Garud Upanishad (गरुड़ उपनिषद)

॥ श्री हरि ॥ ॥ अथ गरुडोपनिषत्॥ ॥ हरिः ॐ ॥ विषं ब्रह्मातिरिक्तं स्यादमृतं ब्रह्ममात्रकम् । ब्रह्मातिरिक्तं विषवद्ब्रह्ममात्रं खगेडहम् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवा सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ गुरुके यहाँ अध्ययन करने वाले शिष्य अपने गुरु, सहपाठी तथा मानवमात्र का कल्याण-चिन्तन करते हुए देवताओं से प्रार्थना करते है किः हे देवगण ! हम भगवान का आराधन करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें। नेत्रों से कल्याण ही देखें। सुदृढः अंगों एवं शरीर से भगवान की स्तुति करते हुए हमलोग; जो आयु आराध्य देव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्थ्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ जिनका सुयश सभी ओर फैला हुआ है, वह इन्द्रदेव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखने वाले पूषा हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, हमारे जीवन से अरिष्टों को मिटाने के लिए चक्र सदृश्य, शक्तिशाली गरुड़देव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें तथा बुद्धि के स्वामी बृहस्पति भी हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ गरुडोपनिषत्॥ गरुड़ उपनिषद हरिः ॐ ॥ गारुडब्रह्मविद्यां प्रवक्ष्यामि यां ब्रह्मा विद्यां नारदाय प्रोवाच नारदो बृहत्सेनाय बृहत्सेन इन्द्राय इन्द्रो भरद्वाजाय भरद्वाजो जीवत्कामेभ्यः शिष्येभ्यः प्रायच्छत् । ॥ १॥ अब गारुड़ ब्रह्मविद्या का वर्णन करते हैं; जिस ब्रह्मविद्या को भगवान् ब्रह्मा ने नारद से कहा, नारद ने बृहत्सेन से कहा, बृहत्सेन ने इन्द्र से कहा, इन्द्र ने भरद्वाज से कहा और भरद्वाज ने इस विद्या का शिक्षण जीवकाम (ब्रह्म प्राप्ति द्वारा जीवन धन्य बनाने की इच्छा वाले) शिष्यों को प्रदान किया ॥१॥ अस्याः श्रीमहागरुडब्रह्मविद्याया ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । श्रीभगवान्महागरुडो देवता । श्रीमहागरुडप्रीत्यर्थे मम सकलविषविनाशनार्थे जपे विनियोगः । ॥ २॥ इस श्रीगरुड़ब्रह्मविद्या के ऋषि ब्रह्मा, छन्द-गायत्री, श्रीभगवान् महागरुड़-देवता हैं। श्री महागरुड़ की प्रसन्नता के लिए तथा मेरे समस्त विषों के विनाशार्थ जप में इसका विनियोग किया जाता है॥२॥ ॐ नमो भगवते अङ्‌गुष्ठाभ्यां नमः । श्री महागरुडाय तर्जनीभ्यां स्वाहा । पक्षीन्द्राय मध्यमाभ्यां वषट् । श्रीविष्णुवल्लभाय अनामिकाभ्यां हुम् । त्रैलोक्य परिपूजिताय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् । उग्रभयङ्करकालानलरूपाय करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् । एवं हृदयादिन्यासः । भूर्भुवः सुवरोमिति दिग्बन्धः । ॥ ३॥ ॐ नमो अङ्‌गुष्ठाभ्यां नमः। (दोनों हाथों की तर्जनी अँगुलियों से दोनों अँगूठों का स्पर्श) श्री महागरुडाय तर्जनीभ्यां स्वाहा। (दोनों हाथों के अँगूठों से दोनों तर्जनी अङ्गलियों का स्पर्श) पक्षीन्द्राय मध्यमाभ्यां वषट्। (अँगूठों से मध्यमा अँगुलियों का स्पर्श) । श्री विष्णुवल्लभाय अनामिकाभ्यां हुम्। (अँगूठों से अनामिका अँगुलियों का स्पर्श) त्रैलोक्यपरिपूजिताय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। (अँगूठों से कनिष्ठिका अँगुलियों का स्पर्श) उग्रभयंकर करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् । (हथेलियों और उनके पृष्ठ भागों का परस्पर स्पर्श)। इसी तरह से दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों से हृदयादि (शिर, शिखा, कवच, नेत्रादि) का भी न्यास (स्पर्श) करना चाहिए ॥३॥ ध्यानम् । स्वस्तिको दक्षिणं पादं वामपादं तु कुञ्चितम् । प्राज्ञ्जलीकृतदोर्युग्मं गरुडं हरिवल्लभम् ॥ अनन्तो वामकटको यज्ञसूत्रं तु वासुकिः । तक्षकाः कटिसूत्रं तु हारः कार्कोट उच्यते ॥ पद्मो दक्षिणकर्णे तु महापद्मस्तु वामके । ि शङ्खः शिरः प्रदेशे तु गुलिकस्तु भुजान्तरे ॥ पौण्ड्रकालिकनागाभ्यां चामराभ्यां स्वीजितम् । एलापुत्रकनागाद्यैः सेव्यमानं मुदान्वितम् ॥ कपिलाक्षं गरुत्मन्तं सुवर्णसदृशप्रभम् । दीर्घबाहुं बृहत्स्कन्धं नादाभरणभूषितम् ॥ आजानुतः सुवर्णाभमाकट्योस्तुहिनप्रभम् । कु‌ङ्कुमारुणमाकण्ठं शतचन्द्र निभाननम् ॥ नीलाग्रनासिकावक्त्रं सुमहच्चारुकुण्डलम् । दंष्ट्राकरालवदनं किरीटमुकुटोज्ज्वलम् ॥ कुङ्कुमारुणसर्वाङ्गं कुन्देन्दुधवलाननम् । विष्णुवाह नमस्तुभ्यं क्षेमं कुरु सदा मम ॥ एवं ध्यायेत्त्रिसन्ध्यासु गरुडं नागभूषणम् । विषं नाशयते शीघ्रं तूलरशिमिवानलः ॥ ४॥ ध्यान- जिनका दाहिना पैर स्वस्तिक के आकार के सदृश है, बायाँ पैर घुटने तक सिकोड़ कर रखा है। जिन्होंने दोनों हाथों को प्रणाम की मुद्रा में जोड़ रखा है, जो विष्णुवल्लभ हैं। जिन्होंने अनन्त नामक नाग को बायें हाथ में कड़े के रूप में धारण कर रखा है। यज्ञोपवीत के रूप में वासुकि को धारण किया है। तक्षक को करधनी के रूप में और कर्कोट को गले में हार के सदृश धारण किया है। पद्म नामक नाग को दाहिने कान में और महापद्म को बायें कान में आभूषण की भाँति धारण कर रखा है। शंख नामक नाग को सिर पर एवं गुलिक (नाग) को भुजाओं के मध्य में धारण कर रखा है। पौण्ड्र एवं कालिक नागों को चॅवरों के रूप में प्रयुक्त किया गया है। एला तथा पुत्रक आदि नागों के द्वारा प्रसन्नतापूर्वक जिनकी सेवा की जाती है। कपिल वर्ण सदृश नेत्र सुवर्ण के समान कान्ति वाले, लम्बी भुजाओं वाले, चौड़े (विशाल) कन्धे वाले, नागों के अलंकारों से विभूषित, जानु पर्यन्त सुवर्ण के समान कान्ति वाले तथा कटि पर्यन्त हिम के समान श्वेत प्रभा वाले, कुंकुम के समान लाल शरीर वाले, सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान मुख-कान्ति वाले, जिनकी नासिका का अग्रभाग तथा मुख मण्डल नील वर्ण का है। विशाल कुण्डलों से युक्त जिनके कान हैं। भयंकर दाढ़ों से युक्त विकराल मुख वाले, अत्यन्त देदीप्यमान मुकुट धारण करने वाले, कुंकुम लगाने से लाल अंग वाले, कुन्द पुष्प एवं चन्द्र के सदृश धवल मुख वाले, हे विष्णु के वाहन गरुड़देव! आपको नमस्कार है। आप सदैव हमारा कल्याण करें। इस प्रकार तीनों संध्याओं में नागों से अलंकृत गरुड़ का ध्यान करना चाहिए। (इससे प्रसन्न होकर वे गरुड़देव) रुई के ढेर को, अग्नि के द्वारा दग्ध करने के सदृश विष को शीघ्र ही विनष्ट कर देते हैं॥४॥ ओमीमों नमो भगवते श्रीमहागरुडाय पक्षीन्द्राय विष्णुवल्लभाय त्रैलोक्यपरिपूजिताय उग्रभयंकरकालानलरूपाय वज्रनखाय वज्रतुण्डाय वज्रदन्ताय वज्रदंष्ट्राय वज्रपुच्छाय वज्रपक्षालक्षितशरीराय ओमीकेह्येहि श्रीमहागरुडाप्रतिशासनास्मिन्नाविशाविश दुष्टानां विषं दूषयदूषय स्पृष्टानां नाशयनाशय दन्दशूकानां विषं दारयदारय प्रलीनं विषं प्रणाशयप्रणाशय सर्वविषं नाशयनाशय हनहन दहदह पचपच भस्मीकुरुभस्मीकुरु हुं फट् स्वाहा ॥ ॥ ५॥ पक्षिराज गरुड़, विष्णुवल्लभ (विष्णुप्रिय), तीनों लोकों के द्वारा पूजित किये जाने वाले, उग्र-भयंकर कालाग्नि के सदृश, कठोर नखों से युक्त, कठोर चञ्चु (चोंच) से युक्त, कठोर दाँत वाले, कठोर दाढ़ों वाले, कठोर पूंछ वाले, कठोर पंखों से लक्षित शरीर वाले भगवान् श्रीमहागरुड़ को नमस्कार है। आप आएँ, हे महागरुड़! अपने अनुशासित इस आसन पर आएँ, प्रवेश करें। दुष्टों के विष को दूर करें, दूर करें। जो विष स्पर्श-मात्र से आ जाता है, उसे नष्ट करें, नष्ट करें। रेंगने वाले विषैले सर्पों के विष को दूर करें, दूर करें । प्रलीन (छिपे हुए) विष को दूर हटाएँ, दूर हटाएँ। सभी तरह के विषों को विनष्ट करें, विनष्ट करें। मारें-मारें, जलाएँ-जलाएँ, पचाएँ-पचाएँ। समस्त विषों को भस्मीभूत करें, भस्मीभूत करें। हुं फट् (बीज मन्त्र के सहित गरुड़देव की प्रसन्नता के लिए इस मन्त्र से आहुति समर्पित करें अथवा) आहुति समर्पित है॥