ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १८५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १८५ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- द्यावापृथ्वी । छंद - त्रिष्टुप कतरा पूर्वा कतरापरायोः कथा जाते कवयः को वि वेद । विश्वं त्मना बिभृतो यद्ध नाम वि वर्तेते अहनी चक्रियेव ॥१॥ हे ऋषियो ! ये (द्युलोक और भूलोक) दोनों किस प्रकार उत्पन्न हुए और इन दोनों में कौन सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ तथा बाद में कौन हुआ? इस रहस्य को कौन भलीप्रकार जानने में समर्थ है? ये दोनों लोक सम्पूर्ण विश्व को धारण करते हैं और चक्र के समान घूमते हुए दिन- रात का निर्माण करते हैं॥१॥ भूरिं द्वे अचरन्ती चरन्तं पद्वन्तं गर्भमपदी दधाते । नित्यं न सूनुं पित्रोरुपस्थे द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥२॥ स्वयं पद विहीन तथा अचल होने पर भी ये दोनों द्यावा-पृथिवी असंख्य चलने-फिरने में सक्षम पदयुक्त प्राणियों को धारण करते हैं। जिस प्रकार माता-पिता समीप उपस्थित पुत्र की सहायता करते हैं, उसी प्रकार द्युलोक और पृथिवी हम सभी प्राणियों को संकटों से बचायें ॥२॥ अनेहो दात्रमदितेरनर्वं हुवे स्वर्वदवधं नमस्वत् । तद्रोदसी जनयतं जरित्रे द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥३॥ हम अविनाशी पृथ्वी से पापमुक्त, क्षयरहित, हिंसारहित, तेजस्वी और विनम्रता प्रदान करने वाले धन-वैभव की कामना करते हैं। हे द्यावा- पृथिवि ! ऐसा वैभव स्तोताओं के लिए प्रदान करें। ये दोनों पाप कर्मों से हमारी रक्षा करें ॥३॥ अतप्यमाने अवसावन्ती अनु ष्याम रोदसी देवपुत्रे । उभे देवानामुभयेभिरह्नां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥४॥ देव शक्तियों के उत्पादक, द्युलोक और पृथ्वी लोक पीड़ित न होते हुए भी अपने कार्य में शिथिल न होते हुए अपनी संरक्षण की शक्तियों से प्राणियों के संरक्षक हैं। दिव्यता युक्त दिन और रात के अनुकूल हम रहें। द्यावा-पृथिवी दोनों, पाप से हमारी रक्षा करें ॥४॥ संगच्छमाने युवती समन्ते स्वसारा जामी पित्रोरुपस्थे । अभिजिघ्रन्ती भुवनस्य नाभिं द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥५॥ चिर युवा, बहिनों की तरह परस्पर सहयोग करने वाली ये दोनों (द्यावा-पृथिवी) पिता के समीप (परमात्मा के अनुशासन में) रहकर भुवन की नाभि (यज्ञ) को सूंघती (उससे पुष्ट होती हैं। ये द्यावा-पृथिवी हमें सभी विपदाओं से संरक्षित करें ॥५॥ उर्वी सद्मनी बृहती ऋतेन हुवे देवानामवसा जनित्री । दधाते ये अमृतं सुप्रतीके द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥६॥ जो श्रेष्ठ स्वरूप वाली द्यावा-पृथिवीं जल रूप अमृत को धारण करती हैं। ऐसी विशाल आश्रयभूत तथा सबको उत्पन्न करने वाली द्यावा- पृथिवी को देवशक्तियों की प्रसन्नता के लिए-यज्ञीय कार्य के लिए आवाहित करते हैं, वे दोनों (द्यावा पृथिवीं) हमें पाप कर्मों से बचायें ॥६॥ उर्वी पृथ्वी बहुले दूरेअन्ते उप ब्रुवे नमसा यज्ञे अस्मिन् । दधाते ये सुभगे सुप्रतूर्ती द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥७॥ जो सुन्दर आकृतिरूप और श्रेष्ठ दानदाता रूप में द्यावा-पृथिवीं सबकी धरित्री हैं, ऐसी विशाल, व्यापक विभिन्न आकृतिरूप तथा जिनकी सीमा अनन्त हैं, उन द्यावा-पृथिवी की इस यज्ञ में विनम्र भावना से हम प्रार्थना करते हैं। वे (द्यावा-पृथिवी) हमें संकटों से सुरक्षित करें ॥७॥ देवान्वा यच्चकृमा कच्चिदागः सखायं वा सदमिज्जास्पतिं वा । इयं धीर्भूया अवयानमेषां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥८॥ यदि हमसे कभी प्रमावश देवशक्तियों, मित्रजनों अथवा समस्त जगत् के सृजेता परमेश्वर के प्रति कोई पापकर्म बन पड़े हों, तो उनका शमन करने में हमारी विवेक बुद्धि सक्षम हो। द्यावा-पृथिवी पापकर्मों से हमारी रक्षा करें ॥८॥ उभा शंसा नर्या मामविष्टामुभे मामूती अवसा सचेताम् । भूरि चिदर्यः सुदास्तरायेषा मदन्त इषयेम देवाः ॥९॥ मनुष्यों के कल्याणकारी तथा स्तुति योग्य दोनों द्युलोक-पृथिवीलोक हमें आश्रय प्रदान करें। दोनों संरक्षक द्यावा-पृथिवी अपने संरक्षण साधनों से हमारा पोषण करें। हे देवशक्तियो ! हम श्रेष्ठता को धारण करते हुए, अन्नादि से हर्षित होकर दानवृत्ति को बनाये रखने के लिए प्रचुर धन सम्पदा की कामना करते हैं ॥९॥ ऋतं दिवे तदवोचं पृथिव्या अभिश्रावाय प्रथमं सुमेधाः । पातामवद्या‌दुरितादभीके पिता माता च रक्षतामवोभिः ॥१०॥ हम सद्बुद्धि को धारण करते हुए द्युलोक और पृथ्वीलोक की गरिमा से सम्बन्धित इस सत्यवाणी (ऋचा) की घोषणा करते हैं। पास- पास रहने वाले ये दोनों लोक अनिष्टों से हमारा संरक्षण करें । पितारूप (द्युलोक) और मातारूप (पृथ्वी) सरंक्षण साधनों से हमारी रक्षा करें ॥१०॥ इदं द्यावापृथिवी सत्यमस्तु पितर्मातर्यदिहोपब्रुवे वाम् । भूतं देवानामवमे अवोभिर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥११॥ हे पिता और माता रूप द्यावा-पृथिवि ! आप दोनों के निमित्त इस यज्ञ में जो स्तुतियाँ हम करते हैं, उनका प्रतिफल हमें अवश्य मिले। आप दोनों देवत्वयुक्त संरक्षण साधनों से हमारी रक्षा करें एवं हमें अन्न, बल और दीर्घायुष्य प्रदान करें ॥११॥

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