ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १८९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १८९ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम ॥१॥ दिव्य गुणों से युक्त हे अग्निदेव ! आप सम्पूर्ण मार्गों (ज्ञान) को जानते हुए हम याजकों को यज्ञ फल प्राप्त करने के लिए सन्मार्ग पर ले चलें । हमें कुटिल आचरण करने वाले शत्रुओं तथा पापों से मुक्त करें हम आपके लिए स्तोत्र एवं नमस्कारों का विधान करते हैं ॥१॥ अग्ने त्वं पारया नव्यो अस्मान्स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा । पूश्च पृथ्वी बहुला न उर्वी भवा तोकाय तनयाय शं योः ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप नित्यनूतन अथवा अति प्रशंसनीय हैं। आपकी कृपा से मंगलकारी मार्गों से हम सभी प्रकार के दुर्गम पापकर्मों एवं कष्टकारी दुःखों से निवृत्त हों। यह पृथ्वीं और नगर हमारे लिए उत्तम और विस्तृत हों। आप हमारी सन्तानों के लिए सुखप्रदायी हों ॥२॥ अग्ने त्वमस्मद्युयोध्यमीवा अनग्नित्रा अभ्यमन्त कृष्टीः । पुनरस्मभ्यं सुविताय देव क्षां विश्वभिरमृतेभिर्यजत्र ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप यज्ञ द्वारा हमारे सभी रोगों (विकारों) का निवारण करें । यज्ञरहित मनुष्य सदैव रोग विकारों से त्रस्त रहते हैं। हे देव ! आप अमरत्व प्राप्त सभी देवताओं के साथ दिव्य गुणों से युक्त होकर हमारे कल्याण की कामना से यज्ञस्थल पर संगठित रूप से पधारें ॥३॥ पाहि नो अग्ने पायुभिरजसैरुत प्रिये सदन आ शुशुक्वान् । मा ते भयं जरितारं यविष्ठ नूनं विदन्मापरं सहस्वः ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप निरन्तर अपनी संरक्षण शक्तियों से हमें रक्षित करें और हमारे प्रिय यज्ञ स्थल में पधारकर सर्वत्र प्रकाशमान हो। हे नित्य तरुण रूप अग्निदेव ! आपके स्तोता सभी प्रकार के भयों से मुक्त हों हे बलों से उत्पन्न अग्निदेव! आपकी सामर्थ्य से अन्य संकटों के समय भी हम निर्भय रहें ॥४॥ मा नो अग्नेऽव सृजो अघायाविष्यवे रिपवे दुच्छ्रुनायै । मा दत्वते दशते मादते नो मा रीषते सहसावन्परा दाः ॥५॥ हे बलवान् अग्निदेव ! हमें पापों में लिप्त, अर्धमयुक्त कार्यों से उपार्जित अन्न को खाने वाले, सुखों के नाशक शत्रुओं के बन्धन में न सौंपें । हमें दाँतों से काटने वाले सर्परूपी शत्रुओं के अधीन न करें तथा हिंसकों एवं दस्यु असुरों के बन्धन में भी न बाँधे ॥५॥ वि घ त्वावाँ ऋतजात यंसद्गृणानो अग्ने तन्वे वरूथम् । विश्वाद्रिरिक्षोरुत वा निनित्सोरभिहुतामसि हि देव विष्पट् ॥६॥ हे यज्ञ के निमित्त उत्पन्न अग्निदेव ! आपके साधक आपकी श्रेष्ठ प्रार्थना करते हुए शारीरिक दृष्टि से परिपुष्ट होकर हिंसक एवं पर निन्दक दृष्ट व्यक्तियों से स्वयं को संरक्षित करते हैं। हे दिव्य गुण सम्पन्न अग्निदेव ! आप दुर्बुद्धि से ग्रस्त, दुर्व्यव्यवहारयुक्त दुष्टकर्मियों को निश्चित ही दण्डित करने वाले हैं॥६॥ त्वं ताँ अग्न उभयान्वि विद्वान्वेषि प्रपित्वे मनुषो यजत्र । अभिपित्वे मनवे शास्यो भूर्मर्मृजेन्य उशिग्भिर्नाक्रः ॥७॥ हे यजन योग्य अग्निदेव! आप यज्ञ प्रेमी और यज्ञ विहीन इन दोनों से भलीप्रकार परिचित होते हुए प्रभात वेला में मनुष्यों के पास पहुँचते हैं। पराक्रम-सम्पन्न आप यज्ञ में उपस्थित मनुष्यों को उसी प्रकार शिक्षण प्रदान करें, जिस प्रकार ऋत्विज् यजमानों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं॥७॥ अवोचाम निवचनान्यस्मिन्मानस्य सूनुः सहसाने अग्नौ । वयं सहस्रमृषिभिः सनेम विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥८॥ यज्ञ के उत्पन्नकर्ता और शत्रुसंहारक इन अग्निदेव के निमित्त हम सभी प्रकार के स्तोत्रों का गान करते हैं। हम इन इन्द्रिय रूपी ऋषियों को समर्थ बनाकर अनेक ऐश्वर्यों का उपभोग करें तथा अन्न, बल और दीर्घायुष्य को प्राप्त करें ॥८॥

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