ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२६ ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः, ६ स्वनयो भावयव्य; ७ रोमशा देवता- १-५ स्वनयो भावयव्यः ६ रोमशा, ७ स्वनयो भावयव्यः। छंद - त्रिष्टुप, ६-७ अनुष्टुप अमन्दान्स्तोमान्प्र भरे मनीषा सिन्धावधि क्षियतो भाव्यस्य । यो मे सहस्रममिमीत सवानतूर्ती राजा श्रव इच्छमानः ॥१॥ हिंसादि कष्टों से परे, जिस राजा 'भाव्य' ने कीर्ति की कामना से युक्त होकर हमारे लिए सहस्रों यज्ञों को सम्पन्न किया, उस सिन्धु नदी के किनारे वास करने वाले नरेश के लिए हम ज्ञान से भरे स्तवनों का विवेक बुद्धिपूर्वक उच्चारण करते हैं ॥१॥ शतं राज्ञो नाधमानस्य निष्काञ्छतमश्वान्प्रयतान्त्सद्य आदम् । शतं कक्षीवाँ असुरस्य गोनां दिवि श्रवोऽजरमा ततान ॥२॥ कक्षीवान् ने स्तोता और धनदाता राजा से सौ स्वर्णमुद्राएँ, सौ वेगशील अश्व तथा सौ श्रेष्ठ वृषभ ग्रहण किये; इससे उस नरेश की स्वर्गलोक में चारों ओर अक्षुण्ण कीर्ति फैल रही है॥२॥ उप मा श्यावाः स्वनयेन दत्ता वधूमन्तो दश रथासो अस्थुः । षष्टिः सहस्रमनु गव्यमागात्सनत्कक्षीवाँ अभिपित्वे अह्नाम् ॥३॥ स्वनय द्वारा प्रदत्त श्रेष्ठ वर्गों के अश्वों से युक्त और श्रेष्ठ स्त्रियों से युक्त दस रथ हमारे यहाँ आये हैं। दिन की प्रारम्भिक वेला में राजा से कक्षीवान् ने साठ हजार गौओं को प्राप्त किया ॥३॥ चत्वारिंशद्दशरथस्य शोणाः सहस्रस्याग्रे श्रेणिं नयन्ति । मदच्युतः कृशनावतो अत्यान्कक्षीवन्त उदमृक्षन्त पज्राः ॥४॥ हजारों की पंक्ति के आगे दस रथों को चालीस घोड़े खींच ले जाते हैं। अन्नयुक्त घास खाकर पुष्ट हुए, स्वर्णालंकारों से युक्त, जिनसे मद टपकता है, ऐसे घोड़ों को कक्षीवन्त अपने वश में करते हैं (मार्जन- मालिश आदि के द्वारा थकान मुक्त करते हैं ।) ॥४॥ पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन्युक्ताँ अष्टावरिधायसो गाः । सुबन्धवो ये विश्या इव व्रा अनस्वन्तः श्रव ऐषन्त पज्राः ॥५॥ हे अन्नादि से पुष्ट श्रेष्ठ आचरण युक्त बन्धुओ! आपके लिए हमने चार- चार (अश्वों अथवा वैभवों से युक्त) आठ और तीन (ग्यारह अर्थात् दस इन्द्रियाँ, ग्यारहवाँ मन) को, अगणित गौओं (पोषण देने वाली धाराओं) सहित प्रथम अनुदान के रूप में प्राप्त किया है। ये सब प्रेमपूर्वक रहनेवाली प्रजाओं-परिवारों की तरह रहकर, रथादियुक्त होकर श्रेय की कामना करें ॥५॥ आगधिता परिगधिता या कशीकेव जङ्गहे । ददाति मह्यं यादुरी याशूनां भोज्या शता ॥६॥ (स्वनय राजा का कथन) मेरी सहधर्मिणी (नीतियुक्त मति-श्रेष्ठ बुद्धि) मेरे लिए अनेक ऐश्वर्य एवं भोग्य पदार्थ उपलब्ध कराती है। यह सदा साथ रहने वाली, गुणों को धारण करने वाली मेरी सह-स्वामिनी है॥६॥ उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः । सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका ॥७॥ (सहधर्मिणी का कथन) हे पतिदेव! आप मेरे पास आकर बार-बार मेरा स्पर्श करें (प्रेरणा लें-परीक्षण करके देखें), मेरे कार्यों को अन्यथा न लें। जिस प्रकार गंधार की भेड़ रोमों से भरी होती है, उसी प्रकार मैं गुणों से युक्त-प्रौढ़ हूँ ॥७॥

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