध्वनि उत्पन्न होती है। फिर वनों के सभी वृक्षों को आप धूम्र की पताका से ढक लेते हैं। आपको मित्रता से हम कभी कष्ट न पायें ॥१०॥ अध स्वनादुत बिभ्युः पतत्रिणो द्रप्सा यत्ते यवसादो व्यस्थिरन् । सुगं तत्ते तावकेभ्यो रथेभ्योऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥११॥ हे अग्निदेव ! जिस समय आपकी ज्वालाएँ जंगल में फैलती हैं, तो आपके शब्द से पक्षी भयभीत हो उठते हैं। जब ये ज्वालाएँ तिनकों के समूह को जलाती हुई फैलती हैं, तब आपके अधीनस्थ रथ भी सुगमता पूर्वक गमन करते हैं। आपकी मित्रता में हम कभी पीड़ित न हों ॥ ११॥ अयं मित्रस्य वरुणस्य धायसेऽवयातां मरुतां हेळो अद्भुतः । मृळा सु नो भूत्वेषां मनः पुनरग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥१२॥ ये अग्निदेव मित्र और वरुण देवों को धारण करने में समर्थ हैं। उतरते हुए मरुतों का क्रोध भयंकर है। हे अग्निदेव ! इन मरुतों का मन हमारे लिये प्रसन्नता युक्त हो। हमें आप सुखी करें। आपकी मित्रता में हम कभी कष्ट न पायें ॥१२॥ देवो देवानामसि मित्रो अद्भुतो वसुर्वसूनामसि चारुरध्वरे । शर्मन्स्याम तव सप्रथस्तमेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥१३॥ हे दिव्य अग्निदेव ! आप समस्त देवों के अद्भुत मित्र रूप हैं। आप यज्ञ में अति सुशोभित होने वाले और सम्पूर्ण धनों के परमधाम हैं। आपके व्यापक गृह में शरण लेकर हम संरक्षित हों। आपकी मित्रता में हम कभी पीड़ित न हों ॥१३॥ तत्ते भद्रं यत्समिद्धः स्वे दमे सोमाहुतो जरसे मृळयत्तमः । दधासि रत्नं द्रविणं च दाशुषेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥१४॥ हे अग्निदेव ! आप अपने स्थान (यज्ञ गृह) में प्रज्वलित होकर सोमयुक्त आहुतियों को ग्रहण करते हैं, और स्तोताओं को अत्युत्तम सुख प्रदान करते हैं। हविदाताओं को रत्नादि धन देने का आपका कार्य अति प्रशंसनीय हैं। आपकी मित्रता को प्राप्त होकर हम कभी पीड़ित न हों ॥१४॥ यस्मै त्वं सुद्रविणो ददाशोऽनागास्त्वमदिते सर्वताता । यं भद्रेण शवसा चोदयासि प्रजावता राधसा ते स्याम ॥१५॥ हे सुन्दर ऐश्वर्यवान् अनन्त बलवान् अग्निदेव ! आप यज्ञों में जिस याजक को पाप-कर्मों से मुक्त करते हैं, तथा जिसे कल्याण, बल, वैभव के साथ पुत्र-पौत्रादि से युक्त करते हैं, उनमें हम भी शामिल हों ॥१५॥ स त्वमग्ने सौभगत्वस्य विद्वानस्माकमायुः प्र तिरेह देव । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥१६॥ हे दिव्य अग्निदेव ! सर्व सौभाग्य के ज्ञाता आप हमारी आयु में वृद्धि करें। मित्र, वरुण, अदिति, पृथ्वी, समुद्र और आकाश देव भी हमारी उस आयु की रक्षा करें ॥१६॥

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