५॥ चन्द्रमण्डलसंकाश सूर्यमण्डलमुष्टिक । पृथ्वीमण्डलमुद्राङ्ग श्रीमहागरुडाय विषं हरहर हुं फट् स्वाहा ॥ ॐ क्षिप स्वाहा ॥ ॥ ६॥ आप चन्द्रमण्डल के सदृश हैं। आपकी मुष्टिका में सूर्यमण्डल स्थित है, ऐसे आप पृथ्वी मण्डल के सदृश मुद्राङ्गों वाले हे श्रीमहागरुड़! (आप) समस्त विषों का हरण करें-हरण करें, नष्ट करें। हुं फट् (बीज मन्त्र के सहित श्रीगरुड़ की प्रसन्नता के लिए) आहुति समर्पित है। ॐ (हे महागरुड़ ! आप विषधरों अथवा विषों को) क्षिपे अर्थात् दूर फेंक दें। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥६॥ ओमीं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषाणां च विषरूपिणी विषदूषिणी विषशोषणी विषनाशिनी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषमन्तः प्रलीनं विषं प्रनष्टं विषं हतं ते ब्रह्मणा विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ ७॥ तत्कारि-मत्कारि (उनकी या हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, उसे (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों के विष (अर्थात् विषनाशक) विषरूपिणी, विष को दूषित, शोषित, नष्ट एवं हरण करने वाली, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसके द्वारा घातक विष को, अन्तर्लीन विष को प्रणाशक (नष्ट करने वाले) विष को नष्ट कर दिया गया। विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने सहयोग प्रदान किया। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥७॥ ॐ नमो भगवते महागरुडाय विष्णुवाहनाय त्रैलोक्यपरिपूजिताय वज्रनखवज्रतुण्डाय वज्रपक्षालंकृत- शरीराय एह्येहि महागरुड विषं छिन्धिच्छिन्धि आवेशयावेशय हुं फट् स्वाहा ॥ ॥ ८॥ (उन) भगवान् महागरुड़ को नमस्कार है। भगवान् विष्णु के वाहन तीनों लोकों में पूजित, वज्रवत् । कठोर नाखून एवं कठोर चोंच वाले तथा अपने शरीर को कठोर पंखों से अलंकृत करने वाले हे गरुड़देव! आप आएँ-आप पधारें। हे महागरुड़ ! आप आविष्ट (प्रविष्ट) हो करके विष को छिन्न-भिन्न कर दें।' हुं फट्' (बीज मन्त्र के सहित गरुड़देव के प्रसन्नतार्थ) आहुति समर्पित है॥८॥ सुपर्णोऽसि गरुत्मात्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रं चक्षुः स्तोम आत्मा साम ते तनूर्वमदेव्यं बृहद्रथन्तरे पक्षौ यज्ञायज्ञियं पुच्छं छन्दांस्यङ्गानि धिष्णिया शफा यजूंशि नाम ॥ ॥९॥ हे ऊर्ध्वगामी महागरुड़देव! आप सुन्दर पंखों से युक्त, अग्निदेव के सदृश गतिशील हैं। त्रिवृत् स्तोम आपका शिर और गायत्र (साम) आपके नेत्र हैं। दोनों पंख के रूप में बृहत् एवं रथन्तर साम हैं, यज्ञ आपकी अन्तरात्मा, सभी छन्द आपके शरीर के अंग तथा यजुः आपका नाम है। वामदेव नामक साम आपकी देह, यज्ञायज्ञिय नामक साम आपकी पूँछ एवं धिष्ण्य स्थित अग्नि आपके खुर-नख हैं। हे गरुड़देव ! आप अग्निवत् दिव्य लोक की ओर गमन करें तथा स्वर्गलोक को प्राप्त करें ॥९॥ सुपर्णोऽसि गरुत्मान्दिवं गच्छ सुवः पत ओमीं ब्रह्मविद्या- ममावास्यायां पौर्णमास्यां पुरोवाच सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं प्रनष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ १०॥ प्राचीन काल में यह ब्रह्मविद्या अमावस्या-पूर्णिमा के दिन बताई थी। तत्कारि-मत्कारि (उनकी अथवा हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है (संचरण कर रहा है), उसे (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष अर्थात् विषनाशक है। विष को दूषित एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने उस घातक विष को, अन्तर्लीन विष को, प्रणाशक विष को इन्द्र के वज्र द्वारा नष्ट कर दिया। विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने सहयोग प्रदान किया। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥१०॥ तस्यम् । यद्यनन्तकदूतोऽसि यदि वानन्तकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा । ॥ ११॥ 'तत्त्र्य म्' (अर्थात् यह बीज मन्त्र सभी प्रकार के विषों को हरण करने में समर्थ है) तुम चाहे अनन्तक के दूत हो अथवा स्वयं अनन्तक हो। तत्कारि-मत्कारि (उनकी अथवा हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित (संचरित) हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों के लिए विष है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्ममय है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस विष को मारकर (उस) प्रणाशक विष को नष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥११॥ यदि वासुकिदूतोऽसि यदि वा वासुकिः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ १२ ॥ तुम चाहे वासुकि के दूत हो अथवा स्वयं वासुकि हो। तत्कारि- मत्कारि (उनकी अथवा हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित (संचरित) हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष को दूषित, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को विनष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥१२॥ यदि वा तक्षकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ १३॥ तुम चाहे तक्षक के दूत हो अथवा तक्षक हो । उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है, विष को दूषित, नष्ट एवं मारने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ही ब्रह्म स्वरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है ॥१३॥ यदि कर्कोटकदूतोऽसि यदि वा कर्कोटकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ १४॥ तुम चाहे कर्कोटक के दूत हो अथवा स्वयं कर्कोटक हो।' तत्कारि- मत्कारि' (उनकी या हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित (संचरित) हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष अर्थात् विष नाशक है। विष को दूषित करने, मारने एवं नष्ट करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्म स्वरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, 'स्वाहा' ॥१४॥ यदि पद्मकदूतोऽसि यदि वा पद्मकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ १५॥ तुम चाहे पद्मक के दूत हो अथवा स्वयं पद्मक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, 'स्वाहा' ॥१५॥ यदि महापद्मकदूतोऽसि यदि वा महापद्मकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ १६॥ तुम चाहे महापद्मक के दूत हो अथवा स्वयं महापद्मक हो। 'तत्कारि- मत्कारि' (उनकी अथवा हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने-नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उसे घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है 'स्वाहा' ॥१६॥ यदि श‌ङ्खकदूतोऽसि यदि वा शङ्खकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ १७॥ तुम चाहे शङ्खक के दूत हो या स्वयं श‌ङ्खक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है, इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, 'स्वाहा' ॥ १७ ॥ य दि गुलिकद्वतोऽसि यदि वा गुलिकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ १८॥ तुम चाहे गुलिक के दूत हो अथवा स्वयं गुलिक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है। उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, 'स्वाहा' ॥ १८ ॥ यदि पौण्ड्रकालिकदूतोऽसि यदि वा पौण्ड्रकालिकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ १९॥ तुम चाहे पौण्डुकालिक के दूत हो अथवा स्वयं पौण्डुकालिक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, 'स्वाहा' ॥१९॥ यदि नागकदूतोऽसि यदि वा नागकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ॥ २०॥ तुम चाहे नागक के दूत हो अथवा स्वयं नागक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है। ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है। ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर नष्ट कर दिया है। इस विष को विनष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, 'स्वाहा' ॥२०॥ यदि लूतानां प्रलूतानां यदि वृश्चिकानां यदि घोटकानां यदि स्थावरजङ्ग‌मानां सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा । ॥ २१॥ तुम चाहे मकड़ी, बड़ी (श्रेष्ठ) मकड़ी हो चाहे वृश्चिक (बिच्छू) हो, चाहे घुड़दौड़ सर्प हो और चाहे स्थावर जंगम हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विप वर्द्धित एवं संचरित हो रहा है। ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर नष्ट कर दिया। इस विष को विनष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, 'स्वाहा' ॥२१॥ अनन्तवासुकितक्षककर्कोटकपद्मकमहापद्मक- शङ्खकगुलिकपौण्ड्रकालिकनागक इत्येषां दिव्यानां महानागानां महानागादिरूपाणां विषतुण्डानां विषदन्तानां विषदंष्ट्राणां विषाङ्गानां विषपुच्छानां विश्वचाराणां वृश्चिकार्ना लूतानां प्रलूतानां मूषिकाणां गृहगौलिकानां गृहगोधिकानां घ्रणासानां गृहगिरिगह्वरकालानलवल्मीकोद्भूतानां तार्णानां पार्णानां काष्ठदारुवृक्षकोटरस्थानांी मूलत्वग्दारुनिर्यासपत्रपुष्पफलो‌द्भूतानां दुष्टकीटकपिश्वान- मार्जारजंबुकव्याघ्रवराहाणां जरायुजाण्डजोद्भिज्जस्वेदजानां शस्त्रबाणक्षतस्फोटव्रणमहाव्रणकृतानां कृत्रिमाणामन्येषां भूतवेतालकूष्माण्डपिशाचप्रेतराक्षसयक्षभयप्रदानां विषतुण्डदंष्ट्रानां विषाङ्गानां विषपुच्छानां विषाणां विषरूपिणी विषदूषिणी विषशोषिणी विषनाशिनी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषमन्तः प्रलीनं विषं प्रनष्टं विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा । ॥ २२॥ अनन्तक, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्मक, महापद्मक, श‌ङ्खक, गुलिक, पौण्ड्रकालिक आदि सभी नाग तथा अन्य सभी दिव्य महानाग एवं महानागों के आदि रूपों वाले, विषैले चञ्चु (चोंच) वाले, विषैले दाँत वाले, विषैले दाढ़ वाले, विषैले अंगों वाले, विषैली पूँछ वाले, सभी जगह विचरण करने वाले, विषैले वृश्चिक (बिच्छू), मकड़ी, प्रकृष्ट (बड़ी) मकड़ी, मूषिका (चुहिया), गृहगौलिक (छबूंदर), गृह गोधिका (छिपकली), घोटक (घृणा उत्पन्न करने वाले विषैले कीटाणु), घरों में स्थित फर्श, दीवारों के छोटे-छोटे छिद्रों आदि में रहने वाले कालानल (विषैले कीड़े), चींटी-चींटे, दीमक आदि उत्पन्न होने वाले, तृण, पत्तों, काष्ठ, पेड़, वृक्षों के कोटर (पोले स्थान) आदि में स्थित रहने वाले, जड़, तना, वृक्ष आदि के छाल, पत्ते, पुष्प एवं फलों आदि से उद्भूत होने