ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४०

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४० ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - इन्द्र, ५ सूर्य, ६-९ अत्रिः । छंद १-३ उष्णिक्, ५९ अनुष्टुप, ४, ६-८ त्रिष्टुप आ याह्यद्रिभिः सुतं सोमं सोमपते पिब । वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ॥१॥ हे सोमपालक इन्द्रदेव! पाषाण से कूटकर निष्पन्न इस सोमरस का आप पान करें। हे इन्द्रदेव! आप इष्टवर्षक मरुतों के साथ वृत्र का हनन कर वृष्टि करने वाले हैं ॥१॥ वृषा ग्रावा वृषा मदो वृषा सोमो अयं सुतः । वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ॥२॥ सोम-अभिषव में प्रयुक्त पाषाण (दोनों) वर्षणशील हैं। सोम से उत्पन्न हर्ष भी वर्षणशील है। यह अभिषुत किया हुआ सोम भी वर्षणशील है। इष्टवर्षक, वृत्रहन्ता हे इन्द्रदेव! आप वर्षणकारी मरुतों के साथ सोमरस का पान करें ॥२॥ वृषा त्वा वृषणं हुवे वज्रिञ्चित्राभिरूतिभिः । वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ॥३॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आप सोम के सिंचनकर्ता और वृष्टिकर्ता हैं। आपके संरक्षण साधनों से रक्षित होने के लिए हम आपका आवाहन करते हैं। इष्टवर्धक, वृत्रहन्ता है इन्द्रदेव! आप वर्षणकारी मरुतों के साथ सोमपान करें ॥३॥ ऋजीषी वज्री वृषभस्तुराषाट् छुष्मी राजा वृत्रहा सोमपावा । युक्त्वा हरिभ्यामुप यासदर्वाङ्गाध्यंदिने सवने मत्सदिन्द्रः ॥४॥ इन्द्रदेव सोम धारणकर्ता, वज्रधारी, अभीष्टवर्षक, शत्रु-संहारक, शत्रुबलों के शोषक, सर्व अधीश्वर, वृत्रहन्ता और सोमपानकर्ता हैं । ऐसे इन्द्रदेव अपने अश्वों को रथ से युक्त करके हमारे समीप आये और माध्यन्दिन सवन में सोमपान कर हर्षित हों ॥४॥ यत्त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः । अक्षेत्रविद्यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥५॥ हे सूर्यदेव ! जब आपको स्वर्भानु (राहु) ने तमिस्रा से आच्छादित कर दिया था, तब जैसे मनुष्य अन्धकार में अपने क्षेत्र को न जानकर भ्रमित हो जाता है, वैसे ही सभी लोक तमिस्रा में सम्मोहित हो गये ॥५॥ स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन् । गूळ्हं सूर्य तमसापव्रतेन तुरीयेण ब्रह्मणाविन्ददत्रिः ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आपने आकाश के नीचे विद्यमान स्वर्भानु की मायाओं को दूर कर दिया । तमिस्रा से आच्छादित सूर्य को अत्रि ऋषि ने अत्यन्त प्रकृष्ट मंत्रों द्वारा प्रकाशित किया ॥६॥ मा मामिमं तव सन्तमत्र इरस्या दुग्धो भियसा नि गारीत् । त्वं मित्रो असि सत्यराधास्तौ मेहावतं वरुणश्च राजा ॥७॥ (सूर्य का कथन) हे अग्ने ! आपके विद्यमान रहते यह द्रोहकारक, असुररूप, भयोत्पादक तमिस्रा में निगल न जाए। आप सत्यपालक और मित्र स्वरूप हैं। आप और तेजोमय वरुण दोनों मिलकर हमें संरक्षित करें ॥७॥ ग्राव्णो ब्रह्मा युयुजानः सपर्यन्कीरिणा देवान्नमसोपशिक्षन् । अत्रिः सूर्यस्य दिवि चक्षुराधात्स्वर्भानोरप माया अघुक्षत् ॥८॥ ऋत्विज् अत्रि ऋषि ने पाषाणों को संयुक्त कर इन्द्रदेव के निमित्त सोम निष्पादित किया । स्तोत्रों से देवों का पूजन-अर्चन किया और वियों से उन्हें तृप्त किया। द्युलोक में सूर्यदेव को उपदेश देकर उनके चक्षु को स्थापित किया और स्वर्भानु की माया को दूर कर दिया ॥८॥ यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः । अत्रयस्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन् ॥९॥ जिन सूर्यदेव को स्वर्भानु ने तमिस्रा से आच्छादित किया था, अत्रि वंशजों ने उनको मुक्त किया। अन्य कोई ऐसा करने में समर्थ नहीं हुए ॥९॥

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