वाले, विषैले दुष्ट कीट, बन्दर, कुत्ते, बिल्ली, सियार, व्याघ्र (बघर्रा), वराह आदि विचरण करने वाले विषैले जानवर, जरायुज (पशु-मनुष्य आदि), अण्डज (अण्डों से उत्पन्न), उभिज्ज (पेड़-पौधे) एवं स्वेदज (पसीने से प्रादुर्भूत प्राणी), शस्त्र (हाथ से लेकर प्रहार करने वाले), बाण (फेंककर मारने वाले) आदि से क्षत-विक्षत अंग, फोड़े, घाव एवं बड़े घावों से प्रकट होने वाले बड़े कीटक, कृत्रिम एवं अन्य विष, भूत, बेताल, कूष्माण्ड, प्रेत, पिशाच, राक्षस, यक्ष आदि भय प्रदान करने वाले, विषैली चंचु (चोंच) वाले, विषैले दाढ़ वाले, विषैले अंगों वाले, विषैली पूँछ वाले हों, (परन्तु) विषों की विष अर्थात् विष नाशक (वह ब्रह्मविद्या) समस्त विषों को दूषित करने वाली, विषों को शोषित करने वाली, विषों को विनष्ट करने वाली, विषों को हरण करने वाली है। (वह ब्रह्मविद्या) इन सभी विषों को मारे, नष्ट करे। उस (ब्रह्मविद्या) ने इन घातक विषों को, अन्तर्लीन छिपे हुए विष को, प्रणाशक विषों को नष्ट कर दिया है। इन सभी विषों को विनष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, 'स्वाहा' ॥२२॥ य इमां ब्रह्मविद्याममावास्यायां पठेच्छृणुयाद्वा यावज्जीवं न हिंसन्ति े सर्पाः । अष्टौ ब्राह्मणान्ग्राहयित्वा तृणेन मोचयेत् । शतं ब्राह्मणान्ग्राहयित्वा चक्षुषा मोचयेत् । सहस्रं ब्राह्मणान्ग्राहयित्वा मनसा मोचयेत् । सर्पाञ्जले न मुञ्चन्ति । तृणे न मुञ्चन्ति । काष्ठे न मुञ्चन्तीत्याह भगवान्ब्रह्मेत्युपनिषत् ॥ ॥ २३॥ जो साधक (मनुष्य) इस ब्रह्मविद्या का अमावस्या के दिन पाठ करता या श्रवण करता है, उसका जब तक जीवन रहता है, तब तक उसे सर्प (आदि विषैले जन्तु) नहीं काटते । (इस ब्रह्मविद्या को) आठ ब्राह्मणों को ग्रहण (स्वीकार) करवाकर तृण (जड़ी-बूटी) के द्वारा विष को मुक्त करना चाहिए। सौ ब्राह्मणों को (इसे) ग्रहण करवा करके नेत्रों से (विष को) मुक्त करना चाहिए। हजार ब्राह्मणों को (इसे) ग्रहण करवाकर मन से (अर्थात् संकल्प शक्ति से) ही (विष को) मुक्त करना चाहिए। सर्प-विष, जल, तृण एवं काष्ठ के उपचार से भी छोड़ता नहीं है। इस प्रयोग से मुक्त कर देता है। ऐसा ही भगवान् ब्रह्मा जी ने इस गरुडोपनिषद् को ऋषियों के समक्ष उपदिष्ट किया है। यही उपनिषद् है॥२३॥ ॥ हरिः ॐ ॥ शान्तिपाठ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।ि स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवासस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ गुरुके यहाँ अध्ययन करने वाले शिष्य अपने गुरु, सहपाठी तथा मानवमात्र का कल्याण-चिन्तन करते हुए देवताओं से प्रार्थना करते है किः हे देवगण ! हम भगवान का आराधन करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें। नेत्रों से कल्याण ही देखें। सुदृढः अंगों एवं शरीर से भगवान की स्तुति करते हुए हमलोग; जो आयु आराध्य देव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्थ्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ जिनका सुयश सभी ओर फैला हुआ है, वह इन्द्रदेव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखने वाले पूषा हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, हमारे जीवन से अरिष्टों को मिटाने के लिए चक्र सदृश्य, शक्तिशाली गरुड़देव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें तथा बुद्धि के स्वामी बृहस्पति भी हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति श्रीगारुडोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ श्री गरुड़ उपनिषद समात ॥

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